समाज का राजनीतिक बर्ताव

By: Aug 12th, 2017 12:02 am

क्या वाकई हिमाचली समाज केवल सियासी बैसाखियों पर ही चलेगा, यह सवाल हर चुनाव से पहले और नई सरकारों के गठन पर पूछा जाना चाहिए। अब सामाजिक आंदोलनों का राजनीतिक महत्त्व बढ़ने लगा है, जबकि पहले सियासत ने ही समाज को इन रास्तों पर अपनी पहचान का अलग अंदाज बताया। अगर ऐसा न होता तो सोशल इंजीनियरिंग करते विजय सिंह मनकोटिया क्यों बसपा का दामन थामते। यह दीगर है कि हिमाचली राजनीति ने इसे घोर अपराध तब माना, जब समाज ने मनकोटिया को प्रदेश के अनुसूचित जातीय वर्ग का आधार नहीं चुनने दिया। इसका यह कतई अर्थ नहीं कि मेजर अप्रासंगिक हो गए, क्योंकि राजपूत राजनीति में उनका चेहरा मुख्यमंत्री तक को ललकार सकता है और इन लहरों पर परिवहन मंत्री जीएस बाली अपनी नाव डाल कर मुआयना कर लेते हैं। जातीय राजनीति का जो पाठ्यक्रम बाली तैयार करते हैं उसे अगर तमाम नेता पढ़ें, तो मालूम होगा कि समाज के बीच राजनीति का समर और संतुलन क्या होता है। लगातार नगरोटा बगवां से प्रतिनिधित्व करते हुए बाली के मुकाबले न कोई वर्ग विशेष है और न ही विपक्षी भाजपा के पास कोई उपयुक्त उम्मीदवार। यह भी तब जब यह इलाका ओबीसी बहुल और बाली के रूप में एक विशुद्ध ब्राह्मण के सियासी जीवन की महत्त्वाकांक्षा का अखाड़ा बनता है। यहां समाज के बीच राजनीति ढूंढें या राजनीति के बीच समाज, बाली ने जातीय राजनीति को अपने प्रदर्शन के सक्रिय विकल्प दिए, जो अभी तक सफल रहे। ऐसे में समाज गैर जातिवादी तो हो सकता है, लेकिन गैर राजनीतिक होगा, असंभव है। अगर अराजनीतिक तरीके से नगरोटा बगवां का चौधरी समाज एकजुट होता, तो भाजपा के पक्ष में माहौल होता क्योंकि पार्टी ने तो हमेशा ओबीसी उम्मीदवार ही खोजा। इसका अर्थ यह भी है कि समाज की राजनीतिक सोच का मोहरा सजातीय होने के बजाय जातीय महत्त्वाकांक्षा को समझने लगा है। कांगड़ा विधानसभा क्षेत्र को अगर जातीय संख्या के आधार पर देखें, तो चौधरी उम्मीदवार ही हमेशा जीता, लेकिन समाज ने अपने ढंग से विकल्प चुनते हुए यह संदेश भी दिया कि कोई एक नेता जाति को जागीर न समझे। यही वजह है कि यहां समाज ने विचारधारा से अलग करते हुए समाज को ऐसी कार्यशाला में तबदील किया, जो हर बार नए राजनीतिक समीकरणों में परिभाषित होता है। जहां मतदाता एक समुदाय की परसेप्शन बन जाते हैं, वहां राजनीतिक दल भी पूरे समाज को नहीं पढ़ पाते। यही वजह है कि प्रदेश के कई विधानसभा क्षेत्रों में उम्मीदवार की योग्यता में जाति या वर्ग चिन्हित है। पांवटा साहिब से कांगड़ा या शिलाई से शिमला तक राजनीतिक परसेप्शन के आधार पर समाज को नेतृत्व देने के लिए ढांचा स्थायी तौर पर ऐसा बन रहा है कि विधानसभा क्षेत्र की खासी जनता हाशिए के बाहर चली जाती है और कोई एक जाति या वर्ग उम्मीदवार बने रहने का विशेषाधिकार पा जाता है। हालांकि शाह-मोदी के नेतृत्व में यह जोखिम उठाया जा रहा है कि राज्यों में परंपरागत जातियों के नेताओं को अलग करके, कमान अन्य समुदाय को दी जाए, ताकि सुशासन की भागीदारी में पिछले समीकरण टूट जाएं। महाराष्ट्र और हरियाणा के प्रयोग इस बार भाजपा को किस मुकाम तक ले जाते हैं, यह हिमाचली समाज का नया राजनीतिक हिसाब भी हो सकता है। भाजपा ने सत्ता की दौड़ के साथ सामाजिक परसेप्शन बदलती राजनीति को भी बल दिया है और इस लिहाज से हिमाचली नेतृत्व के रहस्य को समझना होगा। हिमाचल के भौगोलिक कारणों से राजनीति व समाज के अर्थ भी बदलते रहे हैं और इसी से निकलती आकांक्षा नए जिलों का नारा बुलंद करती है या सरकारें बिना मांगे ग्रामीण स्तर तक कालेज या तहसीलों का विस्तार कर लेती हैं। हिमाचल की जनजातीय तस्वीर विधानसभा क्षेत्रों की अमानत बन चुकी है, तो विभिन्न जातीय आधार पर प्रदेश बंट चुका है, फिर भी असमानता का एक राजनीतिक उदाहरण पांगी-भरमौर की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा में देखना होगा। अमूमन भरमौर क्षेत्र के उम्मीदवार का चयन इसी भौगोलिक आधार पर होता है, क्योंकि दो भागों में बंटे विधानसभा क्षेत्र में जनसंख्या अनुपात में गद्दी समुदाय जीत जाता है और पांगी स्व प्रतिनिधित्व नहीं चुन पाता। धर्मशाला विधानसभा के वैश्विक समाज के बीच गद्दी समुदाय को प्राथमिकता मिलने का आधार भी भूगोल की तरह है, जबकि हकीकत में यहां गोरखा समुदाय की उपस्थिति तथा चौधरी मतदाताओं की आबादी अन्य पर भारी पड़ती है। हालांकि यह मानना पड़ेगा कि जातीय राजनीति के बाहर एक बड़ा समाज एकत्रित हो रहा है। यह वही समाज है, जो सत महाजन को बार-बार नूरपुर का ताज पहनाता रहा और मौजूदा दौर में उनके बेटे अजय महाजन को अल्पसंख्यक नहीं मानता। यही समाज जब डा. राजीव बिंदल की स्वीकार्यता को सोलन के पश्चात नाहन में स्थापित करता है या जातीय समीकरणों के बाहर शहरी आवास मंत्री सुधीर शर्मा को धर्मशाला का नेतृत्व मिलता है तो समाज संगठित होता है। पालमपुर विधानसभा क्षेत्र से सूद उम्मीदवारों का लगातार जीतना इस बात को तसदीक करता है कि जातियों से ऊपर राजनीतिक क्षमता का उद्गार समय की पृष्ठभूमि को रेखांकित करता है। बावजूद इसके राजनीतिक बिछोने पर बैठे समाज की मूल भावना भी सामाजिक प्रवृत्ति में बड़े उद्देश्यों  की गणना करने के बजाय सियासी जागीर की स्थापना में कहीं अधिक रुचि ले रही है।

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