विस्थापन का दौर यूं कब तक

By: Jul 3rd, 2017 12:05 am

मैं हूं

एक ऐसी पौध जो अपनी ही जमीन से उखाड़ कर बेदखली के रूप रोपित कर दी गई पराई जमीन पर हवा, पानी, खाद भी जिंदा न रख पाई मुझे क्योंकि  अपनी ही जड़ों से कटी तलाशती रही ताउम्र अपनी पुश्तैनी जड़ें बिन पुष्पित, पल्लवित ढूंढ बन रह गई, एक पेड़ बनने की आस लिए। उपरोक्त स्वरचित कविता के मुताबिक ही तो होता है एक विस्थापित का जीवन। ताउम्र सालती रहती है, अपने जमीन से कटने की पीड़ा। रेशा-रेशा स्मृतियों के आकर्षण में पिसता रहता वह। जमीन से जुड़े रहने का भाव, यह विस्थापन चाहे देश विभाजन के समय भारत-पाक नागरिकों का हो या फिर अलगाववाद की अग्नि में झुलसे कश्मीरवादी के पंडितों, आज भी कश्मीर की वादी कश्मीरी पंडितों की स्मृतियों में मौन-सिसकियां भर रही हैं। तिब्बत की आजादी के संघर्षरत तिब्बती शरणार्थियों की आंखों में आज भी अपने वतन तिब्बत से बिछुड़ने की पीड़ा को पढ़ा जा सकता है। जम्मू व दिल्ली में शरणार्थी शिविरों में रह रहे कश्मीरी पंडित परिवारों को कश्मीर वादी में छोड़ आए घरों की दीवारें आज भी उन्हें वापस बुला रही हैं, पर दहशत के मंजर उन्हें यहीं पर शरणार्थी जीवन जीने पर बाध्य करते हैं। आज विकास के नाम पर भी विस्थापन की प्रक्रिया अनवरत जारी है। बड़े-बड़े नदी बांध, सीमेंट फैक्टरियां, फोरलेन बड़ी परियोजनाओं को लेकर क्षेत्र प्रभावित लोगों को मुआवजे की राशि थमा कर अपनी ही जमीन से विस्थापन पर विवश किया जा रहा  है। जल, जंगल, जमीन छीने जाने पर नक्सलवाद जैसी विकराल समस्या देश में मुंह बाए खड़ी है। भाखड़ा बांध से जो विस्थापन की यात्रा शुरू हुई थी, वह पौंग बांध, कोल डैम से लेकर किन्नौर व लाहुल-स्पीति जैसे जनजातीय क्षेत्र तक पांव पसार चुकी है। भाखड़ा व पौंग बांध से विस्थापित पुनर्वास योजना के अंतर्गत उजड़े परिवारों को राजस्थान व हरियाणा प्रांतों में जमीनें देकर बसाया गया, पर वे आज तक अपनी जड़ें जमाने में सफल न हो पाए। फोरलेन निर्माण से पुनः जमीन अधिग्रहण करने की प्रक्रिया प्रारंभ हो गई है।  विकास के नाम विस्थापन का यह दौर कब तक चलता रहेगा? कब तक ये पहाड़ बौने होकर मैदान बनते रहेंगे। जहां कभी इस प्रदेश में हरियाली का साम्राज्य होता है, वहां आज धूल, धूसरित पहाड़ होते जा रहे हैं। यह विस्थापन पहाड़ों तक ही सीमित नहीं, मैदानों से भी अंधाधुंध निर्माण से विस्थापन पहाड़ों तक ही सीमित नहीं, मैदानों से भी अंधाधुंध निर्माण से विस्थापन की यह अवरिल धारा बह रही है, मंडी में आयोजित शिखर सम्मान समारोह में जाने-माने लेखक संपादक श्री कमलेश्वर जी ने कहा था ‘मैं पहाड़ों के विकास का विरोधी नहीं, पर विकास की इस यात्रा में यह ध्यान रहे कि विनाश न हो और विकास में वातायन से हिमालय की आबोहवा बनी रहे।’ विस्थापन से केवल हमारा जनजीवन ही प्रभावित नहीं होता साथ-साथ सांस्कृतिक, सामाजिक व मानवीय मूल्यों का अवमूल्यन होता है और हम विस्थापित होकर स्मृतियों में जीने पर विवश होते हैं। विस्थापन का दर्द हिमाचल प्रदेश के लोक गीतों में बखूबी उभरकर सामने आया है, जिन्हें सुनकर आज भी अतीत के सुनहरे पल स्मृतियों में उभरकर सामने आ जाते हैं।

-रत्नचंद ‘निर्झर’, मकान नंबर 211, रोड़ा सेक्टर-2, बिलासपुर।


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