‘मोदी हटाओ’ ही साझा विरासत !

By: Aug 19th, 2017 12:05 am

‘साझा विरासत बचाओ सम्मेलन’ के बैनर तले एक बार फिर विपक्षी जमावड़ा और एकता की कोशिशें…। ले-दे कर वही पुराने, पराजित और लुटे-पिटे, अंतर्विरोधी दलों की बैठक…। न तो कोई साझा एजेंडा और न ही कोई साझा न्यूनतम कार्यक्रम और सबसे बढ़कर कोई एक साझा चेहरा भी नहीं, जिसे चुनावी मैदान का नायक तय कर सियासी लड़ाई लड़ी और जीती जा सके। यहां तक कि राहुल गांधी तक के नाम पर एक लंबी खामोशी सामने आती रही है। यदि कोई साझा एजेंडा दिखता है, तो सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी हटाओ मुहिम…! दरअसल साझा विरासत का जुमला उछाला है शरद यादव ने, जो अपनी राजनीतिक प्रासंगिकता के लिए तड़प रहे हैं। उन्हें जद-यू से बाहर का रास्ता कभी भी दिखाया जा सकता है या वह अपना दल बनाने को बाध्य हो सकते हैं। शरद यादव वह चेहरा रहे हैं, जिन्हें जयप्रकाश नारायण ने विपक्षी एकता के उम्मीदवार के तौर पर पेश किया था और उन्होंने 1974 में जबलपुर (मध्य प्रदेश) का लोकसभा उपचुनाव जीत कर उदाहरण पेश किया था। वह विपक्षी एकता के प्रतीक बने और गैर कांग्रेसवाद की राजनीति का चेहरा बने। उन्हें जयप्रकाश की समाजवादी और जनवादी राजनीति का प्रतिनिधि माना गया। शरद जनता पार्टी और जनता दल में भी रहे और सत्ता की मलाई भी चाटते रहे। वह जॉर्ज फर्नांडीज के साथ भी रहे, लेकिन उन्होंने नीतीश कुमार के सहयोग से जॉर्ज और दिग्विजय सिंह को धोखा दिया और बुढि़याते जॉर्ज को एक तरफ धकेल कर खुद जद-यू के अध्यक्ष बन गए। वह कौन सी साझा विरासत थी? शरद आज भ्रष्ट लालू यादव के पांव पखारने को तैयार हैं और कांग्रेस की मांद में घुसे जा रहे हैं, तो यह कौन सी साझा विरासत है? बिहार में नीतीश कुमार ने दोबारा भाजपा से साथ साझा सरकार बना ली और महागठबंधन तार-तार हो गया, तो शरद यादव ने असंतोष में साझा विरासत का जुमला उछाला है। कौन सी साझा विरासत छिन गई शरद से..? उनकी साझा विरासत ही क्या है? वह खुद भाजपा नेतृत्व की एनडीए सरकार में कैबिनेट मंत्री रह चुके हैं। यही नहीं, जॉर्ज की अनुपस्थिति में वह एनडीए के संयोजक भी रहे। तब भाजपा ‘सांप्रदायिक’ नहीं लगी? बेशक शरद यादव के बुलावे पर एक दर्जन से अधिक दलों के नेता इकट्ठा हुए। सोनिया गांधी भी ऐसे प्रयास कर चुकी हैं। फिर भी कोई विपक्षी एकता आकार ग्रहण करती क्यों नहीं दिखती? वाम मोर्चा में सीपीएम सबसे बड़ा दल है। उसके पोलित ब्यूरो और केंद्रीय कमेटी ने किसी भी स्तर पर तृणमूल कांग्रेस के साथ तालमेल को नकार दिया है। यदि इसी स्तर पर प्रस्ताव लटक जाएगा, तो कमोबेश वाम राजनीति का सबसे बड़ा धड़ा किसी भी ‘साझा विरासत’ का हिस्सा नहीं बन सकता। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस का गठबंधन हुआ, तो 403 के सदन में सपा को 49 और कांग्रेस को मात्र सात सीटें ही नसीब हुईं। अब सपा और बसपा सरीखे धुर प्रतिद्वंद्वी दलों के गठबंधन की चर्चाएं जारी हैं। अभी मायावती और अखिलेश के बीच मुंहबोला तो हुआ नहीं है, परस्पर विरोधी गठबंधन को तैयार कैसे हो जाएंगे? अभी तो इसके भी स्पष्ट संकेत नहीं मिले हैं कि कांग्रेस और सीपीएम में भी समझौता होगा या नहीं? दोनों केरल में प्रतिद्वंद्वी पक्ष हैं। दरअसल विपक्षी एकता की कवायद कभी आसान नहीं रही। चूंकि आज प्रधानमंत्री पद का एक भी चेहरा विपक्षी खेमे में नहीं है, लिहाजा शरद खुद की दावेदारी की आजमाइश करना चाहते हैं। शरद अकेले चुनाव लड़ें, तो विधायक भी न चुनें जा सकें। जब भी बिहार में उन्होंने लालू को हराया है, तो भाजपा के सहयोग से लोकसभा चुनाव लड़ा था। दरअसल क्षेत्रीय, प्रादेशिक और जातीय आधार वाले दलों को एक ही बैनर तले लामबंद करना टेढ़ी खीर है। यह प्रयास उस दौर की याद दिलाता है, जब पूरा विपक्ष ‘इंदिरा हटाओ’ के नारे चिल्लाता था और चुनाव परिणाम में सिमटा सा सामने आता था। ऐसा ही जनादेश 2014 में मिला था, जब कांग्रेस इतना सिमट गई थी कि लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष  का दर्जा भी हासिल नहीं कर सकी। सिर्फ तृणमूल को छोड़ दें, तो कथित विपक्ष के दलों के दो-दो या चार-पांच सांसद ही लोकसभा में हैं। फिलहाल प्रधानमंत्री मोदी अपनी लोकप्रियता के चरम शिखर पर हैं। बीते दिनों कुछ सर्वे सामने आए हैं, जिनमें 2019 के आम चुनाव में भाजपा-एनडीए को 350 और उससे ज्यादा सीटों का आकलन किया गया है। ‘साझा विरासत’ इस लोकप्रियता को चुनौती कैसे देगी? सिर्फ सांप्रदायिकता, विभाजनकारी, देश को खतरे में डालने वाली, किसान-दलित विरोधी, संविधान को ही बदलने वाली ताकतें करार देकर भाजपा-संघ की राष्ट्रीयता को चुनौती नहीं दी जा सकती। दिल्ली में बैठे या राज्यों में बिखरे विपक्षी नेताओं और दलों की संपूर्ण ताकत और आभा को भी जोड़ लिया जाए, तो भी वे प्रधानमंत्री मोदी के मौजूदा राजनीतिक कद तक पहुंचने में असमर्थ होंगी। ऐसे में ‘साझा विरासत’ बेमानी होगी, क्योंकि उनका कोई भी मुद्दा नया और राष्ट्रीय स्वीकृति का नहीं है। विडंबना तो यह है कि अब भी देश राहुल गांधी को स्वीकार करने के मानस में नहीं है और कांग्रेस में उनका विकल्प हो नहीं सकता और कांग्रेस ही कथित ‘साझा विरासत’ की सबसे बड़ी पार्टी है, तो फिर सहमति किस बिंदु पर होगी? बहरहाल फिर भी आने वाले दिनों में विपक्षी एकता की कवायदों को देखते हैं कि उसकी दिशा और दशा क्या रहती है?

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