अंतहीन तृष्णा अवधेशानंद गिरि

By: Aug 19th, 2017 12:05 am

तृष्णा का स्वभाव है कि जैसे-जैसे मनुष्य की कामनाएं पूर्ण होती जाती हैं वैसे-वैसे तृष्णा की लपटें और धधकती जाती हैं। उसे किसी सीमा में नहीं बांधा जा सकता। शुरू में बहुत से लोग कहते हैं कि मेरे पास इतना हो जाए तो बस, लेकिन उसकी पूर्ति होते ही तृष्णा की धार फिर आगे की ओर बह निकलती है…

सभी व्यक्तियों के जीवन में वह समय भी आता है, जब शरीर जर्जर और बूढ़ा हो जाता है। इंद्रियों की शक्ति क्षीण हो जाती है। दैनिक जीवन के काम काज के लिए भी उसे औरों पर निर्भर रहना पड़ता है। परंतु कमबख्त तृष्णा है कि इसका कुछ नहीं बिगड़ता। तृष्णा सदैव जवान रहती है। बुढ़ापे का उदास साया उसकी ओर आंख उठा कर भी नहीं देखता। मनुष्य की आकांक्षाएं व इच्छाएं ऐसी लंबी नदी सरीखी हैं जिसके ओर-छोर का पता नहीं लग पाता। अपने मन मुताबिक वातावरण को ढालने, घर-परिवार, बाल-बच्चों के लिए चीजें एकत्र करने तथा संसार के सुखों का भोग करने की लालसा कभी मंद नहीं पड़ती और इसी बीच कभी अंतिम बुलावा भी आ जाता है। किसी लोक कवि ने लिखा है, मात कहे ‘मेरा हुआ बडेरा, काल कहे मैं आया री’ अर्थात माता अपने बच्चे को बड़ा होता हुआ देखकर खुश होती रहती है, उधर मृत्यु कहती है कि मैं निकट आ रही हूं। तृष्णा का स्वभाव है कि जैसे-जैसे मनुष्य की कामनाएं पूर्ण होती जाती हैं वैसे-वैसे तृष्णा की लपटें और धधकती जाती हैं। उसे किसी सीमा में नहीं बांधा जा सकता। शुरू में बहुत से लोग कहते हैं कि मेरे पास इतना हो जाए तो बस, लेकिन उसकी पूर्ति होते ही तृष्णा की धार फिर आगे की ओर बह निकलती है। इसी प्रकार आगे और आगे बढ़ते-बढ़ते जीवन की इहलीला समाप्त हो जाती है। सुकरात कहते थे, तृष्णा संतोष की बैरन है। वह जहां पांव जमाती है, संतोष को भगा देती है। तृष्णा जैसा साथी ढूंढने पर भी नहीं मिलेगा। संगी -साथी, घर-परिवार, पद प्रतिष्ठा, लोक संग्रह, स्वास्थ्य, धन आदि सभी परिस्थितियां विशेष में छूट सकते हैं, लेकिन तृष्णा ऐसी है कि वह छूटती नहीं। यह मन का पिंड ही नहीं छोड़ती। वह व्यक्ति के सिर पर ऐसे सवार हो जाती है कि सोते-जागते, उठते-बैठते, प्रत्येक काम करते उसको मथती रहती है। वह किसी ठौर पीछा नहीं छोड़ती। स्वामी राम सुखदास कहते थे कि कभी किसी की संपूर्ण इच्छाएं पूरी नहीं हुई। कितना ही धन मिल जाए, कितना ही वैभव मिल जाए, कितने ही भोग मिल जाएं, यहां तक कि अनंत ब्रह्मांड भी मिल जाए, तो भी इच्छाएं खत्म नहीं होंगी। कुछ न कुछ लगी रहेगी, पर आवश्यकताएं पूरी नहीं होती हैं। किसी वस्तु विशेष इच्छा या आसाक्ति शेष रह जाए,तो वहां आवश्यकता खत्म हो जाती है, पूरी हो जाती है। रामचरित मानस में राम ने तृष्णा के संबंध में कहा है संसार में जितने दुख हैं, उन सबमें तृष्णा सबसे अधिक दुःखदायिनी है। जो कभी घर से बाहर नहीं निकलता, उसे भी तृष्णा बड़े संकट में डाल देती है। आश्चर्य की बात यह है क जो व्यक्ति घर-परिवार के झंझटों से मुक्त होने के लिए सब कुछ छोड़- छाड़ कर जंगल या पर्वत पर या और कहीं चला जाता है, वहां भी तृष्णा जोंक की भांति उसके साथ चिपकी रहती है। भोग या तृष्णा मनुष्य के सब दुःखों की जड़ है। शरीर के लिए आवश्यक वस्तुओं के भोग को तृष्णा नहीं कहते, जब वस्तुओं की लालसा बढ़ जाती है, वही तृष्णा है। यही मनुष्य में विषय-वासना उत्पन्न करती है, जो सभी अनर्थों की जड़ है। मन में जब तृष्णा का अंकुर फूटता है तब बहुत कुछ अच्छा लगता है, परंतु अंत में वही तृष्णा उसे खा जाती है। मनोवैज्ञानिक बताते हैं कि आजीवन कारावास के कैदियों के हृदय में भी तृष्णा ताना-बाना बुनती रहती है। तृष्णा उन्हें भी नहीं छोड़ती। एकांतवासी भी तृष्णा के मोहपाश से बच नहीं सके हैं। तृष्णा इस आनंदपूर्ण एवं शांत जीवन को संशय, क्रोध, हताशा व्याकुलता और आपाधापी से भर देती है।

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