तुरीय अवस्था

By: Aug 19th, 2017 12:05 am

बाबा हरदेव

जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, इन तीनों अवस्थाओं में एक चौथी अवस्था ‘तुरीय’ ऐसे ही पिरोई हुई है जैसे माला के मनको में धागा, मानो सोए हुए मनुष्य के भीतर कोई जागा हुआ है। स्वप्न देखते समय भी मनुष्य के भीतर कोई देखने वाला, स्वप्न से बाहर मौजूद है और जागते समय दिन के कामकाज करते समय भी मनुष्य के भीतर कोई साक्षी मौजूद है। ऐसा होगा भी क्योंकि जो मनुष्य का स्वभाव है, इससे मनुष्य चाहे कितना भी इधर- उधर हो जाए, खो नहीं सकेगा। यह स्वभाव कुछ समय के लिए दब सकता है, छिप सकता है, विस्मरण हो सकता है, मगर यह स्वभाव नष्ट नहीं हो सकता। ऊपर वर्णन की गई सत्ता से स्पष्ट होता है कि चाहे नींद, चाहे स्वप्न, चाहे तथाकथित जागरण, इनके पीछे गहरे में ‘तुरीय’ सदा मौजूद रहता है। ऊपर बेशक मनुष्य कितना भी भटक जाए, यह सब भटकाव परिधि का और लहरों का है इसलिए ‘तुरिय’ को पाना नहीं है इसे उपलब्ध नहीं करना है, इसे आविष्कृत करना है, यह तो छिपी पड़ी है जैसे कोई खजाना मिट्टी में दबा हो, सिर्फ मिट्टी की थोड़ी परत हटानी है, अगरचे इस ‘तुरीय’ रूपी खजाने की झलक मनुष्य को मिलती रहती है मगर मनुष्य इस झलक पर ध्यान नहीं देता।उदाहरण के तौर पर सुबह उठकर मनुष्य कहता है कि इसे रात बड़ी गहरी नींद आई, बड़ा मजा आया मगर मनुष्य को कभी यह ख्याल नहीं आता कि कौन है, जो जानता है कि नींद बड़ी सुखद थी। कोई जरूर नींद की गहराई में भी देख रहा था। इसी प्रकार मनुष्य स्वप्न देखता है और सुबह उसकी झलक उसकी याद कायम रह जाती है। इसका मतलब है कि देखने वाला कोई अलग था अन्यथा याद न बनती। इसी प्रकार दिन में भी मनुष्य को कभी क्रोध पकड़ता है, घृणा पकड़ती है तो फिर कभी प्यार पकड़ता है, तब भी मनुष्य जानता है कि इसे क्रोध, घृणा और प्यार ने पकड़ना शुरू कर दिया है। मानो मनुष्य का ध्यान दृश्य की तरफ तो रहता है, मगर इस देखने वाले की तरफ ध्यान नहीं जाता। मनुष्य जब इस देखने वाले की तरफ ध्यान देगा तब यह ‘तुरीय’ अवस्था में होगा। महात्माओं का मत है कि भावी जीवन संग्राम में ‘साक्षी’ भाव याद रखो क्योंकि साक्षी भाव जीवन की विजय की अंतिम घटना है और जगत में सिर्फ ‘साक्षी भाव’ ही शाश्वत है बाकी सब परिवर्तनशील है। जैसे चाक (पहिया) परिधि पर घूमता रहता है सिर्फ बीच की कील नहीं घूमती। जहां साक्षी भाव है वहां कुछ भी नहीं घूमता, वहां सभी चीजें स्थिर हैं। अब ‘तुरीय’ अवस्था का अर्थ है कि मनुष्य के भीतर छिपा है मनुष्य का एक रूप जो मनुष्य से बहुत शक्तिशाली और बहुत ज्ञानी है, इसकी सुनना चाहिए और इसका अनुसरण किया जाए, मगर इसके लिए जरूरी है कि मनुष्य द्वंद्व के बीच पूर्ण सद्गुरु के द्वारा जाग कर ‘साक्षी’ भाव की जानकारी ले और दर्पण की भांति केवल द्रष्टा बन जाए। धर्म की खोज का सार है ये भी नहीं, ये भी नहीं नेति-नेति। ऐसे परखते-परखते जो है, वो शेष रह जाता है और उसे कहने की कोई आवश्यकता नहीं होती और ये जो शेष रह जाता है, ये है केवल ‘साक्षी’ सिर्फ द्रष्टा। यहां न देह बचती है, न मन बचता है, न बुद्धि बचती है,सिर्फ साक्षी बचता है। मानो न गंगा है, न यमुना है, मनुष्य तो सरस्वती है और ये भी ख्याल रहे कि साक्षी का निषिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि यही एकमात्र तत्त्व है। ऐसे ‘साक्षी’ की जानकारी जब पूर्ण सद्गुरु द्वारा मिल जाती है तो बस उग आता है धर्म का सूर्य, मिट जाता है अंधेरा, हो जाता है सवेरा।

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