राष्ट्रपति कोविंद का प्रथम संबोधन

By: Jul 27th, 2017 12:02 am

राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद अपने प्रथम संबोधन में ही अपने मिट्टी के कच्चे घर को नहीं भूले। उन्होंने देश के आखिरी गांव और उसके आखिरी कच्चे घर तक विकास का सपना संजोया है। उन्होंने सरहदों पर देश की रक्षा करते सैनिक से लेकर पुलिस, किसान, महिला, वैज्ञानिक, शिक्षक, डाक्टर और नौजवानों को रोजगार देने वाले स्टार्टअप तक को ‘राष्ट्र निर्माता’ माना है। यह एक नई वैचारिक और मानसिक दृष्टि है। इतिहास के संदर्भ में उन्हें सिर्फ महात्मा गांधी, सरदार पटेल, बाबा अंबेडकर और दीनदयाल उपाध्याय के नाम ही याद रहे, जिन्हें नए राष्ट्रपति ने समाज प्रेरक, राष्ट्र निर्माण के संस्कारों का पैरोकार माना। महात्मा बुद्ध सरीखे कालजयी आध्यात्मिक पुरुष को भी उन्होंने याद किया। राष्ट्रपति भवन में राष्ट्रपति के आसन के पीछे भी महात्मा बुद्ध की लंबी-ऊंची प्रतिमा स्थापित है। बेशक ऐसे अवसरों पर सभी महानायकों के नाम न तो याद आते हैं और न ही उनका उल्लेख जरूरी है। ऐसे संबोधन भी सरकारी ही होते हैं, लेकिन जो शख्स पहली बार भारत का राष्ट्रपति बना है, संविधान का शिखर-पुरुष बना है, सेनाओं का सुप्रीम कमांडर हो, हर लिहाज से सर्वोच्च हो, उसके संबोधन में ऐसी अपेक्षा रहती है कि कमोबेश उसके आदर्शों और सोच के संकेत तो मिलें। राष्ट्रपतियों की परंपरा में भी नए राष्ट्रपति ने सिर्फ डा. राजेंद्र प्रसाद, डा. राधाकृष्णन, डा. एपीजे अब्दुल कलाम और निवर्तमान राष्ट्रपति प्रणब का ही उल्लेख किया कि वह उनके पदचिन्हों पर चलते हुए उन्हीं की परंपरा और विरासत को आगे बढ़ाने की कोशिश करेंगे। युग पुरुष के तौर पर उन्होंने महात्मा गांधी के समकक्ष दीनदयाल उपाध्याय को आंका। दीनदयाल जनसंघ के अध्यक्ष थे और पीएम मोदी समेत अधिकतर भाजपा नेताओं के विचार-पुरुष भी हैं। उनका नाम स्वाभाविक था, क्योंकि कोविंद भी उसी वैचारिक परंपरा से आते हैं। कांग्रेस का तिलमिलाना भी स्वाभाविक था कि देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के नाम का उल्लेख क्यों नहीं किया गया? आश्चर्य तब हुआ, जब राष्ट्रपति कोविंद भाजपा के पितृ पुरुष, संस्थापक और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का नाम लेना भी भूल गए। दीनदयाल और वाजपेयी जी ने जनसंघ की प्रथम टीम में साथ-साथ काम किया था। बहरहाल नए राष्ट्रपति की इन गलतियों को फिलहाल नजरअंदाज किया जा सकता है। 25 जुलाई, 2017 भी ताजपोशी का ऐतिहासिक दिन था। फिलहाल देश अपने नए राष्ट्रपति को जानना चाहेगा, क्योंकि कोविंद आरएसएस-भाजपा के प्रथम राष्ट्रपति बने हैं, तब जानना व गहराई से आंकना और भी जरूरी है, क्योंकि संसद के सेंट्रल हॉल में शपथ ग्रहण समारोह के बाद ‘जय श्रीराम’ और ‘भारत माता की जय’ के नारे भी गूंजे थे। हालांकि यह कोई आपराधिक गतिविधि नहीं थी, लेकिन भारतीय राजनीति का एक पक्ष इसे ‘सांप्रदायिक’ करार देता है। संघ और भाजपा इसे ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ से जोड़कर देखते आए हैं। लिहाजा राष्ट्रपति कोविंद के संदर्भ में यह सवाल स्वाभाविक ही है कि क्या वह भाजपा की मोदी सरकार के रबड़ स्टैंप साबित होंगे? या आरएसएस का एजेंडा लागू कराने में संवैधानिक बाधाओं को बीच में आने नहीं देंगे? संघ-भाजपा का सबसे तात्कालिक एजेंडा ‘पाक अधिकृत कश्मीर’ (पीओके) है। हालांकि  अयोध्या में राम मंदिर निर्माण, समान नागरिक संहिता और कश्मीर में अनुच्छेद-370 की व्यवस्था समाप्त करने सरीखे मुद्दे भी पीछे नहीं हैं, क्योंकि राष्ट्रपति संविधान का प्रथम संरक्षक होता है और राष्ट्रपति कोविंद ने संविधान के मूल मंत्रों-न्याय, समानता, बंधुत्व और स्वतंत्रता के प्रति भरोसा दिलाया है, लिहाजा निगाहें नए राष्ट्रपति के फैसलों पर टिकी रहेंगी। इन मुद्दों पर वह सरकार और संसद को विशेष अनुमति देते हैं या सरकार के अध्यादेशों पर उनकी टिप्पणी क्या रहती है? क्या वह ऐसे अध्यादेशों को खारिज भी कर सकते हैं? आने वाले दिन और राष्ट्रपति के निर्णय ही साकार तस्वीर पेश करेंगे। हमें कोविंद के अभी तक के सार्वजनिक जीवन का आकलन करने पर ऐसा नहीं लगता कि वह कट्टर संघवादी या हिंदूवादी हैं। बहरहाल देश का एक और गरीब, वंचित, दलित राष्ट्रपति भवन तक पहुंचा है। उसके लिए बधाई और ढेरों शुभकामनाएं…! अब राष्ट्रपति कोविंद को दलितों, शोषितों, अछूतों के लिए सरकार से ऐसे काम कराने चाहिएं, ताकि अंबेडकर और कांशीराम के बाद इतिहास उनका नाम भी दर्ज कर सके।

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