मृत्यु के दूसरे या तीसरे दिन होता है अस्थि प्रवाह

By: Aug 2nd, 2017 12:05 am

शव दाह के बाद सिर के टुकड़े (जले टुकड़े) तथा अन्य अस्थियां चुनकर सफेद कपड़े में रखकर हरिद्वार में गंगा जी में प्रवाहित किए जाते हैं। अस्तु शब्द अस्थि से अपभ्रंश होकर बना है। अस्तु प्रवाह मृत्यु के दूसरे या तीसरे दिन किए जाने की परंपरा हिमाचल में प्रचलित है…

लोक संस्कृति में संस्कार

धर्म घट स्थाना (धर्मोड़ा) धरमेड़ा : घर आकर स्नान कर इस बीच घर को भी धोया जाता है। वस्त्रादि भी साफ किए जाते हैं। मिट्टी का लोटकू (लोटा) लेकर उसमें सुराख कर सफेद वस्त्र सुराख में लटकाकर पात्र को हरे पेड़ की टहनी से बांध दिया जाता है। उसमें दूध, तिल और जल रोज डाला जाता है। जल धारा के नीचे गोमय पर कुशा से प्रेत भावना कर स्थापित किया जाता है। इसे दशाह के ब्रह्म मुहूर्त में जलाशय के पास फोड़ दिया जाता है।

अस्तु प्रवाह : शव दाह के बाद सिर के टुकड़े (जले टुकड़े) तथा अन्य अस्थियां चुनकर सफेद कपड़े में रखकर हरिद्वार गंगा जी में प्रवाहित किए जाते हैं। अस्तु शब्द अस्थि से अपभ्रंश होकर बना है। अस्तु प्रवाह मृत्यु के दूसरे या तीसरे दिन किए जाने की परंपरा हिमाचल में प्रचलित है।

दशनान : दस दिन तक प्रतिदिन चावल को पकाकर या घी में भुने चावल के आटे को पीसकर दैनिक पिंड दान सायं को दीपदान धर्मघट में जलदान करने का विधान है। दसवें दिन दस भोजन का संकल्प करके आचार्य जिस चार्ज (ब्राह्मणों का एक वर्ग) जो क्रिया तक सभी दान, अंत्येष्टि दान ग्रहण करते हैं, को भोजन करवाया जाता है। सारे वस्त्र आदि धोए जाते हैं। क्षौर कार्य हजामत आदि किया जाता है, जो लोग हरिद्वार में एकादशाह करते हैं वे नवम दिन हरिद्वार जाकर दशम दिन दशाह करके ग्याहरवें दिन क्रिया करके वापस घर आते हैं।

पातक : मृत्यु के दिन से मरणाशैच आरंभ हो जाता है, जिसमें सारे शुभ कर्म, पूजा पाठ, संध्या, देव पूजनादि वर्जित होते हैं। भोजन में परिवार काले उड़द की दली दाल बिना हल्दी, बिना तड़के के 11 दिन प्रयोग करते हैं। कर्मकर्ता का भोजन पात्र अलग होता है। वह भूमि शयन, एक समय भोजन तथा शस्त्र औजारादि स्पर्श नहीं करता। दस दिन तक गरूड़ पुराण का पाठ सुनने की भी परंपरा है, जो पुरोहित सायंकाल को करता है। गरूड़ पुराण का पाठ इन्हीं दिनों में किया जाता है।

किरया : हिमाचल में किरया अधिकतर लोग गांव में ही किसी जलाशय या मंदिर के पास या फिर घर पर ही करवाते हैं। इसमें दो-तीन जानकार विद्वान पुरोहित मिलकर इसे संपन्न करवाते हैं। गांव के सब लोग किरया के पास बैठने आते हैं। इसमें नारायण बलि जिससे शास्त्रों से आए चौसठ दुर्मरणों की शांति होती है तथा सपिंडी श्राद्ध जिससे प्रेत को पूर्वजों के पिंडों में मिलाने से पितृ स्वरूप माना जाता है। इसी से पातक की निवृत्ति होती है, ऐसी मान्यता है। सपिंडी के बाद ही दाल या सब्जी में तड़का (झौंक) लगाने या हल्दी डालने का विधान है। सूतक के दिनों में बिना हल्दी की सब्जी खाने की परंपरा है।

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