अनुभव के रंगों में ढली हैं नागपाल की कविताएं

By: Aug 27th, 2017 12:05 am

अपने तीसरे काव्य संग्रह ‘उसकी-मेरी कविताएं’ में अरुण कुमार नागपाल ने अपने निजी अनुभवों को भावों में ढाल कर उन सवालों का जवाब देने का प्रयास किया है जो ज़िंदगी को ़खूबसूरत बनाने के लिए आवश्यक हैं। अपने आसपास की घटनाओं को नागपाल ने सघनता के साथ शब्दों में ढालकर अपनी बात कहने का सराहनीय  प्रयास किया है।  कभी वह इन घटनाओं को ‘पहाड़’ में ढूंढते नज़र आते हैं तो कभी ‘सांझ’ में  पति की चाहत को ट्रैफिक में फंसा पाते हैं। ‘उसकी-मेरी कविताएं’ में कवि अपनी बात कहते नज़र आते हैं तो ‘स्वेटर’ में मां की प्यार और ममता की गरमाइश को शब्दों में बुनते नज़र आते हैं।

‘सत्यमेव जयते’ में गल चुकी परंपराएं और सड़ चुकी मान्यताएं भले ही सच पर हावी होती नज़र आएं लेकिन सच कभी मरता नहीं, उसकी पैनी धार कभी कुंद नहीं होती। कुल मिलाकर उन्होेंने जीवन के उन एहसासात को शब्दों में पिरोने का काम किया है, जिन्हें सामान्यतः आम आदमी नज़रअंदाज़ कर जाता है। सामान्य शब्दों में दृश्य को गूंथने में उनकी महारत सा़फ दीखती है और पाठक उनके साथ-साथ उसी घटना में जुड़ जाता है जिनमें से होकर कवि ने अपने भावों को पिरोया है। इसी तरह ‘आइए! हम सब बोलें’ में कवि को अपने न बोलने पर एतराज़ है। उसे यह एहसास भी है कि अगर उसने समय पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की होती तो व्यवस्था में परिवर्तन हो सकता था। ‘यह पेड़’ में भावपूर्ण अभिव्यक्ति पाठक को अपने साथ गहरे में उतार ले जाती है। ‘तुम्हारी ़खुशी’ में पत्नी के दमकते चेहरे में वह उन्हें आज  पहले से और अच्छी लगती हैं क्योंकि ज़िंदगी की आपाधापी में उनकी ़गुम हो चुकी चमक, ़खुशी, निजता और शो़ख अदा उन्हें सालती रहती है।

आज उनके ़खुश होने की कोई भी वज़ह क्यों न हो, वह उस दमक के ताउम्र बरकरार होने की दुआ करते हैं। ‘बूढ़े लोग’ में कवि जिस तरह से बुज़ुर्गों की पीड़ा को चंद पंक्तियों में समेट देते हैं, वह देखते ही बनती है। ‘लाजवाब सवाल’ में आदमी के अतीत की गोद में खेलने की प्रवृत्ति पर कवि स़ख्त एतराज़ करते नज़र आते हैं। ‘पापा के पक्ष में’ में शायद अपने अनुभवों को वह अपने ‘पापा’ से बांटते नज़र आते हैं। ‘औरत’ में वह जिस तरह से औरत के औरत होने को गौरवपूर्ण बनाने की चेष्टा करते हैं, वह सराहनीय है। लेकिन इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि जहां औरत का अपने ऊपर एतमाद होना ज़रूरी है, वहीं आदमी को भी इस बात का इल्म और एहसास होना चाहिए कि वे दोनों एक-दूसरे के परिपूरक हैं और एक की ़कीमत पर दूसरा कभी नहीं जीत सकता। बराबर के मैदान में ही दोनों अपनी-अपनी ऊंचाई और अपना-अपना आसमान पा सकते हैं। औरत के अपने स्वयं के अनुयायी होने की बात करते हुए कवि एक प्रकार से पुरुष को चेताते हैं कि नारी आज अपना संसार रच रही है और वर्जनाओं की ज़ंजीरों को पिघलाने और एक नई दुनिया घड़ने में सक्षम है। ‘रात भर’ में महज़ छह पंक्तियों में कवि सदियों की बात कर जाते हैं। लेकिन कई स्थानों पर कवि गहरे नहीं उतर पाए हैं। मुक्तिबोध के शब्दों में अगर कहें तो ‘‘मुश्किल यह है कि कविता लिख चुकने के अनंतर, उसी कविता में समाई किंतु उससे बृहत्तर, विशाल कविता अपने स्वरूप का विकास करती हुई उद्घाटित हो जाती है। वह ‘छा’ जाती है और मेरे मन में ही अपना स्वतंत्र विकास कर लेती है।’’ इसी स्वतंत्र विकास का अभाव भी उनकी कविताओं में नज़र आता है।

कविता सामान्य शब्दों में कही तो जानी चाहिए लेकिन इतनी गहरी अवश्य होनी चाहिए कि पाठक को कुछ अलग अनुभव हो। सुगम हो, सरल हो लेकिन उथली न हो। ‘लड़कियां’, ‘अर्थ’, ‘लौट आओ तुम’, ‘मुझे अकेला रहने दो’, ‘नया साल’, ‘तुम्हारा फोटो’, ‘बिटिया’, ‘बारिश’, ‘लड़के’ और ‘कुरुक्षेत्र’ में गहराई का अभाव खलता है। लेकिन कुल मिलाकर कोमल अनुभूतियों और परिवेशगत विसंगतियों के चित्रण के साथ कवि आम आदमी के संत्रास को ब़खूबी व्यक्त करने में सफल रहे हैं। इनसानियत के हर पहलू को कवि ने उकेरने की सफल कोशिश की है।

सादगी से भरपूर उनकी कविताओं का मूल आधार आदमी है। उनकी कविताओं में भले शिल्प का अभाव हो लेकिन कथ्य भरपूर है। उनकी कविताएं किसी वाद में बंधी नज़र नहीं आतीं और वह समय से आंख मिलाने में समर्थ रहे हैं। उनका पारिवेशिक आकलन, उनके भावनाओं के झरने तथा अनुभूतियों के अकूत भंडार, उनके सशक्त कवि होने की राह प्रशस्त करते नज़र आते हैं।

-अजय पाराशर क्षेत्रीय निदेशक सूचना एवं जन संपर्क विभाग क्षेत्रीय कार्यालय, धर्मशाला

पुस्तक समीक्षा

कविता संग्रह :उसकी-मेरी कविताएं

लेखक :अरुण कुमार नागपाल

प्रकाशक :यूनीस्टार बुक्स प्रा. लि. मोहाली

मूल्य :250 रुपए

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