श्री विश्वकर्मा पुराण

By: Aug 19th, 2017 12:05 am

विश्वकर्मा अपनी रची हुई सृष्टि के किसी भी जीव को इस समारोह से वंचित नहीं रखना चाहते थे। इससे उन्होंने सृष्टि के सभी जीवों को निमंत्रण भेजा। इस निमंत्रण को पाकर असंख्य जीवात्माओं के टोल के टोल रात और दिन आने लगे। भगवान की आज्ञा से आने वाले इन सबका स्वागत भी बहुत ही अच्छी प्रकार से हो रहा था…

इस कार्य में आपकी तथा आपके पुत्र की सहमति लेने के लिए प्रभु ने हमको आपके पास भेजा है, इसलिए प्रभु की इच्छा समझकर आप योग्य उत्तर देने की कृपा करो। प्रभु की इस मांग को कश्यप ने हसंते हुए स्वीकार कर लिया तथा उत्तम मुहूर्त में बृहस्पति ने सूर्यनारायण तथा रत्नादेवी का बागदान विधिपूर्वक कर दिया। इसके बाद वह कश्यप को विवाह मुहर्त बताकर वहां से वापस इलाचल पर आए। उनके जाने के बाद कश्यप मुनि भी अपने पुत्र के विवाह की धूमधाम से सब व्यवस्था करने में लग गए। समस्त जगत को प्रकाश देने वाले सूर्य नारायण की किरणों से ही जल की गति होती है और वह जल प्रकाश के संयोग से पृथ्वी स्वयं ग्रहण किए हुए बीज को अनेक गुना करके वापस देती है। ऐसे प्रखर प्रभाव वाले तथा प्राणी मात्र के जीवन स्वरूप तथा रात और दिन रूपी अनेक नामों से गिने जाने वाले काल का प्रत्येक छोटे भागों का भी नियंत्रण करने वाले ऐसे सूर्य नारायण का इलाचल के ऊपर रह रहे श्री विश्वकर्मा की मानस पुत्री के साथ होने वाले लगन की बात, देखते-देखते सारी सृष्टि के कोने-कोने में फैल गई। कश्यप की तरफ से तथा विश्वकर्मा की तरफ से लगन में आए आमंत्रण मिलते ही सारी सृष्टि के जीव अद्भुत समारोह में भाग लेने के लिए इलाचल की तरफ जाने लगे। विश्वकर्मा अपनी रची हुई सृष्टि के किसी भी जीव को इस समारोह से वंचित नहीं रखना चाहते थे। इससे उन्होंने सृष्टि के सभी जीवों को निमंत्रण भेजा। इस निमंत्रण को पाकर असंख्य जीवात्माओं के टोल के टोल रात और दिन आने लगे। भगवान की आज्ञा से आने वाले इन सबका स्वागत भी बहुत ही अच्छी प्रकार से हो रहा था। कहीं किसी प्रकार की कमी न थी, जिसको जो कुछ भी चाहिए वह सब सामान मिल रहा था। निरंतर इलाचल की तरफ जाते हुए जीवों को देखकर प्रभु विश्वकर्मा के पुत्रों को चिंता होती कि इस इतने छोटे इलाचल के ऊपर सब मानव तथा सजीव और निर्जीव सृष्टि किस तरह रह सकेगी। जैसे-जैसे मनुष्यों की संख्या बढ़ने लगी, ऐसे ही इलाचल की काया भी वृद्धि को पाने लगी। इस तरह प्रभु की कृपा से वहां आने वाले हर किसी के लिए उत्तम व्यवस्था की गई। देव, मानव, यक्ष, गंधर्व, किन्नर, पन्नग, नाग, सुपर्ण, पित, अप्सरा, चरण, सिद्ध, ऋषि, मुनि तथा अनेक पशु, पक्षी कीट तथा पर्व नदी, समुद्र तीर्थ वगैरा तमाम स्थावर जंगम सृष्टि के लिए इलाचल के ऊपर छोटे-बड़े अनेक अलग-अलग निवास स्थानों की कल्पना करने में आए। इसके बाद हर एक को योग्य स्थान में ले जाकर उनका योग्य सत्कार किया गया। नित्य नवीन मिठाई तथा उपहारों से उन अतिथियों का सत्कार किया जाता था। समस्त जगत में प्रकाश को फैलाने वाले ऐसे तेजनिधि सूर्य नारायण ने अपना अति प्रकाशित ऐसा वह स्वरूप जहां था, वहीं रखकर अपनी एक मात्र कला से दूसरा स्वरूप धारण किया तथा माता-पिता को प्रणाम करके उनका आशीर्वाद लेकर उन्होंने भी लगन में जाने के लिए तैयारी की। उत्तम सुगंधी वाले तेल वगैरह का शरीर में लेप करके उन्होंने स्नान किया।

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