आकांक्षाओं-उम्मीदों का तैयार होता नया सेतु

By: Aug 16th, 2017 12:02 am

ललित गर्ग

लेखक, स्वतंत्र पत्रकार हैं

आजादी के सात दशक बीत रहे हैं और अब साकार होता हुआ दिख रहा है हमारी जागती आंखों से देखा गया स्वप्न। एहसास हो रहा है स्वतंत्र चेतना की अस्मिता का। स्वतंत्रता दिवस को मनाते हुए एक ऐसे भारत को निर्मित करने का संकल्प लेना होगा जो न केवल भौतिक दृष्टि से, बल्कि नैतिक दृष्टि से भी सशक्त हो…

पंद्रह अगस्त हमारे राष्ट्र का गौरवशाली दिन है। इसी दिन स्वतंत्रता के बुनियादी पत्थर पर नव निर्माण का सुनहरा भविष्य लिखा गया था। इस लिखावट का हार्द था कि हमारा भारत एक ऐसा राष्ट्र होगा, जहां न शोषक होगा न कोई शोषित, न मालिक होगा न कोई मजदूर, न अमीर होगा न कोई गरीब। सबके लिए शिक्षा, रोजगार और उन्नति के समान और सही अवसर उपलब्ध होंगे। आजादी के सात दशक बीत रहे हैं और अब साकार होता हुआ दिख रहा है हमारी जागती आंखों से देखा गया स्वप्न। एहसास हो रहा है स्वतंत्र चेतना की अस्मिता का। अब बन रहा है नया भारत। हमें स्वतंत्रता दिवस को मनाते हुए एक ऐसे भारत को निर्मित करने का संकल्प लेना होगा जो न केवल भौतिक दृष्टि से, बल्कि नैतिक दृष्टि से भी सशक्त हो। स्वतंत्रता के सातवें दशक में पहुंचकर पहली बार ऐसा आधुनिक भारत खड़ा करने की बात हो रही है, जिसमें नए शहर बनाने, नई सड़कें बनाने, नए कल-कारखाने खोलने, नई तकनीक लाने के साथ-साथ नया इनसान गढ़ने का प्रयत्न हो रहा है। एक शुभ एवं श्रेयस्कर भारत निर्मित हो रहा है। हर बार आजादी के जश्न को मनाते हुए अनेक प्रश्न भी खडे़ होते हैं। ये प्रश्न इसलिए खड़े हुए, क्योंकि आज भी आम आदमी न सुखी बना है और न समृद्ध। अर्जन के सारे स्रोत सीमित हाथों में सिमट कर रह गए हैं। स्वार्थ की भूख परमार्थ की भावना को ही लील गई। हमारी समृद्ध सांस्कृतिक चेतना जैसे बंदी बनकर रह गई। शाश्वत मूल्यों की मजबूत नींवें हिल गईं। ऐसा लगता रहा है कि जमीन आजाद हुई है, जमीर तो आज भी कहीं, किसी के पास गिरवी रखा हुआ है।

ऐसा लगता है कि इन सब स्थितियों में जवाबदेही और कर्त्तव्यबोध तो दूर की बात, हमारे सरकारी तंत्र में न्यूनतम मानवीय संवेदना भी दिखाई नहीं देती। जनता के हितों पर कुछ सार्थक निर्णय लेने के लिए चुनी गई संसद द्वारा अपने ही हितों के लिए संसद की कार्यवाही को बाधित करना, कैसा लोकतांत्रिक आदर्श है? प्रश्न है कि कौन स्थापित करेगा एक आदर्श शासन व्यवस्था? महात्मा बुद्ध, गांधी, स्वामी विवेकानंद हमारे आदर्शों की पराकाष्ठा हैं, पर विडंबना तो देखिए कि हम उनके जैसा आचरण नहीं अपना पाए। उनकी पूजा कर सकते हैं, उनके मार्ग को नहीं अपना सकते। गांधी, शास्त्री, जयप्रकाश नारायण, लोहिया के बाद राष्ट्रीय नेताओं के कद छोटे होते गए और परछाइयां बड़ी। हमारी प्रणाली में तंत्र ज्यादा और लोक कम रह गया। यह प्रणाली उतनी ही अच्छी हो सकती है, जितने कुशल चलाने वाले, लेकिन कुशलता तो तथाकथित स्वार्थों की भेंट चढ़ गई। लोकतंत्र श्रेष्ठ प्रणाली है, बशर्ते उसके संचालन में शुद्धता हो। हमारी सबसे बड़ी असफलता रही है कि आजादी के 70 वर्षों के बाद भी हम राष्ट्रीय चरित्र नहीं बना पाए। राष्ट्रीय चारित्र का दिन-प्रतिदिन हृस हो रहा था। गलत व सही तरीके से हम सब कुछ पा लेना चाहते हैं। अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए कर्त्तव्य को गौण कर दिया था। इस तरह से जन्मे हर स्तर पर भ्रष्टाचार ने राष्ट्रीय जीवन में एक विकृति पैदा कर दी है। सही मायनों में नागरिक वह है, जिसमें सत्य, श्रद्धा, शील और समता जैसे नागरिक सद्गुण हों। ऐसा व्यक्ति अपनी सुविधा के लिए दूसरों को कष्ट नहीं दे सकता। सबके प्रति मित्रता का भाव रखता है। लोकतंत्र के दो मजबूत पैर न्यायपालिका और कार्यपालिका स्वतंत्र रहें। एक-दूसरे को प्रभावित न करें। संविधान के अंतर्गत बनी आचार संहिता मुखर हो, प्रभावी हो। बुद्ध, महावीर और गांधी अब वापस नहीं आ सकते। अब तो लोकतंत्र के समर्थकों को ही तुच्छ राजनीति और दलगत स्वार्थों से ऊपर उठना होगा। अहिंसा के प्रवक्ताआें को प्रशिक्षण देना होगा। चुप्पी या बीच की लाइन को छोड़कर मतदाता को मुखर होना होगा, अन्यथा हमारा लोकतंत्र ऐसे ही लहूलुहान होता रहेगा और जिस आदर्श स्थिति की हमें तलाश है, वह न हमें मिलेगी और न आने वाली पीढि़यों को।

इस वर्ष हम स्वतंत्रता दिवस मनाते हुए महसूस कर रहे हैं कि निराशाओं के बीच आशाओं के दीप जलने लगे हैं, यह शुभ संकेत हैं। एक नई सभ्यता और एक नई संस्कृति करवट ले रही है। नए राजनीतिक मूल्यों, नए विचारों, नए इनसानी रिश्तों, नए सामाजिक संगठनों और नई जिंदगी की हवाएं लिए हुए आजाद मुल्क की एक ऐसी गाथा लिखी जा रही है, जिसमें राष्ट्रीय चरित्र बनने लगा है। राष्ट्र सशक्त होने लगा है। न केवल भीतरी परिवेश में, बल्कि दुनिया की नजरों में भारत अपनी एक स्वतंत्र हस्ती और पहचान लेकर उपस्थित है। चीन की दादागिरी और पाकिस्तान की दकियानूसी हरकतों को मुंहतोड़ जवाब पहली बार मिला है। चीन ने कभी कल्पना भी नहीं की होगी कि सीमा विवाद को लेकर डोकलाम में उसे भारत के कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ेगा। यह सब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व का प्रभाव है। उन्होंने लोगों में एक नई उम्मीद जगाई है। इसका कारण यही है कि लोग ताकतवर और तुरंत फैसले लेने वाले नेता पर भरोसा करते हैं। ऐसे कद्दावर नेता की जरूरत लंबे समय से थी, जिसकी पूर्ति होना और जिसे पाकर राष्ट्र केवल व्यवस्था पक्ष से ही नहीं, सिद्धांत पक्ष भी सशक्त हुआ है। किसी भी राष्ट्र की ऊंचाई वहां की इमारतों की ऊंचाई से नहीं मापी जाती, बल्कि वहां के राष्ट्रनायक के चरित्र से मापी जाती है। उनके काम करने के तरीके से मापी जाती है। हमारे राष्ट्र नायकों ने, शहीदों ने एक सेतु बनाया था संस्कृति का, राष्ट्रीय एकता का, त्याग का, कुर्बानी का, जिसके सहारे हम यहां तक पहुंचे हैं। मोदी भी ऐसा ही सेतु बना रहे हैं, ताकि आने वाली पीढ़ी उसका उपयोग कर सके। यही वह क्षण है, जिसकी हमें प्रतीक्षा थी।

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