‘वंदे मातरम्’ किसी की वंदना नहीं…
यह देश की स्वतंत्रता का माहौल है। कल 15 अगस्त को प्रधानमंत्री मोदी लालकिले की प्राचीर से देश को संबोधित करेंगे और पूरा देश आजादी के जश्न और भाव में सराबोर होगा। राष्ट्रगीत ‘वंदे मातरम्’ या राष्ट्रगान ‘जन-गण-मन’ को गाने में जो मुसलमान, मुल्ले-मौलवी, जमातें विरोध पर तुली हैं, इनके गाने के खिलाफ फतवे जारी किए गए हैं, वे जरा आंखें मूंदकर आजादी से पहले के मंजर को भी याद करें। देश की 20 फीसदी आबादी भी साक्षर नहीं थी, औसत जीवन 32 साल का था, बीमारियों के सैलाब थे, गुलामी की बेडि़यां और अत्याचार थे। उस माहौल की पैदाइश हैं-वंदे मातरम् और जन-गण-मन! यह मातृभूमि के प्रति एक भाव है, किसी व्यक्ति की पूजा नहीं है। हम आज एक लोकतांत्रिक देश के नागरिक हैं, विभिन्न मजहबों और मान्यताओं के राष्ट्र हैं, विविधता ही हमारी खूबसूरती और साझा ताकत है, फिर कौन किस पर थोप सकता है कि यह गाओ और यह न गाओ। 1896 में पहली बार कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में वंदे मातरम् गाया गया, जिसकी अध्यक्षता एक मुस्लिम नेता ने ही की थी। क्या वह मुसलमान ‘काफिर’ हो गया था? 1923 में इसे ‘राष्ट्रगीत’ के तौर पर ग्रहण किया गया। तब भी कुछ मुसलमानों ने इसका विरोध किया था। नतीजतन जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया। उसमें सुभाष चंद्र बोस, मौलाना अबुल कलाम आजाद, नरेंद्र देव सरीखे दिग्गज नेताओं को शामिल किया गया था। सिर्फ यही उदाहरण पर्याप्त नहीं है। पाकिस्तान का पहला कौमी तराना एक हिंदू ने लिखा था, जो करीब 18 महीने तक वहां का राष्ट्रगान बना रहा। बांग्लादेश का राष्ट्रगीत ‘आमार सोनार बांग्ला…’ भी मातृभूमि की वंदना ही है। क्या वह इस्लामी देश नहीं रहा? हमारे राष्ट्रगीत को रवींद्रनाथ टैगोर ने स्वरबद्ध किया था। अरबिंदो घोष ने उसका अंग्रेजी में और पूर्व केंद्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खान ने उर्दू में अनुवाद किया था। क्या इससे बेहतर उदारता और समावेशी होने का उदाहरण मिल सकता है? इससे महान धर्मनिरपेक्षता और क्या होगी? अब आजादी के माहौल में इसे विवाद का मुद्दा बना लिया गया है। दलीलें सिर्फ ये हैं कि इस्लाम में किसी व्यक्ति की इबादत संभव ही नहीं है, अल्लाह के अलावा कोई और ‘भाग्यविधाता’ हो ही नहीं सकता। देशभक्ति का न तो कोई प्रमाण पत्र बांट रहा है और न ही ऐसा कोई कर सकता है। ये राष्ट्रगीत ऐसे हैं, जिन्हें संविधान और संसद द्वारा मान्यता प्राप्त है, जो एक नागरिक के भीतर देशभक्ति के भाव पैदा करते हैं। मद्रास हाई कोर्ट का जो निर्णय था, उसमें भी ये निर्देश हैं कि सोमवार और शुक्रवार को सभी स्कूलों और कालेजों में ‘वंदे मातरम्’ गाया और सुनाया जाए। अब निर्देश ऐसे आ रहे हैं कि सभी सरकारी दफ्तरों और प्राइवेट कंपनियों में भी इसे अनिवार्य किया जाए। फिर भी हाई कोर्ट का कहना था कि जो गाना न चाहें, उन पर थोपा न जाए, लेकिन मजहब के तौर पर इसका विरोध क्यों किया जा रहा है? जमायत-उलेमा-ए-हिंद और दारूल उलूम देवबंद ने फतवे जारी क्यों किए हैं? उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने आदेश जारी किए हैं कि मदरसों में 15 अगस्त के मौके पर तिरंगा फहराया गया है, ‘वंदे मातरम्’ और ‘जन-गण-मन’ गाया गया है, उसकी वीडियोग्राफी भी की जाए। ऐसा प्रस्ताव मुंबई की बीएमसी ने भी सर्वसम्मति से पारित किया था, लेकिन एमआईएम और राज ठाकरे की एमएनएस सरीखी पार्टियां भी विरोध ‘हिंदू-मुस्लिम’ के आधार पर क्यों कर रही हैं? मदरसों को केंद्र और राज्य सरकारों से करोड़ों रुपए की मदद मिलती रही है। यदि स्वतंत्रता दिवस पर एक साक्ष्य के तौर पर वीडियोग्राफी की जाए, तो कोई आपराधिक केस नहीं बनने जा रहा है। न किसी के मजहब और न ही मिल्लत पर कोई प्रहार है, यह राष्ट्र के प्रति एक सामूहिक भावना है। कमोबेश 15 अगस्त और 26 जनवरी के राष्ट्रीय अवसरों पर तो सांप्रदायिकता छोड़ कर इन राष्ट्रगीतों का गायन और प्रचार किया जाना चाहिए। जो लोग और राजनीतिक दल आजादी से पहले से चले आ रहे जयघोष ‘भारत माता की जय’ और ‘वंदे मातरम्’ सरीखे पवित्र नारों का राजनीतिकरण या मजहबीकरण कर उसका विरोध करते हैं, वे लोग कभी भी राष्ट्रहित में कोई कार्य नहीं कर सकते। ‘जन जागृति मंच’ की ओर से 13 अगस्त को ‘तिरंगा यात्रा’ में शामिल होने के लिए जालंधर पहुंचे शहीद मंगल पांडे के पड़पौत्र रघुनाथ पांडे और नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज के प्रथम कैप्टन फूल सिंह के पुत्र डीपी राघव आदि देशभक्तों ने ऐसा कहा। ध्यान रखना चाहिए कि यदि आज ओवैसी, वारिस पठान, अबु आजमी, मौलाना अंसार रजा आदि मुस्लिम चेहरे खुलकर बोल पाते हैं या राष्ट्रगीतों का विरोध कर पाते हैं, तो यह आजादी की बदौलत ही है। वे भी जानते हैं कि इन राष्ट्रगानों ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान प्रेरक की भूमिका किस तरह निभाई थी?
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