संन्यासी और गृहस्थ

By: Aug 19th, 2017 12:05 am

स्वामी विवेकानंद

गतांक से आगे…

संन्यासी शब्द का अर्थ समझाते हुए, अमरीका के बोस्टन नगर में स्वामी जी ने अपने एक व्याख्यान के सिलसिले में कहा, मनुष्य जिस स्थिति में पैदा हुआ है, उसके कर्त्तव्य जब वह पूरे कर लेता है, जब उसकी आकांक्षाएं सांसारिक सुख-भोग, धन संपत्ति, नाम,यश, अधिकार आदि को ठुकराकर उसे आध्यात्मिक जीवन की खोज में पे्ररित करती हैं और जब संसार के स्वभाव में पैनी दृष्टि डालकर वह समझ जाता है कि यह जगत क्षणभंगुर है, दुःख तथा झगड़ों से भरा हुआ है और इसके आनंद तथा भोग तुच्छ हैं, तब वह इन सबसे मुख मोड़कर शाश्वत प्रेम तथा चिरंतन आश्रयस्वरूप उस सत्य को ढूंढने लगता है। वह समस्त सांसारिक अधिकारों, यश, संपदा से पूर्ण संन्यास ले लेता है और आत्मोत्सर्ग करके आध्यात्मिकता को निरंतर ढूंढता हुआ प्रेम, दया तप और खोज से ज्ञानरूपी रत्न को पाकर वह भी पर्याय क्रम से स्वयं गुरु बन जाता है और फिर शिष्यों,गृही तथा त्यागियों में उस ज्ञान का संचार कर देता है। संन्यासी का कोई मत या संप्रदाय नहीं हो सकता, क्योंकि उसका जीवन स्वतंत्र विचार का होता है, और वह सभी मत-मतांतरों से उनकी अच्छाइयां ग्रहण करता है। उसका जीवन साक्षात्कार का होता है, न कि केवल सिद्धांतों अथवा विश्वासों का और रूढि़यों का तो बिलकुल ही नहीं।

संन्यासी के कर्त्तव्य

संन्यासियों के कार्यों पर संसारी लोगों का कुछ भी प्रभाव नहीं होना चाहिए। संन्यासी का धनी लोगों से कोई वास्ता नहीं, उसका कर्त्तव्य तो गरीबों के प्रति होता है। उसे निर्धनों के साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार करना चाहिए और अपनी समस्त शक्ति लगाकर सहर्ष उनकी सेवा करनी चाहिए। धनिकों का आदर, सत्कार करना और आश्रय के लिए उनका मुंह ताकना यह हमारे देश के सभी संन्यासी संप्रदायों के लिए अभिशाप स्वरूप रहा है। सच्चे संन्यासी को इस बात में बड़ा सावधान रहना चाहिए और इससे बिलकुल बचकर रहना चाहिए। इस प्रकार का व्यवहार तो वेश्याओं के लिए ही उचित है, न कि संसार त्यागी संन्यासी के लिए। कामिनी-कांचन में डूबा व्यक्ति उनका भक्त कैसे हो सकता है, जिनके जीवन का मुख्य आदर्श कामिनी-कांचन त्याग है? श्री रामकृष्ण तो रो -रोकर जगन्माता से प्रार्थना किया करते थे, मां मेरे पास बात करने के लिए एक तो ऐसा भेज दो, जिसमें काम-कांचन का लेश मात्र भी न हो। संसारी लोगों से बातें करने में मेरा मुंह जलने लगता है। वे यह भी कहा करते थे, मुझे अपवित्र और विषय लोगों का स्पर्श तक सहन नहीं हो सकता। ऐसे लोग कभी भी पूर्ण रूप रूप में सच्चे नहीं हो सकते, क्योंकि उनके कार्यों में कुछ न कुछ स्वार्थ रहता ही है। यदि स्वयं भगवान भी गृहस्थ के रूप में अवतीर्ण हों, तो मैं उसे भी सच्च न समझ सकूंगा। जब कोई गृहस्थ किसी धार्मिक संप्रदाय के नेता पद पर प्रतिष्ठित हो जाता है तो वह आदर्श की ओट में अपना ही स्वार्थ साधन करने लगता है।

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