बूंद-बूंद से झरती कविता

By: Jul 17th, 2017 12:05 am

बारिश की बूंदों से धरती पर ही कोंपलें नहीं फूटतीं, मन की मिट्टी में भी नवांकुर निकल आते हैं। इस मौसम में सृजनात्मकता अपने चरम पर होती है। प्रकृति के सभी अंग-उपांग सक्रिय हो जाते हैं और इसी कारण, धरती  सोलह शृंगार करके नववधू जैसी बन जाती है। सृजन का यह मौसम हमारे अंतस में भी नवोन्मेष को जन्म देता है। सहृदय मन में बूंदों के साथ शब्द भी उतरते हैं और कुछ नया करने को प्रेरित करते हैं। संभवतः इसी कारण पावस ऋतु साहित्यकारों को हमेशा से आकर्षित करती रही है। यह आकर्षण बरसात के अलग-अलग रूपों को शब्दों में बांधने की तड़प भी पैदा करता है। यह तड़प जब कविता बनती है तो वह भी पावस की जलधार की तरह ही सरस और गतिमान होती है। इस प्रवाह से परिचित होना हमें भी तरोताजा कर जाता है। इसीलिए, प्रतिबिंब के इस अंक में कुछ मूर्धन्य कवियों के ‘पावस भाव’ को एक जगह पर संकलित करने का प्रयास किया गया है। आशा है, शब्दों की यह बूंदें, आपके सृजन को गति देंगी…

              -फीचर संपादक

बादल को घिरते देखा है

अमल धवल गिरि के शिखरों पर,

बादल को घिरते देखा है।

छोटे-छोटे मोती जैसे

उसके शीतल तुहिन कणों को,

मानसरोवर के उन स्वर्णिम

कमलों पर गिरते देखा है,

बादल को घिरते देखा है।

तुंग हिमालय के कंधों पर

छोटी बड़ी कई झीलें हैं,

उनके श्यामल नील सलिल में

समतल देशों से आ-आकर

पावस की उमस से आकुल

तिक्त-मधुर बिसतंतु खोजते

हंसों को तिरते देखा है।

बादल को घिरते देखा है।

ऋतु वसंत का सुप्रभात था

मंद-मंद था अनिल बह रहा

बालारुण की मृदु किरणों थीं

अगल-बगल स्वर्णाभ शिखर थे

एक दूसरे से विरहित हो

अलग-अलग रहकर ही जिनको

सारी रात बितानी होती,

निशा काल से चिर-अभिशापित

बेबस उस चकवा-चकई का

बंद हुआ क्रंदन, फिर उनमें

उस महान सरवर के तीरे

शैवालों की हरी दरी पर

प्रणय-कलह छिड़ते देखा है।

बादल को घिरते देखा है।

दुर्गम बर्फानी घाटी में

शत-सहस्त्र फुट ऊंचाई पर

अलख नाभि से उठनेवाले

निज के ही उन्मादक परिमल –

के पीछे धावित हो-होकर

तरल तरुण कस्तूरी मृग को

अपने पर चिढ़ते देखा है,

बादल को घिरते देखा है।

कहां गया धनपति कुबेर वह

कहां गई उसकी वह अलका

नहीं ठिकाना कालिदास के

व्योम-प्रवाही गंगाजल का,

ढूंढा बहुत परंतु लगा क्या

मेघदूत का पता कहीं पर,

कौन बताए वह छायामय

बरस पड़ा होगा न यहीं पर,

जाने दो, वह कवि-कल्पित था,

मैंने तो भीषण जाड़ों में

नभ-चुंबी कैलाश शीर्ष पर,

महामेघ को झंझानिल से

गरज-गरज भिड़ते देखा है,

बादल को घिरते देखा है।

शत-शत निर्झर-निर्झरणी कल

मुखरित देवदारू कानन में,

शोणित धवल भोज पत्रों से

छाई हुई कुटी के भीतर,

रंग-बिरंगे और सुगंधित

फूलों से कुंतल को साजे,

इंद्रनील की माला डाले

शंख-सरीखे सुघड़ गलों में,

कानों में कुवलय लटकाए,

शतदल लाल कमल वेणी में,

रजत-रचित मणि खचित कलामय

पान पात्र द्राक्षासव पूरित

रखे सामने अपने-अपने

लोहित चंदन की त्रिपुटी पर,

नरम निदाग बाल-कस्तूरी

मृगछालों पर पलथी मारे

मदिरारुण आंखों वाले उन

उन्मद किन्नर-किन्नरियों की

मृदुल मनोरम अंगुलियों को

वंशी पर फिरते देखा है,

बादल को घिरते देखा है।

– नागार्जुन

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