धर्म की उपासना में झलकता है संस्कृति का प्रतिबिंब

By: Aug 23rd, 2017 12:05 am

भारत की श्रेयमयी संस्कृति का अन्य स्थानों में प्रसार हुआ। संस्कृति का असली प्रतिबिंब धर्मोपासना में ही झलकता है। हिमाचल प्रदेश में शास्त्र-सम्मत धर्म और लोक धर्म दोनों की परंपराएं समान रूप से अपना अस्तित्व बनाए हुए मिलती हैं… 

हिमाचल में प्रचलित धर्म

संस्कृति के निर्माण में भूगोल और इतिहास का बहुत बड़ा हाथ रहता है।  मूल रूप में संस्कृति समस्त विश्व में एक समान है।  वेस्ट मार्क के अनुसार मनुष्य चाहे पूर्व का हो या पश्चिमी का, वह भले ही जापान, चीन का निवासी है या अमरीका या यूरोप का, वह मिश्र में रहता है या आस्ट्रेलिया में,वह अदृष्ट दैवी शक्ति से भयभीत है, अनागत का उसे डर है, अतीत के प्रति उसमें वैविध्य भी काफी आ गया है और ज्यों-ज्यों जो वर्ग और समुदाय विज्ञान और टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में अधिक उन्नति करता है, उसका सांस्कृतिक स्तर अन्य वर्गों और जातियों से उसी अनुपात में भिन्न हो जाता है।  इसी प्रकार हिमाचल प्रदेश में हमें संस्कृति की दो समान धाराएं परिलक्षित होती हैं। एक धारा समाज के सुसंस्कृत, शिष्ट अथवा तथाकथित उच्च वर्ग में प्रवाहित होती है, जिसे शास्त्र सम्मत कहा जाता है। दूसरी शेष वगर्ोें में जिसको लोकाश्रित कह सकते हैं।  हरमन गोयटज ने हिमाचली संस्कृति को जातियों के आधार पर चार भागों में विभक्त किया है। इसमें दो भाग कोलियों के, तीसरा कनैतों का व चौथा हिस्सा राजपूतों और ब्राह्मणों का है, परंतु इस प्र्रकार का वर्गीकरण स्पष्टतः भ्रामक है।  यदि लगभग समूची जनता खड़ी है तो दूसरे धरातल पर कतिपय वह वर्ग है, जो शासन तथा धर्म के निकट से संबंधित रहा है। यह वह दूसरा वर्ग है, जिसे उच्च वर्ग या शिष्ट वर्ग की संज्ञा दी जा सकती है, क्योंकि इस वर्ग ने इच्छा, क्रिया और ज्ञान द्वारा अपने संस्कारों का परिमार्जन किया है। नगरकोट, सुजानपुर टीहरा, भरमौर, जगतसुख, (कुल्लू), निर्मंड, कोठी (किन्नौर), हाटकोटी, रेणुका, उदयपुर (लाहुल), ममेल काव (मंडी) आदि इस शिष्ट वर्ग के कुछ एक महत्त्वपूर्ण केंद्र हैं, जिन्हें आसपास के प्रदेश से सुगमता से पृथक किया जा सकता है।  सुजानपुर टीहरा को छोड़कर अन्य सभी केंद्र अति प्राचीन एवं कम से कम दो हजार वर्षों से इस समूचे भू-खंड में वैदिक और पौराणिक संस्कृति के केंद्र व पालक रहे हैं। इन सभी जगह आर्यों की बस्तियां भी रही हैं। जिस कारण इन्हीं केंद्रों से भारत की श्रेयमयी संस्कृति का अन्य स्थानों में प्रसार हुआ। संस्कृति का असली प्रतिबिंब धर्मोपासना में ही झलकता है। हिमाचल प्रदेश में शास्त्र-सम्मत धर्म और लोक धर्म दोनों की परंपराएं समान रूप से अपना अस्तित्व बनाए हुए मिलती हैं।

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