मातम के पहर में हादसा

By: Aug 14th, 2017 12:05 am

फिर प्रकृति की फटी छाती से हिमाचली अस्तित्व का रक्त बहने लगा और विनाश के उस पल ने हमसे हमारे रिश्ते छीन लिए। अचानक सफर मनहूस और गमगीन हो गया और प्रकृति के चौबारे पर आकर मौत बैठ गई। मंडी के उरला के पास सिर्फ एक पहाड़ी नहीं सरकी, बल्कि पचास यात्रियों की जिंदगी सरक गई। मातम के पहर में उनकी चीखों को न हमारी प्रगति सुन पाई और न ही जीवन की काली रात को चीरकर राहत की रोशनी पहुंच पाई। मानव के प्रति प्रकृति के कू्ररतम अध्याय में दर्ज होता यह हादसा, हिमाचल की त्रासदी है। बरसात ने आकाश की छत तोड़ कर यह कहर बरपाया है और जिसमें पीडि़त परिवारों के दर्द का एहसास करना मुश्किल है। पहले ही दो सौ के करीब हिमाचली इस बरसात में अपने जीवन की यात्रा गंवा चुके हैं, तो अब पहाड़ के विध्वंस ने यह आंकड़ा और भी तकलीफदेह मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया। घटनास्थल पर पता नहीं कब से मौत टहल रही थी या यमराज पहाड़ी पर खड़ा था, जो दरकते पहाड़ ने यात्रियों से भरी बस व अन्य वाहनों को अपने मातम में गायब कर दिया। वहां अभागी बस के ऊपर सवार पहाड़ और सफर के सपनों में मौत के आगेश में जो यात्री समाए, उनमें से सबसे अधिक चंबा जिला से और बाकी मनाली के रूट पर मंजिल के हर पड़ाव से सवार हुए लोगों में से हम पता नहीं कितनों को ढूंढ पाएंगे। इनका पता व परिचय दोनों ही मौत के जबड़ों में और प्रतीक्षारत सैकड़ों निगाहें। बुरी खबर की अनहोनी में कितने परिवार आंसुओं में डूबे या रिश्ते कफन ओढ़ कर सो गए, यह अंदाजा लगाना भी मर्म को चोटिल करता है। यह कल्पना से परे होगा, जब बस ने चंबा से मनाली का बोर्ड प्रदर्शित किया होगा, यात्रियों को यात्रा की शुभकामनाएं मिली होंगी या चालक-परिचालक ने गंतव्य की ओर प्रस्थान किया होगा। रात्रि हुए इस दर्दनाक हादसे की गवाह बनी मौत भी अपने वीभत्स रूप को देख भाग गई और तबसे अकेला मानव संसार इस दर्द को बांटने उरला के कोटरूपी में तैनात है। हिमाचल के इस सत्य को कबूल करती पीड़ा के दूसरी तरफ, प्रशासन ने राहत के संकल्प को चरितार्थ करते श्रम की निगरानी में बीड़ा उठाया है। समाज अपने सौहार्द और पुरुषार्थ के साथ उस काल की छाती के नीचे दबे संसार को ढूंढने में जुटा, तो जो बचे उन्हें मरहम लगाता स्वास्थ्य विभाग शिद्दत से उपचार में जुटा। विचित्र परिस्थितियों के बीच हादसे के अनेकों कारण, मगर जनता मलबे के नीचे उन्हें ढूंढ रही, जो पहले कभी देखे नहीं और जिनसे कोई रिश्ता नहीं। रोए वे भी, जो कोसों दूर हिमाचल की इस आपदा में अपने प्रदेश को समझते हैं। इसीलिए जनता राज्य के अलावा केंद्र सरकार के नरम हृदय का इंतजार करेगी। यह दीगर है कि हिमाचल में मैदान की तरह बाढ़ नहीं आती, लेकिन बादल के फटने से प्रदेश का कलेजा फटता है। प्रकृति का सीना जब टूटता है, तो हिमाचली जीवन का जीना दूभर हो जाता है। यहां राहत के तंबू देर से पहुंचते हैं या केंद्र का हिसाब भी टूटता है। पहाड़ में जीना एक मुश्किल विधा है और हम आदतन भी पहाड़ी हैं, इसलिए दर्द में भी अपने जिगर के टुकड़ों को बटोर कर फिर खड़े हो जाते हैं। कोटरूपी में फिर हिमाचली आपदा का खूंखार इतिहास लिखा जा रहा है, लेकिन मानवीय कशमकश के बीच पहाड़ की जिंदगी अपने चिन्ह बरकरार रखने का संघर्ष करते हुए यही प्रार्थना कर रही है कि फिर आसमान इस तरह कभी न टूटे। मानव न जाने कब से पर्वत को समझने की कोशिश कर रहा है और विज्ञान के ज्ञान में हमेशा पहाड़ का इजाफा होता है, लेकिन केंद्रीय सरकारों ने इन संदर्भों को स्थायी महत्त्व नहीं दिया। प्रधानमंत्री ने पूर्वोत्तर की बाढ़ के कारणों को समझने के लिए सौ करोड़ से जिस प्रकार अध्ययन व शोध को एक स्थायी केंद्र में विकसित करने का फैसला लिया, उसी तर्ज पर संसार के सबसे युवा व विकसित होते हिमाचली पहाड़ों के लिए भी एक अदद संस्थान की जरूरत है। हमारा विकास प्रायः कसूरवार बन जाता है, लेकिन दिशा-निर्देश, उपाय, शोध, संसाधन व तकनीक उस आधार पर विकसित नहीं होते। घटनास्थल पर खुद पहाड़ भी रो रहा होगा, क्योंकि हिमाचल में हिमालय की रक्षा में समाज भी एक बड़े नाते के रूप में जुड़ा रहा है, लेकिन विकरालता के मंजर में हम सिर्फ चेतावनियां ही चुन सकते हैं। फिर कहीं हिमाचल का आपदा प्रबंधन अपनी टूटी हड्डियों का परिचय दे रहा है। लाशों के बीच आपदा प्रबंधन भी मिल जाए तो खोज लेना, वरना रिहर्सल के दौर फिर फिसड्डी निकले।

विवाह प्रस्ताव की तलाश कर रहे हैं ? भारत मैट्रीमोनी में निःशुल्क रजिस्टर करें !

 


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App