दरकते पहाड़ में समाता विकास

By: Aug 11th, 2017 12:02 am

उन्हीं रास्तों पर जीवन का विराम मिल रहा, जिन्हें चौड़ा किया मंजिल पाने के लिए। हिमाचल में जीने की गति और पाने की तमन्ना का हिसाब लेती बरसात और दूसरी ओर आर्थिक बेडि़यां खोलती मेहनत का रिसाव। परवाणू से शिमला को फोरलेन बनाने की जरूरत को पहाड़ समझ नहीं रहा या पर्वत को छेड़छाड़ पसंद नहीं। बेशक लंबे जाम में फंस कर हम पहाड़ के नए संकल्प पर टूटते वजूद की तरह चिन्हित होते हैं, लेकिन शिमला की मंजिल में इस पड़ाव को समझना होगा। हिमाचल के खाते की बरसात हर बार इतने विध्वंसक आंकड़े भर देती है कि हमें इसे प्राकृतिक त्रासदी के उल्लेख से बाहर निकलकर भी सोचना पड़ेगा। क्यों हमारा विकास ताश के पत्तों के मानिंद बिखर जाता है या मंजिल के करीब प्रकृति हमारे कदमों को रोकने का इशारा कर देती है। बेशक प्रकृति की अपनी शर्तें व मूड है, कब बढ़ जाएं या खराब हो जाएं, लेकिन समाधान की विकरालता को नजरअंदाज भी तो नहीं किया जा सकता। परवाणू-शिमला फोरलेन परियोजना में विकास और विज्ञान, तकनीक और तथ्यता तथा लक्ष्य और प्राकृतिक लय को एक साथ रखना होगा। मौसम के सामने हमारे अपने दबाव हैं और जिनका समाधान विज्ञान, तकनीक, शोध और विकास है। उदाहरण के लिए कांगड़ा के ढलियारा के पास बरसाती अखाड़े में हिमाचल खड़ा है, तो वहां विकास की चुनौती नहीं समझी जा रही। खड्ड को लांघने या उसके रौद्र रूप को आंकने में ही अगर सड़क परियोजना असफल है, तो विकास की आवश्यकताएं तरल होकर ही बहेंगी। हमारी समस्या है भी यही कि हम जीवन की आवश्यकताओं का तरलता से समाधान खोज रहे हैं, जबकि ठोस आधार पर ही भविष्य की कल्पना की जा सकती है। क्योंकि हमने शहरीकरण को सत्तर के दशक से समझना शुरू नहीं किया, इसलिए अब समाधान भी एक ढलान है। पर्यटक और धार्मिक स्थलों पर निर्माण की गति केवल व्यावसायिक तरलता है, जबकि नियोजित विकास की शर्तें भी इसी में डूब गईं। नतीजतन नयनादेवी व बाबा दियोटसिद्ध जैसे परिसरों में आपदाओं के खतरे हमेशा भगवान की सहायता मांगते हैं। क्या हम ऐसे स्थलों में निर्माण की कोई संहिता लागू कर पाए या महज कंकरीट के गुंबदों पर आसन टिका कर आती भीड़ से केवल वार्षिक चढ़ावे का अंदाजा लगाएंगे। हिमाचल में गुम्मा या हणोगी मंदिर जैसी कितनी ही पहाडि़यां जब बरसात में पगडंडियां बन जाती हैं, तो एहसास होता है कि हमारे विकास का आधार ही विकसित नहीं हुआ। हिमाचल के पीडब्ल्यूडी, वन, जन स्वास्थ्य व ऊर्जा जैसे अनेकों विभाग वाकई हमारे जीवन की टहनियां हैं, लेकिन इनकी योजनाओं को हमेशा वसंत की कलम से नहीं लिखना चाहिए, बल्कि उस माली जैसा किरदार पैदा करना होगा, जो पतझड़ के बीच हरियाली कायम रखे। कहना न होगा कि हिमाचल के किसी भी विभाग ने अपने कार्यक्षेत्र में ‘आर एंड डी’ के तहत उल्लेखनीय कार्य नहीं किया इसलिए मौसम कहीं अधिक जख्म देता है। इसी तरह हिमाचल की नीतियों में अनुरूपता और कुरूपता पर विचार करते हुए विकास का स्पष्ट रोड मैप बनाना चाहिए। भले ही एनजीटी हमें पर्यावरण संरक्षण की सूली पर टांग कर सबक दे, लेकिन मसला तो पर्वतीय जीवन के संघर्ष, उत्साह और सीमाओं का है। हमें विकास की राहें लंबी और चौड़ी करनी हैं, तो इरादे भी ऊंचे  रखने होंगे। दरअसल असली मसला केंद्रीय राहत और बचाव या वन संरक्षण अधिनियम के इर्द-गिर्द ही घूमता रहता है जबकि पर्वतीय विकास के मानदंड विशेष वित्तीय सहयोग व तकनीक से ही निर्धारित होंगे। बेशक सड़क निर्माण को वित्तीय मदद की बुर्जियां अब फोरलेन जैसी सड़कों के किनारों पर शान से खड़ी हो रही हैं, लेकिन पहाड़ को छीलने की सही तकनीक भी तो चाहिए। हिमाचल को एलिवेटिड रोड या ट्रांसपोर्ट सिस्टम चाहिए और जिसके लिए केंद्र को पैमाने बदलने पड़ेंगे। राष्ट्रीय नीति आयोग देश की तरक्की को चिन्हित करने का इरादा भले ही मजबूती से रखे, लेकिन मौसम से ठिठके पर्वतीय कदमों की आहट न सुनी, तो दरकते पहाड़ में विकास का पूरा कारवां एक दिन समा जाएगा।

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