साहसी अध्यापिका
बिना भय के पानी में छलांग लगाने वाली वह अध्यापिका अब सतर्कता से बाहर आ रही थी। गांव के लोग और सारा विद्यालय पसरे सन्नाटे के साथ भयभीत होकर तमाशा देख रहे थे…
एक गावं के स्कूल में अध्यापकों का प्रसिद्ध फार्मूला था या तो पढ़ाई छोड़ दो या पढ़ने लगो। उसी समय उस स्कूल में एक नई शिक्षिका ने बच्चों को पढ़ाने का विधिवत प्रशिक्षण प्राप्त किया था। वह अन्य अध्यापिकाओं से भिन्न थीं। धीरे-धीरे बच्चों के मन का भय निकलने लगा। बच्चे अपनी नई अध्यापिका की सब बात मानने लगे। विद्यालय का वातावरण बहुत हद तक बदल चुका था। अन्य चार अध्यापिकाओं से बच्चे थोड़ा-बहुत डरते थे। अध्यापिका तेजस्विनी की मेहनत से पूरे गांव के लोग काफी प्रभावित थे। एक दिन इंटरवल की घंटी लगी तो रोज की तरह बच्चे खेलने के लिए भाग खड़े हुए। तेजस्विनी ने उच्च स्वर में आदेशित किया- बच्चो धीरे से निकलो भागो नहीं, नहीं तो चोट लग सकती है। भले ही तेजस्विनी बच्चों को मारती-पीटती न हो, पर बच्चे फिर भी उसकी सारी बात मानते थे। सब बच्चे अनुशासन के साथ कक्षा से बाहर निकले। एक बच्चा फिर भी बहुत तेज भागा। तेजस्विनी ने उससे कहा- अभी आओ, तुमको ठीक करती हूं। इतना सुनते ही वह बच्चा भी अनुशासन में आ गया। यद्यपि वह जानता था कि वह किसी को पीटती नहीं। शेष अध्यापिकाएं अपने घर से लाए भोजन को करने में और बातचीत में मशगूल हो गईं। तेजस्विनी नए पाठ को कैसे पढ़ाया जाए, इस तैयारी में जुट गईं। कुछ देर बाद उसने परीक्षा की शेष कापियां जांचने का काम शुरू किया। कक्षा के एक के दो बच्चे अचानक कक्षा में घुसे और आपस में बातें करने लगे। एक ने कहा- बहनजी से मत बताना। तेजस्विनी अनजान बनकर उनकी बातें सुन रही थीं। दूसरी बोली- हां बोदिका स्याही की दवात में पानी डालने गई थी, डूब गई। यह सुनते ही तेजस्विनी की सारी कापियां बिखरती चली गईं। पेन अंगुलियों में दबा रह गया और वह भाग खड़ी हुई। तालाब के पास जाकर देखा तो बच्ची का एक हाथ ऊपर पानी आ चुका था। जान की परवाह छोड़ वह तालाब में कूद गईं। तालाब गहरा था। मिट्टी निकाले जाने की वजह से यह किनारों पर से ही गहरा होता चला गया था। सारे बच्चे अपनी प्रिय अध्यापिका के पीछे दौड़ पड़े। सभी अध्यापिकाओं ने देखा कि तेजस्विनी ने बहुत बड़ा खतरा मोल ले लिया है। गांव के लोग भी शोर सुन जमा होने लगे। तेजस्विनी उस बच्ची को पकड़ने के लिए आगे बढ़ रही थी। वह बिलकुल असावधान थी और बेपरवाह भी। बच्ची गहरे तालाब के मध्य खिंची जा रही थी। प्राणरक्षा को धीरे-धीरे हाथ-पैर चला रही थी। तेजस्विनी की नाक तक पानी आ चुका था, लेकिन वह उस छात्रा को पकड़ने में सफल हो गई। अब वह उसे हाथों से ऊपर उठाकर किनारे की तरफ बढ़ रही थी। गांव के लोग और सारा विद्यालय पसरे सन्नाटे के साथ भयभीत होकर तमाशा देख रहे थे। किनारे आकर उसने बच्ची को बाहर की तरफ फेंका और फिर बड़ी मुश्किल से खुद बाहर आई। बच्ची के मुंह से कुछ उल्टी कराई। चारों तरफ उस अध्यापिका की बहादुरी के किस्से शुरू हो गए। शिक्षिका ने बेटी के सिर पर बड़े प्यार से हाथ फेरते हुए पूछा- कहां गई थी, वह बोली- मामा के घर। शिक्षिका ने उसे प्यार से देखकर प्रसन्न भाव से उसे गले लगा लिया और पीठ थपथपाकर हौसला दिया ताकि वह तनिक भय महसूस न करे। वह एक अच्छे शिक्षक की भांति उसके मनोभावों को समझ रही थी। उसने उससे कहा- वह देखो मां रास्ता देख रही है। बच्ची की मां लगातार आंसू बहाए चली जा रही थी। गांव वालों ने अध्यापिका को पुरस्कृत करने की सोची। तेजस्विनी बोलीं- कर्त्तव्यों के निर्वहन का पुरस्कार नहीं लिया जाता।
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