छात्रों की डगर क्यों रूठ गई

By: Aug 17th, 2017 12:05 am

प्रदेश के इंजीनियरिंग कालेजों में सन्नाटा पसर रहा है,तो छात्र समुदाय की उमंगों का तराजू भी निराश है। तकनीकी ज्ञान की मंजिल पर खड़ी इमारतें, लेकिन छात्रों की डगर रूठ गई। जब सरकारी इंजीनियरिंग कालेज ही बमुश्किल अपनी क्षमता के  नजदीक पहुंचने के लिए पापड़ बेल रहे हैं, तो निजी संस्थानों की प्रासंगिकता पर प्रश्न चस्पां हो जाएंगे। सीटें आईटीआई से बहुतकनीकी कालेजों तक खाली हैं, क्योंकि छात्रों की महत्त्वाकांक्षा व  रोजगार की आकांक्षा में ज्ञान परिपूर्ण नहीं हो रहा। जाहिर है शिक्षा के पांव पसारते वक्त यह नहीं सोचा गया कि यह काबिलीयत का दरवाजा कैसे बने, बल्कि सियासी आखेट में शिक्षण  संस्थानों का बंटवारा अब योग्यता की मिलकीयत को भी गंवा बैठा। यह तर्क का विषय है कि हिमाचल जैसे राज्य के लिए कितने कालेज या तकनीकी शिक्षण संस्थानों की आवश्यकता है। कितने मेडिकल कालेज और इनको जरूरत के आधार पर चलाने का औचित्य कितना है। आबादी की जंग को स्कूल-कालेजों के माध्यम से निरूपित तो किया जा सकता है, लेकिन शिक्षा को अपनी डिग्रियों का खोखलापन कौन मिटाएगा। डिग्रियों का सूनापत हाजिर है और इस पर भी नए कालेजों का श्रीगणेश होता रहेगा, तो हम शिक्षण संस्थानों से केवल राजनीतिक उत्पत्ति ही कर पाएंगे। शिक्षा और चिकित्सा को सियासी उद्देश्यों में सफल बनाने का ही नतीजा है कि करीब  डेढ़ दर्जन निजी विश्वविद्यालयों में इक्का-दुक्का ही छात्रों का विश्वास अर्जित कर पाए, जबकि अन्य अपने मकसद में बुरी तरह हार चुके हैं। इंजीनियरिंग की पढ़ाई में अगर सरकारी भवन हार रहे हैं, तो औचित्य टेक्निकल यूनिवर्सिटी खोलने के सिद्धांत से भी खोजा जाएगा। ऐसी कौन सी राजनीतिक उपलब्धि इस प्रदेश को हासिल करनी है कि बिना सर्वेक्षण के तकनीकी विश्वविद्यालय खोल दिया गया। जिस तीव्रता से हिमाचली छात्र तकनीकी शिक्षण संस्थानों से मुंह मोड़ रहा है, उसे समझे बिना शिक्षा का प्रसार विफल ही होगा। इसी धुन में मेडिकल यूनिवर्सिटी और आयुर्वेद विश्वविद्यालयों की स्थापना चुनने में तो राजनीतिक चमत्कार ही होगा, लेकिन इन्हें औचित्य पूर्ण बनाने से  पहले छात्र मांग और शैक्षणिक गुणवत्ता का मूल्यांकन करना होगा। विडंबना यह है कि अभी टांडा मेडिकल कालेज भी अपने मकसद व मेहनत से खुद को साबित नहीं कर पाया तो नेरचौक से चंबा या नाहन तक मेडिकल कालेजों की लक्ष्यपूर्ण स्थापना कर पाना आसान नहीं। विडंबना यह है कि नेरचौक के करीब बिलासपुर में एम्स खोलने का सबसे बड़ा तर्क खुद केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जगत प्रकाश नड्डा हैं, फिर भी स्थापना के शिलान्यास राजनीतिक बुर्का ओढ़ कर बैठे हैं। आने वाले कुछ सालों में औचित्य की जंग ये तमाम मेडिकल कालेज भी लड़ेंगे, क्योंकि राज्य की भौगोलिक पीड़ा के आंसू पोंछने के बजाय नेताओं के प्रभाव से खुलते संस्थानों ने भविष्य का संतुलन जरूर बिगाड़ा है। यही कारण है कि अत्यधिक सरकारी स्कूलों के बावजूद निजी कहीं अधिक प्रासंगिक हैं। आवश्यकता से कहीं अधिक कालेजों ने छात्र योग्यता पर प्रश्न बढ़ाए हैं,  जबकि इंजीनियरिंग कालेजों या निजी विश्वविद्यालयों की हारती क्षमता के बीच शिक्षा की प्रासंगिकता ही खतरे में है। ऐसे में देखना यह होगा कि किस प्रकार शिक्षा को राजनीतिक  चंगुल से बचाया जाए। राष्ट्रीय महत्त्व के शिक्षा या चिकित्सा संस्थानों को हम राजनीतिक रेत पर खड़ा करेंगे, तो वांछित परिणाम नहीं आएंगे। एम्स जैसे संस्थान की स्थापना चंडीगढ़ के समीप करके या  आईआईएम को देहरादून के करीब खोलकर हिमाचल अपनी राजनीति को तुष्ट करके भी इनकी प्रासंगिकता गंवा देगा। शिक्षण संस्थानों की क्षमता में शिक्षा का उत्थान नहीं होगा, तो बच्चे घर छोड़ कर बाहर निकल जाएंगे। हिमाचल ने मात्रात्मक शिक्षा या घर द्वार पर शिक्षा के फार्मूले से भले ही साक्षरता दर का शिखर पा लिया , लेकिन शिक्षा का शिखर छात्रों की उपलब्धियों से बनता है। हिमाचल में शिक्षा व चिकित्सा के संस्थानों को अगर राजनीतिक रेहड़ी में बैठा कर बांटते रहे, तो सारी इमारतें, अभिशप्त होंगी। सरकारी इंजीनियरिंग कालेजों की विफलता एक सबक के मानिंद जो बता रही है, उसे समझते हुए अब शैक्षणिक गुणवत्ता का आधार पुख्ता करना होगा, जो हर विधानसभा में दो-तीन कालेज खोल कर पूरा नहीं होगा, बल्कि राज्य स्तरीय संस्थानों की मिट्टी व प्रतिष्ठा के लिए अराजनीतिक व शिक्षाविदों की राय पर फैसले करने होंगे। यह कार्य शैक्षणिक सलाहकार या तकनीकी परिषद जैसी स्वतंत्र एजेंसियां करें, तो बेहतर होगा।

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