मोदी की अबूझ परंपराएं

By: Jul 6th, 2017 12:05 am

पीके खुराना

लेखक, वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं

पीके खुराना मोदी समाज में एक ऐसी परंपरा की नींव डाल रहे हैं, जो अपने आप में बहुत खतरनाक है और भविष्य में इसके कई गंभीर परिणाम हो सकते हैं। भीड़ न पुलिस है, न सरकार और न न्यायालय। भीड़ सिर्फ भीड़ है और इसे अनियंत्रित एक्टिविस्ट के रूप में मान्यता देना ऐसी परंपरा की शुरुआत होगी जो अंततः सारी कानून व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर सकता है।  मोदी कभी-कभार गोरक्षकों की आलोचना कर देते हैं, लेकिन आलोचना से आगे नहीं बढ़ते…

इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने 12 जून, 1975 को तकनीकी कारणों से तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध बताते हुए उन्हें छह साल के लिए चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित करके इतिहास रचा, लेकिन इस फैसले ने देश का भाग्य बदल दिया। यह चुनाव सन् 1971 में इंदिरा गांधी ने रायबरेली लोकसभा क्षेत्र से समाजवादी नेता राज नारायण को हरा कर जीता था। राज नारायण ने उनके विरुद्ध चुनाव में भ्रष्ट आचरण का आरोप लगाते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय में मुकदमा दायर किया था। इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला आने से छह माह पूर्व ही नामचीन बैरिस्टर रहे पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे ने आठ जनवरी, 1975 को एक हस्तलिखित पत्र में न्यायालय का फैसला इंदिरा गांधी के खिलाफ जाने की स्थिति में उन्हें आंतरिक आपातकाल घोषित करने की सलाह दी थी। सिद्धार्थ शंकर रे का कहना था कि आंतरिक सुरक्षा को खतरा होने की स्थिति में राष्ट्रपति भारतीय संविधान की धारा-352 के तहत आपातकाल की घोषणा कर सकते हैं। न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा द्वारा इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध घोषित करने पर उनकी यह सलाह इंदिरा गांधी के काम आई और फैसला आने के 13 दिन के भीतर ही यानी 25 जून, 1975 को तत्कालीन राष्ट्रपति महामहिम फखरुद्दीन अली अहमद ने आपातकाल की घोषणा पर हस्ताक्षर किए और देश में आपातकाल लागू हो गया। आपातकाल लागू होते ही केंद्र सरकार के हाथ में असीमित अधिकार आ गए, प्रेस पर सेंसरशिप लग गई, मौलिक अधिकार स्थगित कर दिए गए, संविधान में मनचाहे संशोधन कर दिए गए, सर्वोच्च न्यायालय और राष्ट्रपति की शक्तियां घटा दी गईं और सारी शक्तियां प्रधानमंत्री के हाथ में केंद्रित कर दी गईं। सन् 1977 के चुनावों में इंदिरा गांधी सहित कांग्रेस की करारी हार के बावजूद राष्ट्रपति को वे सारी शक्तियां वापस नहीं मिलीं, जो आपातकाल के दौरान संविधान के बयालीसवें संशोधन के माध्यम से उनसे छीन ली गई थीं।

इस संशोधन के माध्यम से राष्ट्रपति संसद द्वारा पारित हर बिल पर हस्ताक्षर करने के लिए विवश कर दिए गए। हालांकि बाद में मोरारजी देसाई की जनता सरकार ने इसमें इतनी रियायत दे दी कि राष्ट्रपति किसी बिल पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर सकते हैं या उसमें कुछ संशोधनों का सुझाव दे सकते हैं लेकिन यदि संसद उसे दोबारा पास कर दे तो राष्ट्रपति को उस पर हस्ताक्षर करने ही होंगे। इस प्रकार इंदिरा गांधी ने एक ऐसी परंपरा की नींव डाली, जिससे राष्ट्रपति की शक्तियां हमेशा के लिए सीमित हो गईं। 31 अक्तूबर, 1984 को इंदिरा  गांधी की नृशंस हत्या के बाद राजीव गांधी प्रधानमंत्री  बने और उसी साल दिसंबर में हुए लोकसभा चुनावों में उन्हें अपार बहुमत मिला। अपना बहुमत बचाए रखने के लिए उन्होंने सन् 1985 में संविधान के 52वें संशोधन के माध्यम से दलबदल विरोधी कानून पास करवा लिया और पार्टी अध्यक्ष को असीम शक्तियां दे दीं, जिसके परिणामस्वरूप राजनीतिक  दल प्राइवेट कंपनियों की तरह काम करने लगे। भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी की आज जो हालत हो रही है, उसकी वजह यही दलबदल कानून है जो पार्टी अध्यक्ष को अध्यक्ष  के बजाय पार्टी के मालिक सा दर्जा और शक्तियां देता है। राजीव गांधी ने दलबदल विरोधी कानून के माध्यम से एक ऐसी परंपरा की शुरुआत की जो देश में धर्म, क्षेत्र, जाति और नीति-विहीन  व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं के आधार पर हजारों छोटे-छोटे राजनीतिक दलों के जन्म का कारण बना। राजीव गांधी को सत्ताच्युत करके भाजपा और कम्युनिष्ट दलों के बाहरी समर्थन से सत्ता में आए विश्वनाथ प्रताप सिंह का अपने ही उप प्रधानमंत्री देवी लाल से मनमुटाव हुआ तो अपनी कुर्सी मजबूत करने के प्रयास में उन्होंने लंबे समय से ठंडे बस्ते में पड़े मंडल आयोग की सिफारिशों को खोज निकाला और ‘अन्य पिछड़ी जातियों’ (अदर बैकवर्ड क्लासिज) के लिए आरक्षण लागू कर दिया। हम सब इस दुखद सत्य के गवाह हैं कि देश आज भी आरक्षण की आग में जल रहा है। इसमें कोई दो राय नहीं कि इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कई बहुत अच्छे काम भी किए। लेकिन इंदिरा गांधी ने सारी शक्तियां अपने हाथ में लेने के लिए देश की लोकतांत्रिक संस्थाओं को शक्तिविहीन कर दिया, राजीव गांधी ने दलबदल कानून के माध्यम से राजनीतिक दलों का चरित्र बदल दिया और विश्वनाथ प्रताप सिंह ने समाज में हमेशा के लिए विभाजन की लकीर खींच दी। ये तीन उदाहरण इस सत्य को समझने के लिए काफी हैं कि प्रधानमंत्री का एक गलत कदम देश के लिए कितना हानिकारक हो सकता है, जो उनके सारे अच्छे कामों पर पानी फेर सकता है। नरेंद्र मोदी एक ऊर्जावान प्रधानमंत्री हैं, जो बिना थके काम करने के लिए जाने जाते हैं। वह कठिन निर्णय लेने से गुरेज नहीं करते और इंटरनेट और नवीनतम तकनीक के सहारे उन्होंने शासन-प्रशासन में कई सुधार किए हैं। परिणामस्वरूप सरकार के कामकाज में चुस्ती आई है।

स्वयं एक वरिष्ठ नागरिक होने के बावजूद वह भारतीय युवाओं के प्रेरणा स्रोत हैं। वह लगभग हमेशा या तो ‘फ्लाइट मोड’ में होते हैं और विदेशों के दौरे पर निकल जाते हैं या फिर ‘इलेक्शन मोड’ में रहते हैं और ऐसे कार्यक्रम घोषित करते हैं, जिन्हें नारों में बदला जा सके। आजकल भी विदेश दौरे पर ही गए हुए हैं। दूसरी तरफ निरंतर चुनावी मोड में रहने का उनका यह तरीका इतना कारगर है कि विपक्ष अभी तक उनकी काट नहीं खोज पाया है। गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी ने उग्र हिंदुवाद को हवा दी और लगातार तीन बार विधानसभा चुनाव जीता। प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में 2014 के लोकसभा चुनावों में प्रचार के दौरान उन्होंने मुस्लिम टोपी पहनने से सार्वजनिक रूप से इनकार कर दिया। उनके इस रुख का ही परिणाम है कि उनके प्रधानमंत्री बनते ही हिंदू उग्रवाद तेज हो गया और गउओं की तस्करी और गोवध के खिलाफ भीड़ ने कानून हाथ में लेना आरंभ कर दिया। उत्तर प्रदेश में मिली अप्रत्याशित सफलता तथा वहां योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद तो इसमें लगभग उबाल सा आ गया है और जगह-जगह भीड़ द्वारा पीट-पीट कर मुसलमानों की हत्या के मामले सामने आने लगे हैं। मोदी समाज में एक ऐसी परंपरा की नींव डाल रहे हैं, जो अपने आप में बहुत खतरनाक है और भविष्य में इसके कई गंभीर परिणाम हो सकते हैं। भीड़ न पुलिस है, न सरकार और न न्यायालय। भीड़ सिर्फ भीड़ है और इसे अनियंत्रित एक्टिविस्ट के रूप में मान्यता देना ऐसी परंपरा की शुरुआत होगी जो अंततः सारी कानून व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर सकता है। मोदी कभी-कभार गोरक्षकों की आलोचना कर देते हैं, लेकिन आलोचना से आगे नहीं बढ़ते। उनके साथियों और समर्थकों के लिए यह स्पष्ट संदेश है कि धर्म और गाय के मामले में उन्हें कानून से डरने की आवश्यकता नहीं है। इससे न केवल समाज में बंटवारे की रेखाएं गहरी होंगी, बल्कि मोदी के शेष अच्छे कामों पर भी ग्रहण लग जाएगा। यह कहना सचमुच मुश्किल है कि मोदी अपने इस रुख में सुधार करके कानून-व्यवस्था की इज्जत बरकरार रखेंगे या धर्म की अफीम से देश को बर्बादी की तरफ जाते हुए देखते रहेंगे। हम तो यही कह सकते हैं कि भगवान हम सब को सद्बुद्धि दे!

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