वीर भाव दिव्य भाव का हेतु है

By: Aug 19th, 2017 12:05 am

दिव्य भाव का साधक स्त्री जाति मात्र को महाशक्ति की मूर्ति समझता है। वेद, शास्त्र, गुरु, देवता और मंत्र में उसका दृढ़ ज्ञान है तथा शत्रु व मित्र में वह समान भाव वाला है। दूसरा भाव है वीर भाव। इस भाव में परिपूर्णता प्राप्त होने पर ही साधक दिव्य भाव में पहुंचते हैं। इसलिए वीर भाव दिव्य भाव का हेतु है, जो सब प्रकार के हिंसा कार्यों से रहित है…

साधना पर चिंतन के समय भावना पर सोच-विचार करना परम आवश्यक है। वास्तव में भावना के बिना साधना संभव ही नहीं है। भावचूड़ामणि, समयाचार, कुमारीतंत्र, ज्ञानदीप, विश्वसार, सर्वोल्लास, कामाख्या तंत्र, कुब्जिका तंत्र तथा रुद्रयामल इत्यादि ग्रंथों में तीन प्रकार के भाव बताए गए हैं। प्रथम भाव है दिव्य भाव। इस भाव में स्थित साधक विश्व और देवता में भेद नहीं देखता। दिव्य भाव का साधक स्त्री जाति मात्र को महाशक्ति की मूर्ति समझता है। वह अपने को देवतात्मक समझता है। वेद, शास्त्र, गुरु, देवता और मंत्र में उसका दृढ़ ज्ञान है तथा शत्रु व मित्र में वह समान भाव वाला है। दूसरा भाव है वीर भाव। इस भाव में परिपूर्णता प्राप्त होने पर ही साधक दिव्य भाव में पहुंचते हैं। इसलिए वीर भाव दिव्य भाव का हेतु है। जो सब प्रकार के हिंसा कार्यों से रहित है, सर्वदा सब जीवों के हित में रत रहता है, जिसने काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद पर विजय प्राप्त कर ली है, जो जितेंद्रीय है, वह वीर साधक है। तीसरा भाव पशु भाव है। इस भाव के साधक को अहिंसा-परायण तथा निरामिष भोजी होना होगा। ऋतुकाल के अलावा वह स्त्री का स्पर्श नहीं करता। यंत्रराज की साधना हो या पंचदशी की उपासना अथवा कुंडलिनी साधना, भावना की वहां मुख्य भूमिका है। इसलिए ‘पद्धति’ में सर्वत्र ‘भावयेत’ शब्द आता है। भावना के द्वारा ही भगवती सहज सुलभ हो सकती है। ‘भगवति भावना गम्या’, ललितासहस्रनाम का यह वचन है। वास्तव में तंत्रशास्त्र भावना के अभ्यास का मार्ग है। न्यास, भूतशुद्धि, अंतर्याग, कुंडलिनी योग, मंत्रजप आदि भावना का ही तो अभ्यास है। दान, गुरु पूजा, देव पूजा, नाम संकीर्तन, श्रवण, ध्यान, समाधि, योग, जप, तप, स्वाध्याय, सबका लक्ष्य मन को ही तो वश में करना है। तंत्र की यह विशेषता है कि वह भोग-प्रवण मन को बलपूर्वक अकस्मात धक्का देकर त्याग के मार्ग पर नहीं ठेलता, अपितु भोग के अंदर से ही मन को स्वाभाविक गति से मुख मोड़ देता है। अपने को जो व्यक्ति जैसा समझता है, वह वैसा ही बन जाता है। मन में बार-बार आने वाली बात विश्वास के रूप में बदल जाती है और अपने मन और शरीर के संबंध में जैसा जिसका विश्वास होता है, उसके लक्षण भी वैसे ही प्रकट होते हैं। जैसी जिसकी भावना होती है, वैसी ही सिद्धि  होती है। जो भी भावना हमारे मन में आती है, उसको यदि हमारे अंतर्मन की अवचेतन वृत्ति ग्रहण कर लेती है तो वह सत्वस्थ होकर हमारे जीवन की एक स्थायी वृत्ति हो जाती है। इसलिए भावना का महत्व बहुत अधिक होता है। भावना एक ठोस वास्तविकता है और उसका प्रभाव व परिणाम भी ठोस होता है। भावना को छूकर नहीं देखा जा सकता या आंखों से प्रत्यक्ष नहीं किया जा सकता। इस कारण बहुत से लोगों के लिए भावना मात्र एहसास है। अवश्य ही भाव का उदय और लय मन में होता है। भाव के बिना यंत्र-तंत्र निष्फल हैं। लक्ष-लक्ष वीर-साधनाओं से क्या लाभ? भाव के बिना पीठ-पूजन का क्या मूल्य है? कन्या-भोजन आदि से क्या होने वाला है? जितेंद्रीय भाव और कुलाचार कर्म का महत्व ही क्या है? यदि कुल परायण व्यक्ति भाव-विशुद्ध नहीं है, तो भाव से ही उसे मुक्ति मिलती है।

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