हिंदी भाषा के प्रसार में सब्र बरतें

By: Jul 31st, 2017 12:05 am

कुलदीप नैयर

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं

कुलदीप नैय्यर आज नहीं तो कल हिंदी को आने वाली पीढि़यां सीखेंगी। यहां तक कि दक्षिण के लोग भी महसूस करने लगे हैं कि हिंदी से किनारा करके समस्या का समाधान नहीं होगा, इसलिए उनके बच्चे हिंदी सीख रहे हैं। संभवतः मोदी सरकार भी महसूस करती है कि उसे चुप ही रहना है। फाइलों पर नोटिंग पहले ही हिंदी में हो रही है। जो ऐसा करते हैं, उनके दिमाग में संघ के निर्देश होते हैं और साथ ही नोटिंग का अंग्रेजी अनुवाद देते हैं। इससे सभी के उद्देश्य पूरे हो जाते हैं और इसीलिए सरकार को ऐसा कोई सख्त कदम उठाने की जरूरत नहीं है, जिसे थोपे गए कदम के रूप में देखा जाने लगे…

जब भी कोई प्रांतीय भाषा राष्ट्रीय फलक पर अपनी पहचान बनाना चाहती है, तो स्वाभाविक रूप से इसका कुछ विरोध होता है। दोनों की सीमाएं निर्धारित हैं। एक राज्य तक सीमित रहती है, जबकि दूसरी के पास विस्तार के लिए पूरा देश होता है। राज्यों में उग्र राष्ट्रवादी इस बात को समझ नहीं पाए हैं। यहां कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है। एक भाषा क्षेत्रीय है और दूसरी राष्ट्रीय। हिंदी राष्ट्रीय भाषा है, इसे संविधान सभा ने तय किया था। संसदीय समिति, जिसमें गैर हिंदी भाषी प्रदेशों के प्रतिनिधि भी थे, ने एक बार फिर यह स्पष्ट किया कि हिंदी राष्ट्रीय भाषा थी। भविष्य पर जो प्रश्न छोड़ा गया, वह था अंग्रेजी को छोड़कर हिंदी अपनाना। अब क्या हो रहा है, वह यह है कि भाषायी मसले को दोबारा खोलने के प्रयास हो रहे हैं। कुछ लोग भारत के उग्र राष्ट्रवादी विचार को चुनौती दे रहे हैं और क्षेत्रीय मांगों को उठा रहे हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। हिंदी को भारत की भाषा के रूप में संविधान सभा ने अपनाया था और यह गलत धारणा फैली हुई है कि इसे एक के बहुमत द्वारा तय किया गया था। विवाद संख्या सूचक अपनाने को लेकर है, भाषा को लेकर नहीं। आज सरकारी काम व अधिकतर अन्य काम हिंदी में किए जा रहे हैं। यह इस तथ्य के बावजूद हो रहा है कि गैर हिंदी भाषी लोगों की कुछ समस्याएं हैं। वास्तव में संविधान के निर्माण के दौरान जिन मसलों पर सर्वाधिक मंथन हुआ, उनमें भाषा का मसला भी शामिल है। राष्ट्रीय भाषा घोषित करने के निर्णय से दो विख्यात गुट बन गए। एक, उत्तर भारतीयों का जिन्होंने हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बनाने की वकालत की और दूसरा, दक्षिण भारतीयों का जो चाहते हैं कि उन पर यह निर्णय थोपा नहीं जाना चाहिए। हिंदी के समर्थकों ने इसकी वकालत इसकी संख्या सूचक सर्वोच्चता के कारण की। दूसरी ओर तमिल के समर्थकों ने इस विचार को सीधे निरस्त कर दिया।

तमिल नेताओं में से एक ने कहा कि अगर संख्या सूचक सर्वोच्चता को ही मापदंड बनाना है तो मोर के बजाय कौए को राष्ट्रीय पक्षी बनाया जाना चाहिए। बड़े स्तर पर हुए कई वाद-विवादों के बाद संविधान सभा ने देवनागरी लिपि के साथ हिंदी को संघ की सरकारी भाषा बनाने का फैसला किया। इसमें एक उपधारा यह भी जोड़ी गई कि अगले 15 सालों तक सभी सरकारी लक्ष्यों के लिए अंग्रेजी का प्रयोग भी होता रहेगा। लेकिन कुछ ही सालों में इस फैसले को लागू करने के लिए गठित समितियों ने जमीनी वास्तविकताओं का सामना करना शुरू कर दिया। यह महसूस किया जाने लगा कि 15 साल पर्याप्त अवधि नहीं होगी, क्योंकि हिंदी को विकसित करके उस चरण तक ले जाना कि वह एकल राष्ट्रीय भाषा के रूप में प्रयोग की जा सके, के लिए काफी समय लगेगा। यहां तक कि सी. राजागोपालाचारी, जो कि अकसर राष्ट्रीय भाषा के रूप में हिंदी की वकालत करते थे, ने भी कहा था कि एकल राष्ट्रीय भाषा के रूप में हिंदी की स्वीकार्यता का विचार चिंता पैदा करता है। जब 1937 में उन्होंने मद्रास सरकार बनाई थी, तब उन्होंने हिंदी को लागू भी किया था। जब गोबिंद वल्लभ पंत गृह मंत्री थे तो संसदीय समिति के मंथन में मैं भी उपस्थित था। मैं तब उनका सूचना अधिकारी था। जब उन्होंने काम करना शुरू किया तो उन्होंने पाया कि गैर हिंदी भाषी सदस्य रुष्ट हैं और उन्होंने सरकारी काम में हिंदी भाषा के प्रयोग का जोरदार विरोध किया। धीरे-धीरे पंत ने सभी सदस्यों से दोहराया कि जैसा कि संविधान में संकल्पना की गई है, संघ की भाषा हिंदी होगी। अंग्रेजी छोड़कर हिंदी अपनाने का मसला उन्होंने भविष्य पर छोड़ दिया।

प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने गैर हिंदी भाषी लोगों को आश्वासन दिया कि अंग्रेजी छोड़कर हिंदी अपनाने की बात तभी होगी, जब वे इसके लिए तैयार होंगे। उनके बाद प्रधानमंत्री बने लाल बहादुर शास्त्री ने इसे लागू करने के लिए संसद में एक विधेयक लाया। संसद ने देश को आश्वासन दिया कि गैर हिंदी भाषी लोगों को असुविधा में नहीं डाला जाएगा। संसद इस मसले पर बहुत संवेदनशील है और जब तक गैर हिंदी भाषी सदस्य इसे अपनाते नहीं, तब तक वह इस संबंध में कोई कार्रवाई नहीं करना चाहती। हाल में भाजपा सरकार के हिंदी को प्रोत्साहित करने के अभियान ने इस मसले को दोबारा सतह पर ला दिया है। सोशल मीडिया में भी इस विषय पर चर्चा हो रही है। देश में इस विषय पर प्रायः आम सहमति है कि किसी भी व्यक्ति पर उसकी इच्छा के विरुद्ध कोई भी भाषा नहीं थोपी जानी चाहिए। दक्षिण में अधिकतर राज्यों, विशेषकर तमिलनाडु ने ऐसे किसी भी प्रयास का जोरदार विरोध किया है। देश में विनम्र हिंदुत्व फैलने के साथ हिंदी का मसला इसकी परिधि में आ रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भाषा के साथ घर में महसूस करते हैं। हिंदी भाषी राज्यों के अन्य बहुसंख्यक सदस्य भी ऐसा ही महसूस करते हैं। यही कारण है कि गैर हिंदी भाषी राज्य हिंदी से ईर्ष्या करते हैं और क्षेत्रीय भाषा की पैरवी करते हुए हिंदी को चुनौती देते हैं। उन्हें लगता है कि उनकी क्षेत्रीय भाषा का जो स्थान होना चाहिए था, वह राष्ट्रीय भाषा उससे छीन रही है। चूंकि देश में त्रिभाषायी-हिंदी, अंग्रेजी व क्षेत्रीय, फार्मूला अपनाया गया है, हिंदी भाषी राज्य खुश हैं कि यह उनकी क्षेत्रीय भाषा है।

गैर हिंदी भाषी राज्य भी खुश हैं क्योंकि उन्हें क्षेत्रीय भाषा के साथ-साथ अंग्रेजी के प्रयोग का अधिकार मिला हुआ है। कट्टर हिंदी पंथी, जो पहले कोई सब्र नहीं दिखाते थे, अब चुप हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि देश भर में हिंदी एक अनिवार्य विषय है। अगर आज नहीं तो कल हिंदी को आने वाली पीढि़यां सीखेंगी। यहां तक कि दक्षिण के लोग भी महसूस करने लगे हैं कि हिंदी से किनारा करके समस्या का समाधान नहीं होगा, इसलिए उनके बच्चे हिंदी सीख रहे हैं। संभवतः मोदी सरकार भी महसूस करती है कि उसे चुप ही रहना है। फाइलों पर नोटिंग पहले ही हिंदी में हो रही है। जो ऐसा करते हैं, उनके दिमाग में संघ के निर्देश होते हैं और साथ ही नोटिंग का अंग्रेजी अनुवाद देते हैं। इससे सभी के उद्देश्य पूरे हो जाते हैं और इसीलिए सरकार को ऐसा कोई सख्त कदम उठाने की जरूरत नहीं है, जिसे थोपे गए कदम के रूप में देखा जाने लगे। यही बेहतर होगा कि जैसे चल रहा है, वैसे ही चलने दिया जाए। हिंदी पहले ही राष्ट्रीय फलक पर विद्यमान है। हिंदी के उग्र समर्थकों से थोड़े से धैर्य की जरूरत है। आरएसएस वही कर रहा है। नागपुर में आरएसएस मुख्यालय का मोदी द्वारा किया गया औचक दौरा इसी को प्रमाणित करता है।

ई-मेल : kuldipnayar09@gmail.com

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