गुप्त राजाओं ने मद्र जनपद को अपने राज्य में मिलाया

By: Aug 23rd, 2017 12:05 am

समुद्रगुप्त के इलाहाबाद के स्तंभ लेख में मद्रों का नाम आता है। मद्र जनपद कब खत्म हुआ, इसके बारे में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा  सकता। संभव है गुप्त राजाओं ने ही इन्हें अपने राज्य में मिला लिया हो…

हिमाचल के प्राचीन जनपद

पहले तो ये मुद्राएं चांदी में चलाई गईं, परंतु जब कुषाणों ने अपने काल में सोने के सिक्के चलाए, तो इन गणराज्यों के लिए सोने के सिक्के चलाना कठिन था, उस समय विदेशों से चांदी का आना प्रायः बंद हो गया था। इस कारण उन्होंने तांबे को ही सिक्कों की धातु के लिए प्रयोग किया। मुद्राओं का क्रय मूल्य इतना था कि सर्वसाधारण का काम चल जाता था। तांबे का सिक्का जीवन की उपयोगी वस्तुएं खरीदने के लिए पर्याप्त था। मद्र जनपद का उल्लेख उत्तर वैदिक साहित्य में आता है। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार उत्तर मद्र दूर हिमालय में उत्तर कुरु का पड़ोसी देश था। मद्रों का वर्णन वृहाकारण्यकोपनिषद में भी मिलता है। समीवतः दक्षिणी मद्र की सीमाएं स्यालकोट के पास कहीं रही हों। इसे गुरु गोबिंद सिंह के समय तक मद्रदेश ही कहते थे। मद्रों की राजधानी साकल (स्यालकोट) थी, जो आपगा (वर्तमान अयक) नदी के किनारे स्थित है। यह नदी जम्मू की पहाडि़यों से निकल कर स्यालकोट के पास होती हुई वर्षा ऋतु में चिनाब से मिलती है। पाणिनी के समय मद्र के दो भाग थे, पूर्व मद्र और उत्तर मद्र। पूर्व मद्र के बार में लिखा है कि यह देश वाहिका के उत्तरी भाग में साकल (स्यालकोट) के पूर्व से लेकर त्रिगर्त (कांगड़ा) तक फैला हुआ है। उत्तर वैदिक साहित्य से पता चलता है कि मद्रो ंमें वैधराजतंत्र की व्यवस्था थी। प्राचीन ग्रंथों में यहां के लोगों को बड़ा शूरवीर बताया गया है। उपनिषदों में इन्हें क्षत्रिय लिखा है। ब्राह्मण काल में ये विद्या तथा पांडित्य के लिए बहुत प्रसिद्ध थे। अभी तक इस जनपद की कोई भी मुद्रा प्राप्त नहीं हुई है। समुद्रगुप्त के इलाहाबाद के स्तंभ लेख में मद्रों का नाम आता है। मद्र जनपद कब खत्म हुआ, कहा जा सकता। संभव है गुप्त राजाओं ने ही इन्हें अपने राज्य में मिला लिया हो। त्रिगर्तः पाणिनी ने त्रिगर्त देश के  आयुधजीवी संघों का उल्लेख किया है। रावी, व्यास और सतलुज इन तीन नदी दूनों के बीच का प्रदेश त्रिगर्त कहलाता था। इसका पुराना नाम जलंधरायण भी था, जिसका राजन्यादिगण में उल्लेख हुआ है। त्रिगर्त का उल्लेख करते हुए आचार्य हेमचंद ने भी लिखा है कि जालन्धरास्त्रिगर्ता स्युः। वृहत्संहिता तथा महाभारत में भी त्रिगर्त का जिक्र आता है। महाभारत के द्रोणपर्व अध्याय 282 में त्रिर्गत के राजा सुशर्मचंद्र और उसके भ्राताओं का वर्णन है, वे सब पांच भाई थे।

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