प्रकृति की चेतावनियां
(स्वास्तिक ठाकुर, पांगी, चंबा )
आपदाएं जिस तरह से पहाड़ को डरा रही हैं, वहां विकास और विनाश के बीच के अंतर को समझना होगा। बेशक शुरुआती जीवन से ही मानव जीवन में विकास की प्रबल महत्त्वाकांक्षा रही है और उसके अनुरूप अथाह विकास हुआ भी। लेकिन बदलते दौर और वर्तमान की चुनौतियों के बीच हमें एक बार विवेकपूर्ण विचार करना होगा कि हमें चाहिए कौन सा विकास। क्या प्रकृति से खिलवाड़ किए बगैर टिकाऊ एवं कल्याणकारी विकास संभव नहीं है? दीगर है कि हमने पिछले कुछ समय में विकास के अधीन होकर प्रकृति को भारी क्षति पहुंचाई है। विकास की विभिन्न परियोजनाओं के लिए जिस तरह से जंगलों को नष्ट किया गया और पेड़ों की कटाई की गई, उसने स्थिति को और भयावह बना दिया। इससे मानसून तो प्रभावित हुआ ही, भू-क्षरण एवं नदियों द्वारा कटाव किए जाने की प्रवृत्ति भी बढ़ी। बाढ़ और सूखा पुराने जमाने से ही हमारे जीवन को परेशानी में डालते रहे हैं। बाढ़, भू-स्खलन और सूखा केवल प्राकृतिक आपदाएं भर नहीं हैं, बल्कि ये एक तरह से प्रकृति की चेतावनियां भी हैं। इन चेतावनियों को दरकिनार करके हम अपने ही भविष्य को संकट में डालेंगे। इसी क्रम में कोटरूपी में दरकते पहाड़ जो कुछ कह गए उसे ध्यान में रखते हुए हमें भविष्य में सुरक्षित विकास के मापदंड और रास्ते चुनने होंगे, जहां विकास विनाश साबित न हो।
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