विस्थापन के बीच शब्दों की खेती

By: Jul 3rd, 2017 12:05 am

कुलदीप चंदेल, अतिथि संपादकविस्थापन प्रायः विवशताओं से उपजता है। बाध्यताओं के कारण शरीर तो एक जगह से दूसरी जगह चला जाता है, लेकिन स्मृतियां अपनी जड़ों में उलझी रहती हैं। वे बार-बार उस परिवेश की तरफ लौटना चाहती हैं, जिसने उन्हें गढ़ा है। यह आकर्षण शारीरिक सुख-सुविधाओं के अंबार के बीच भी व्यक्ति को लहूलुहान कर जाता है, दर्द से भर देता है। जब यह विस्थापन, विकास के नाम पर होता है, तो दर्द और भी गहराई में डुबकी लगा जाता है। यह दर्द एक खास किस्म के साहित्य को रचता है। आजादी के बाद विकास के नाम पर हिमाचल ने विस्थापन के दर्द को कई बार सहा है। निश्चित रूप से इस दर्द ने शब्दों में अभिव्यक्ति भी पाई होगी। हालांकि, अभी तक इसका ठीक ढंग से दस्तावेजीकरण नहीं हुआ है। प्रतिबिंब के इस अंक में अतिथि संपादक कुलदीप चंदेल ने इस अछूते क्षेत्र पर कलम चलाई है। विस्थापन की पृष्ठभूमि और जटिलताओं को इसलिए स्थान दिया गया है, ताकि विस्थापन को लेकर एक समझ भी बन सके। आशा है कि यह अंक विस्थापन की अन्य कथाओं के दस्तावेजीकरण को गति देगा…

अपनी जन्मभूमि को किसी मजबूरी में छोड़कर दूसरी जगह बसने का दर्द वही गहराई से महसूस कर सकता है, जिसने यह भोगा होता है। देश के बंटवारे के समय जो असंख्य लोग विस्थापित हुए थे, उन्होंने इस दर्द को भोगा था। विस्थापन की पीड़ा उन्हें हमेशा सालती रही। ऐसे लोग दूसरों को आपबीती सुनाकर खुद को सहला लेते थे। अमृता प्रीतम, सआहद हसन मंटो, सरदार खुशवंत सिंह तथा और न जाने कितने ही साहित्यिकारों ने विस्थापन के दर्द को अपनी कलम से कागज पर उतारकर जन-जन की पीड़ा बना दिया था। इन लेखकों का साहित्य पढ़ कर पाठकों को पता चलता है कि विस्थापन का दंश क्या होता है? आज भी तिब्बती धर्मगुरु दलाईलामा की बातों से तिब्बती समाज के विस्थापन का दर्द झलक उठता है। यही नहीं, देश की खुशहाली के लिए जब भाखड़ा बांध का निर्माण हुआ, तो गोबिंदसागर झील अस्तित्व में आई। उस झील में हजारों परिवारों के घर- जमीन सब कुछ डूबा और लोगों को विस्थापित होकर दूसरी जगह बसना पड़ा। पौंग बांध के विस्थापितों के साथ भी ऐसा ही हुआ था। लोग अपनी जन्मभूमि छोड़कर हरियाणा व राजस्थान में जाकर बसने को मजबूर हुए थे। अपनी संस्कृति, अपनी जन्मभूमि के कटकर कहीं दूर जाकर विस्थापित के रूप में बसने का दंश वो झेलते रहे। विस्थापन का दर्द कैसा होता है? यदि इसे समझना व अनुभव करना हो तो उस समय के साहित्य को पढ़कर समझा जा सकता है। लोक कवि विस्थापन का दंश झेलते हुए कराह उठता है। उसके भीतरी कं्रदन से जो स्वर लहरियां फूटती हैं, वे सभी को आप्लावित कर देती हैं। लेखक, शायर अपनी कलम से कागज पर विस्थापन के दर्द को उकेर कर जैसे विस्थापन का एक अलग साहित्य ही रच डालते हैं। देश के बंटवारे के समय जब हिंदू-मुसलमान एक-दूसरे के खून के प्यासे थे। नालियों में इनसानी खून बह रहा था, औरतों को सरेआम अपमानित किया जा रहा था और वे खून के आंसू बहा रही थीं, तब अमृता प्रीतम के भीतर का साहित्यकार भी चित्कार कर उठा था। अमृता ने तब पंजाबी में नजम लिखी थी, जो आज भी साहित्य जगत में पढ़ी और सराही जाती है। उस पर चर्चा होती है। तब अमृता कह उठी थी-‘अज आखां मैं वारिसशाह नूं, तूं कब्रां-बिच्चों बोल, किताबे इश्क दा अज, अगला वर्का फ्रोल, इक रोई सी धी पंजाब दी, तू लिख लिख मारे वैन अज लखां धीयां रोंदिआं, तूं कुछ तां बोल…।’ अमृता प्रीतम ने जैसे विस्थापन की सारी पीड़ा अपनी इसी नजम में उंडेल दी हो। सच, बहुत बुरा होता है विस्थापन और जो जो विस्थापन मजबूरी में होता है, वह विस्थापितों को सारी उम्र दर्द देता रहता है। उन पर रिफ्यूजी, औसटीज व विस्थापितों का पक्का ठपा लग जाता है। पाकिस्तान से जो लोग 1947 में भारत में आए उन्हें व उनके परिवारों को आज भी मुहाजिर कहा जाता है। कइयों की तो दो-दो पीढि़यां समाप्त हो गईं, लेकिन उनके परिवार आज भी तंगहाली में जीवन व्यतीत कर रहे हैं। उर्दू के मशहूर लेखक सआदत हसन मंटो ने अपने लेखन में भारत के विभाजन से पहले का सामाजिक और मानसिक वातावरण और फिर विभाजन के बाद का वातावरण, दंगों आदि में उलझी हिंदू-मुस्लिम राजनीति का चित्रण करते हुए विस्थापन की पीड़ा जगजाहिर की है। बंटवारे के समय के विस्थापन का दर्द मंटो की इस ‘रियायत’ शीर्षक वाली रचना में देखिए-‘मेरी आंखों के सामने मेरी जवान बेटी को न मारो। चलो, इसी की बात मान लो-कपड़े उतारकर हांक दो एक तरफ।’ तिब्बत पर जब चीन ने हमला करके उसे अपने कब्जे में कर लिया, तो दलाईलामा सहित हजारों तिब्बती उस समय विस्थापित होकर भारत आ गए थे। आज भी धर्मशाला के मकलोडगंज में रहकर व निर्वासित सरकार चलाकर अपनी संस्कृति को जीवित रखा है, लेकिन अपने देश, अपनी जन्मभूमि की याद उन्हें बरबस अपनी ओर खींचती रहती है, जो तिब्बती अस्सी साल से ऊपर के हैं वो आज भी ल्हासा, तिब्बत की याद करके भावुक हो जाते हैं। भाखड़ा बांध बनने के कारण सैकड़ों गांव गोबिंद सागर झील में डूब गए थे। हजारों परिवार अपनी जन्मभूमि छोड़कर हरियाणा के हिसार, सिरसा, डबवाली में बसे हैं। उन्हें आज भी वहां ‘बिलासपुरिए’ ही कहा जाता है। यह लेखक भी हरियाणा के फतेहाबाद जिला के भिरड़ाना गांव में बतौर विस्थापित रहने का दर्द भोग चुका है। जब ऐतिहासिक नगर बिलासपुर भाखड़ा बांध बनने के कारण साठ के दशक में गोबिंद सागर झील में डूब रहा था, तो यहां का लोक कवि मुखर होकर दर्द भरे गीत गा रहा था-‘ओ मेरया दिलडुआ हो-डूबी गइए घर बार, डूबी गया सांढू मदान हुण असां से नुलाडी किती हो लगानी…।’ बिलासपुर के मशहूर शायर व पूर्व विधायक दिवंगत एडवोकेट पंडित दीनानाथ ने विस्थापन का दर्द अपनी ‘नौ अगस्त की शाम’ नजम में जिस तरह बयान किया है, उसे पढ़ कर आज भी लोग भावुक हो जाते हैं। यही नहीं, अपनी एक और नजम बिलासपुर -1958 में वह लिखते हैं ‘ऐ ब्रदर, बढ़ चला सतलुज का पानी बढ़ चला…।’ इसी तरह उस समय बिलासपुर के सरकारी डिग्री कालेज में एक अंग्रेजी के प्रो. विमल कृष्ण अश्क होते थे। वो उर्दू के माने हुए शायर थे। बिलासपुर के लोगों का विस्थापन का दर्द उन्होंने ‘सांडू ग्राउंड’ शीर्षक की नजम में यूं बयान किया है-‘रसते बसते घर सदियो दुख सुख से भरे रहेंगे, उम्मीदों अरमानों के पौधे सीनों में हरे रहेंगे…।’ लोक साहित्य, लोकगीतों में यह टीस बन कर झलकता है। सतलुज नदी पर ‘कोल डैम’ बनने के बाद लोक कवि कह उठा – ‘इथी कोल डैम लगया…।’ देखा जाए तो विस्थापन का दर्द लगभग एक जैसा होता है। रह-रह कर विस्थापित अपनी जन्मभूमि की यादों को अपने संगी- साथियों व अगली पीढ़ी से साझा करते हुए अतीत में खोता चला जाता है। काबुलीवाला फिल्म में जब फिल्म का नायक अचानक अपने वतन की याद में भावुक होकर गाता है तो उसका दर्द सभी सुनने वालों का दर्द बन जाता है। वह विस्थापन  का ही तो दर्द है। जरा फिल्म का वह गीत याद कीजिए-‘ऐ मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे बिछड़े चमन, तुझ पे दिल कुर्बान, तू ही मेरी आबरू तू ही मेरी जान…।’ विस्थापित होने के बाद व्यक्ति जब नई जगह जाकर बसता है तो भी अपनी जन्मभूमि की यादों को नहीं बिसरा पाता। विस्थापन के साहित्य में भी ये यादें कई साहित्यकारों ने उजागर की हैं। जैसे प्रो. विमल कृष्ण-अश्क ‘ये किन लोगों की बस्ती है’ शीर्षक वाली कविता में लिखते हैं-‘अब इस बस्ती के लोगोें में पहले जैसी बात नहीं, चेहरों पे लजीली सुबह नहीं, आंखों में नशीली रात नहीं-ए दीद-ए-तर है तुझ को खबर, ये किन लोगों की बस्ती है…। पीपल में झूला नहीं रहा, चरखों की धू-धू डूब गई, वह चावल, रोली, गंगाजल, वह हल्दी, अंबर,दूब गई। इस शहर का पानी खाता है, इस शहर की धूप झुलसाती है, ए दीद-ए-तर है तुझ को खबर ये किन लोगों की बस्ती है…।’ लोक साहित्य तो विस्थापन के दर्द से भरा पड़ा है। एक लड़की को पुराने समय में दूर देश में ब्याह दिया जाता है। मायके मैं उसका आना जाना कम हो जाता है। वह अपने ससुराल के घर की मुंडेर पर एक कौए को बैठे देखती है तो उससे बतियाने लग पड़ती है। लोक गीतों में उसका दर्द आज भी झलकता है। वह जो कहती है, उसका भाव यह है कि ‘ओ! काले कौए तू उड़ कर मेरे मायके के देश में चला जा, वहां मेरे पिता से कहना कि मुझे इतने दूर देश में क्यूं ब्याहा…।’ जब दूर देश ब्याही गई लड़की या यूं कहिए विस्थापित हुई कोई लड़की मां बन जाती है तो एक दिन वह अपने नन्हे बच्चे को नहला रही होती और उससे बतिया रही होती है। वह कहती-‘अब तू ही मेरी मां और तू ही बापू है। तू ही सब कुछ है-यहां दूर देश में तेरे सिवा मेरा और कौन है?’ अब इसे जो मर्जी कह लीजिए। यह है तो विस्थापन का दर्द ही है। विस्थापन के दर्द से उपजे साहित्य में संवेदनाएं एक नई ऊंचाई-गहराई को स्पर्श करती है।

-कुलदीप चंदेल

212/2, बिलासपुर, 174001

विमर्श सूत्र

* विस्थापन के साहित्य की झलक

* विस्थापन की पृष्ठभूमि

* विस्थापन का वर्तमान परिदृश्य

* विस्थापन की जटिलताएं


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