भगवा आतंक के सच-झूठ !

By: Aug 23rd, 2017 12:02 am

यह जीत और जश्न मनाने का वक्त और मौका नहीं है। किसी की जीत और दूसरे की हार नहीं हुई है। लेफ्टिनेंट कर्नल श्रीकांत पुरोहित को सुप्रीम कोर्ट ने जमानत दे दी है, जो अदालत और आरोपी का संवैधानिक अधिकार है। जिस शख्स ने आठ साल, आठ माह, बिना आरोपों और सबूतों के साबित हुए, जेल की अंधेरी कोठरियों में काटे हैं, उसका संदर्भ एक गंभीर सवाल है। ले. कर्नल पुरोहित का चरित्र हनन किया गया, सैन्य करियर बर्बादी के कगार पर ला खड़ा किया गया और उन्हें ‘हिंदू आतंकवाद’ करार दिया गया। आखिर वे न्यायिक, साक्ष्यपूर्ण और तार्किक आधार क्या थे कि एक सैन्य अफसर को ‘आतंकी’ करार दिया गया। तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने कांग्रेस के जयपुर चिंतन शिविर के दौरान ‘हिंदू या भगवा आतंकवाद’ का नाम लेते हुए बेहद गंभीर, लेकिन बेबुनियाद आरोप लगाया था कि संघ की शाखाओं में आतंकी तैयार किए जाते हैं। दावा था कि उनके पास पर्याप्त सबूत हैं। कर्नल पुरोहित, साध्वी प्रज्ञा ठाकुर, स्वामी असीमानंद के चेहरों पर ‘भगवा आतंकवाद’ पोत कर उन्हें जेल में बंद किया गया था। 29 सितंबर, 2008 को महाराष्ट्र के मालेगांव में दो विस्फोट हुए थे, जिनमें सात लोग मारे गए और करीब 100 घायल हुए थे। ले.कर्नल पुरोहित पर ऐसे आरोप मढ़े गए मानो उनसे बढ़कर देशद्रोही कोई और हो ही नहीं सकता! उन पर सेना के भंडारण से 70 किलो आरडीएक्स चुराने और उसमें से कुछ का मालेगांव के विस्फोटों में इस्तेमाल करने का जघन्य आरोप लगाया गया, जबकि पुरोहित अपना पक्ष बयां करते रहे हैं कि वह भारत सरकार और सेना के ‘मिलिट्री इंटेलीजेंस’ के आतंकवाद विरोधी अभियान में ड्यूटी कर रहे थे। इस हकीकत की पुष्टि सेना के 59 अफसरों ने भी की थी। सवाल है कि जांच एजेंसियों ने उसका संज्ञान क्यों नहीं लिया? सेना की ‘कोर्ट ऑफ इन्क्वायरी’ में भी उन्हें क्लीन चिट दे दी गई थी। यह प्रक्रिया अदालती कार्रवाही से भी कठिन और पेचीदा होती है। बहरहाल साध्वी प्रज्ञा को अप्रैल में बंबई हाई कोर्ट से जमानत मिल गई थी, जबकि पुरोहित की याचिका खारिज कर दी गई थी। अब ले.कर्नल पुरोहित को शीर्ष अदालत से न्याय मिला है। जमानत देना एक न्यायाधीश का विशेषाधिकार है, जिसे चुनौती नहीं दी जा सकती। इसकी व्याख्या यह नहीं की जा सकती कि मोदी सरकार अपने भगवा साथियों को ‘दोषमुक्त’ कराने में जुटी है। क्या ऐसे भी दिन आ गए हैं कि सुप्रीम कोर्ट भी केंद्र सरकार के नापाक इरादों में भागीदार बनने लगी है और सरकार के इशारों पर फैसले भी देने लगी है? यदि ऐसा है, तो देश में न्यायशीलता, तटस्थता और नैतिकता शेष ही नहीं रही हैं। जो इस मुद्दे पर सियासत कर रहे हैं, वे अपनी क्षुद्र हरकतें करते रहें, पर शीर्ष अदालत की पवित्रता को दागदार न करें। सवाल तो यूपीए सरकार के दौरान की जांच एजेंसियों पर उठने चाहिए कि आखिर आरोप-पत्र दाखिल करने में सालों कैसे लग गए? एटीएस और एनआईए के आरोप पत्रों में गंभीर विरोधाभास क्यों हैं? सुप्रीम कोर्ट की न्यायिक पीठ का भी मानना है कि इस विरोधाभास के कारण केस का फैसला आने में देरी हो सकती है, लिहाजा प्रथमद्रष्टया पुरोहित को जमानत मिलनी चाहिए। एटीएस ने मकोका और गैर कानूनी गतिविधि कानून लगाया, जबकि एनआईए ने मकोका हटा दिया था। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने तत्कालीन अमरीकी राजदूत से यह बात साझा क्यों की थी कि देश में ‘भगवा आतंकवाद’ से डर लगता है? क्या कांग्रेस ‘भगवा आतंकवाद’ की अपनी सोच और साजिश को बरकरार रखना चाहती थी, लिहाजा मामलों को लटकाया गया और मालेगांव के आरोपियों पर मकोका (टाडा जैसा कानून) चस्पां किया गया, ताकि उन्हें जमानत भी न मिल सके। ‘भगवा आतंकवाद’ पर संसद में खूब हंगामा हुआ था, लिहाजा गृह मंत्री शिंदे को अपने शब्द वापस लेने पड़े, लेकिन राहुल गांधी और चिदंबरम बराबर इन शब्दों का इस्तेमाल करते रहे। कर्नल पुरोहित पर ये आरोप भी लगाए गए कि उन्होंने सेना की खुफिया यूनिट में रहते हुए 2007 में ‘अभिनव भारत’ नामक संगठन बनाया, जिसका उद्देश्य भारत को ‘हिंदू राष्ट्र आर्यावर्त’ बनाना था। उसके लिए लोगों को गुरिल्ला युद्ध का प्रशिक्षण दिया गया और फैसला लिया कि जो भी उसके रास्ते में आएगा, उसे मार दिया जाएगा। बहरहाल ये आरोप भी खोखले साबित हुए। अब सुप्रीम कोर्ट से जमानत के बाद ले.कर्नल पुरोहित भी जेल से बाहर आ रहे हैं। अब उन्हें सेना में भी बहाल करके उनकी तैनाती हो सकती है और उन्हें पूरा वेतन मिल सकेगा। नतीजतन कांग्रेस नेतृत्व की यूपीए सरकार ने जो ‘हिंदू आतंकवाद’ का जुमला गढ़ा था, आज उसके सच और झूठ सामने हैं। यह देश तय करे कि झूठों को क्या सजा दी जानी चाहिए?

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