बिहार में महागठबंधन का बिखराव

By: Aug 4th, 2017 12:05 am

प्रो. एनके सिंह

लेखक, एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन हैं

प्रो. एनके सिंहनीतीश ने यह प्रतिस्थापित कर दिया है कि राष्ट्रीय राजनीति में उनका दो कारणों से महत्त्व है-एक यह कि वह सत्ता हासिल करते हैं, लेकिन अपने या परिवार के लिए नहीं बल्कि जनता के कल्याण के लिए। दूसरे, समुदाय विशेष पर आधारित पंथनिरपेक्षता को दोबारा परिभाषित कर उन्होंने सभी समुदायों को बराबर महत्त्व दिया है। एक तरह से वह अब मोदी के संवैधानिक हिंदुत्व के नजदीक हैं। इसमें किसी एक समुदाय का तुष्टीकरण नहीं होता है, बल्कि सबको समान महत्त्व मिलता है…

बिहार में नीतीश कुमार के नाटकीय ढंग से महागठबंधन से बाहर आने तथा उसके शीघ्र बाद सरकार बनाने के लिए भारतीय जनता पार्टी से हाथ मिलाने से राजनीतिक विश्लेषक भौंचक्के रह गए हैं। एक व्यक्तित्व, जिसे अकसर नरेंद्र मोदी के विकल्प के रूप में देखा जा रहा था, इतनी तेजी से बदल गया कि इस महापरिवर्तन से निपटने के लिए विपक्ष को रणनीति तक बनाना मुश्किल हो गया। जो इस बदलाव से शोकग्रस्त हैं, उन्हें चुनाव तथा उसके बाद सरकार निर्माण के दौरान हुई घटनाओं को याद करने की जरूरत है, जब नीतीश कुमार भाजपा के खिलाफ पूरी दिलेरी से लड़े थे। उस समय किसी ने भी यह कल्पना नहीं की थी कि इस तरह का परिवर्तन भी आएगा। नीतीश ने अपने पूर्व के साथी (एनडीए) को छोड़कर लालू ब्रिगेड का हाथ इसलिए पकड़ लिया, क्योंकि उन्हें मोदी के उभरने का भय था। पहले उन्होंने व सुशील मोदी ने मिलकर शासन चलाया और बिहार के विकास आंकड़ों में धीरे-धीरे सुधार होने लगा था, लेकिन मोदी के उभरने से नीतीश अचानक व्यथित हो गए। यह सत्य था कि मोदी के विकल्प के रूप में उनके समर्थन में आए भारी जनमत ने वास्तव में उनके दिमाग को खराब कर दिया था। लेकिन अपराधियों व भ्रष्टाचारियों को संरक्षण देने वाली पार्टी से हाथ मिलाने के बावजूद उनकी स्वच्छ छवि तथा भ्रष्टाचार से लड़ने की उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति उनको अंदर ही अंदर निरंतर आंदोलित करती रही। वह महागठबंधन से क्यों बाहर आए? महागठबंधन से उनके बाहर आने के पीछे कई कारण हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि अगर हम नीतीश के पूर्व के कथनों तथा राजनीतिक रुख का अध्ययन करें तो पाएंगे कि वह मोदी विरोधी थे, लेकिन भाजपा विरोधी नहीं क्योंकि उनके अपने पूर्व साझेदार सुशील मोदी से अच्छे समीकरण थे। मोदी के शानदार व्यक्तित्व और दृढ़ प्रतिबद्धताओं ने उन्हें अपनी स्वच्छ छवि के प्रति सचेत कर दिया। उन्हें इस बात का भी भय होने लगा था कि उनके सांप्रदायिक रुख को दक्षिणपंथी हिंदूवादी नेतृत्व से खतरा है।

उन्हें यह भी भय था कि पंथनिरपेक्षता को लेकर उन पर जो विश्वास है और मुसलमान वर्ग में उन्होंने जो पैठ बनाई है, वह खत्म हो जाएगी। लालू प्रसाद यादव, जिनसे वह पहले घृणा करते थे, के साथ उनका आना भी हैरानीजनक था। लेकिन मोदी से भय के कारण वह लालू प्रसाद यादव, जिन्हें अपनी देहाती छवि के कारण जन समर्थन हासिल है, की गोद में बैठ गए। अपने राजनीतिक जीवन से भ्रष्टाचार और अपराध के संबंध को लेकर लालू प्रसाद यादव को कोई पछतावा नहीं था। नीतीश इसके पक्ष में नहीं हो सकते थे, लेकिन मोदी को टक्कर देने के लिए उन्होंने समझौता कर लिया। इस अनुभव के साथ उनके दो वर्षों ने उन्हें संतोष नहीं दिया और उनकी अंतरात्मा जैसे बोलती रही कि उन्होंने अपनी छवि को कलंक लगा लिया है। अंततः अपने दागी साथियों से अलग होने के पीछे तीन घटनाक्रमों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। प्रथम, उन्हें जल्द ही दो साल बाद महसूस हो गया कि नरेंद्र मोदी मूलतः ईमानदार हैं और राष्ट्र हित के लिए समर्पित हैं। उन्हें महसूस हुआ कि मोदी मुसलमान विरोधी नहीं हैं और उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हिंदुत्व को नए संवैधानिक हिंदुत्व में बदल दिया है। उन्होंने हिंदुत्व का प्रयोग किया, लेकिन संविधान की प्रारूप सीमा के भीतर। साथ ही उन्होंने सभी धर्मों से एक जैसा व्यवहार किया। पूर्व में अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की जो नीति क्रियान्वित थी, उस दृष्टिकोण में व्यापक बदलाव आया और मोदी ने इस नीति को कूड़ेदान में फेंक दिया। उन्होंने ऐसे मुसलमानों को सम्मान दिया, जो भारतीय राष्ट्र तथा मूल्यों के लिए प्रतिबद्ध थे। मोदी का यह रुख नीतीश के लिए एक सांत्वना था, जिन्होंने मोदी की पंथनिरपेक्षता को सह-अस्तित्व के रूप में पाया। दूसरा बड़ा बदलाव तब आया, जब उन्होंने पाया कि मोदी पारदर्शिता तथा विकास के प्रति भी समान रूप से प्रतिबद्ध हैं। इसके प्रति नीतीश भी प्रतिबद्ध रहे हैं। उनकी सोच में बदलाव आने लगा और मोदी के प्रति सकारात्मक सोच के बदले उन्हें भी वैसी ही प्रशंसा मिलने लगी जब मोदी ने उनके शराबबंदी कार्यक्रम की तारीफ कर डाली। हमने भी देखा कि जो संबंध पहले कड़वाहट भरे हो गए थे, उनमें मधुरता आने के संकेत मिलने लगे थे। वास्तव में नीतीश ने स्वीकार किया है कि उन्होंने मोदी को समझने में चूक की तथा मोदी की सांप्रदायिक कार्रवाइयों को लेकर भी उन्होंने ऐसे अनुमान लगाए, जो घटनाएं हुई ही नहीं थीं। नीतीश ने नोटबंदी जैसे मोदी के साहसिक फैसलों की प्रशंसा की, जबकि अन्य विपक्षी नेताओं ने इसकी आलोचना की थी। वस्तु एवं सेवाकर अधिनियम (जीएसटी) के मामले में भी ऐसा ही हुआ। मोदी का यह कदम आर्थिक सुधारों की ओर ऐतिहासिक फैसला माना जाने लगा है। इन दोनों नेताओं के कई विषयों पर समान विचार देखे गए।

कइयों ने इसे स्वाभाविक परिवर्तन माना, लेकिन किसी को भी यह अंदाजा नहीं था कि यह इतना जल्दी और इस रूप में हो जाएगा। तीसरे घटनाक्रम ने इस बदलाव को और तेज गति दी। जांच एजेंसियों ने लालू परिवार के ठिकानों पर छापे मारे और इस परिवार के लगभग सभी परिजनों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज किए। इससे पूर्व सुशील मोदी ने लालू के पुत्रों, विशेषकर उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के खिलाफ काफी सबूत इकट्ठा कर लिए थे। तेजस्वी यादव ने मुख्यमंत्री को कोई संतोषजनक जवाब नहीं दिया तथा वह इस बात पर भी अड़ गए कि वह तब तक इस्तीफा नहीं देंगे, जब तक जांच एजेंसियां जांच का काम पूरा नहीं कर लेती। इससे लालू के साथ सत्ता बनाए रखने में नीतीश को संकोच हुआ और अंततः उन्होंने इस्तीफा देकर भाजपा के सहयोग से सरकार बना ली। इस परिवर्तन के भारत की राजनीतिक दृश्यावली पर व्यापक युगांतरकारी असर होंगे। नीतीश ने यह प्रतिस्थापित कर दिया है कि राष्ट्रीय राजनीति में उनका दो कारणों से महत्त्व है-एक यह कि वह सत्ता हासिल करते हैं, लेकिन अपने या परिवार के लिए नहीं बल्कि जनता के कल्याण के लिए। दूसरे, समुदाय विशेष पर आधारित पंथनिरपेक्षता को दोबारा परिभाषित कर उन्होंने सभी समुदायों को बराबर महत्त्व दिया है। एक तरह से वह अब मोदी के संवैधानिक हिंदुत्व के नजदीक हैं। इसमें किसी एक समुदाय का तुष्टीकरण नहीं होता है, बल्कि सबको समान महत्त्व मिलता है। भ्रष्टाचार की खुली छूट के रूप में पंथनिरपेक्षता स्वीकार्य नहीं हो सकती। त्वरित विकास करने तथा गरीबी हटाने के लिए पारदर्शिता मूल मंत्र के रूप में उभरी है।

बस स्टैंड

पहला यात्री : मुख्यमंत्री के साथ एकता दर्शाने के लिए सभी मंत्री दिल्ली क्यों नहीं जाते हैं?

दूसरा यात्री : वे जनपथ पर मटरगश्ती करने की अपेक्षा केक खाने को प्राथमिकता देते हैं।

ई-मेल : singhnk7@gmail.com

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