साहित्य का लोक संस्कृति को नमन

By: Aug 20th, 2017 12:05 am

पुस्तक समीक्षा

पत्रिका का नाम : साहित्य अमृत (मासिक)

विशेषांक : लोक संस्कृति

संपादक : त्रिलोकी नाथ चतुर्वेदी

मूल्य : मात्र 30 रुपए

प्रकाशन स्थल : 4/19, आसफ अली रोड,

नई दिल्ली-2

 अगस्त 1995 में सुप्रसिद्ध विद्वान एवं साहित्यकार स्व. पं. विद्यानिवास मिश्र के संपादकत्व में प्रारंभ हुई साहित्यिक मासिक पत्रिका ‘साहित्य अमृत’ ने अपने प्रकाशन के गौरवशाली 22 वर्ष पूरे कर लिए हैं। इस कालखंड में नियमित रूप से पाठकों को श्रेष्ठ एवं सृजनात्मक साहित्य उपलब्ध कराते हुए पत्रिका के अनेक विशेषांक प्रकाशित हुए जो खूब चर्चित एवं लोकप्रिय हुए। इस समृद्ध परंपरा को आगे बढ़ाते हुए पत्रिका ने अगस्त 2017 का अंक ‘लोक संस्कृति विशेषांक’ के रूप में प्रकाशित किया है। यह एक तरह साहित्य का लोक संस्कृति को नमन है। जैसा कि सभी जानते हैं कि साहित्य का संस्कृति, विशेषकर लोक संस्कृति से गहरा नाता रहा है। लोक संस्कृति के बिना साहित्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती। साहित्यिक लेखन एवं मीमांसा में लोक संस्कृति एक प्रिय विषय रही है। यह साहित्य का वैचारिक तत्व एवं कला पक्ष दोनों हैं। लोक संस्कृति के इसी महत्व को समझते हुए मासिक पत्रिका साहित्य अमृत ने इस बार अपने विशेषांक में इस विषय को उसकी समग्रता के साथ छूने की सफल कोशिश की है। पत्रिका में त्रिलोकीनाथ चतुर्वेदी के संपादकीय के अलावा भारतीय संस्कृति में लोक की प्रतिष्ठा को दर्शाता मुख्य आलेख पं. विद्यानिवास मिश्र ने लिखा है। इसके अलावा कृष्ण गोपाल, मृदुला सिन्हा, सुरेश गौतम, नंद किशोर पांडेय, विजयदत्त श्रीधर, मालिनी अवस्थी, पुष्पिता अवस्थी, नर्मदा प्रसाद उपाध्याय, बलवंत जानी, रमेश तिवारी और व्यास मणि त्रिपाठी के आलेख लोक संस्कृति का सांगोपांग विश्लेषण करते हुए इसके विविध पहलुओं तथा आयामों को छूते हैं। कुल 268 पृष्ठों के इस विशेषांक में अन्य लेखकों के आलेख भी शामिल किए गए हैं जो विविध प्रदेशों तथा भारतीय समुदायों की लोक संस्कृति की झलक पेश करते हैं। पाठक  इस विशेषांक को पढ़कर जहां लोक संस्कृति के विविध वैचारिक पक्षों को जान सकता है, वहीं वह अलग-अलग क्षेत्रों की संस्कृति की छटा देखकर अभिभूत हुए बिना नहीं रह सकता। भारतीय संस्कृति में लोक की प्रतिष्ठा नामक आलेख में लेखक ने प्रसिद्ध कवि कबीर की मिसाल पेश करते हुए उनकी रचनाओं में लोक संस्कृति की बहुलता दर्शाई है। साथ ही इसमें कहा गया है कि संस्कृति में निरंतर परिवर्तन की संभावना बनी रहती है जो इसके अस्तित्व के लिए जरूरी भी है। भारतीय कला और संस्कृति नामक आलेख में सभ्यता व संस्कृति के संबंध, कला, कलाकार, नाट्य व नृत्य आदि विषयों पर कलम चलाई गई है। मृदुला सिन्हा के आलेख में यह बखूबी प्रतिस्थापित हुआ है कि देश की संस्कृति वास्तव में लोक संस्कृति ही तो है। कन्नौज का सांस्कृतिक वैभव जहां विशेषांक को रंगीन बना देता है, वहीं लोक संस्कृति में विज्ञान नामक आलेख दर्शाता है कि ज्ञान परंपरा का विकास भारत से ही होता है। प्राचीन काल में यह भारत के ही मनीषी थे जिन्होंने कई ऐसे विषयों पर चिंतन शुरू कर दिया था जो आज भारत के साथ-साथ पूरे विश्व के लिए विकराल बने हुए हैं। पानी पर चिंतन की परंपरा, जो भारत से शुरू हुई, इसका उत्तम उदाहरण है। इसके अलावा भोजपुरी गीत और अंडेमान की संस्कृति एक तरह से धरती से आकाश तक की सांस्कृतिक परिक्रमा करवाते हैं। भारतवंशियों की वैश्विक लोक संस्कृति नामक आलेख में विश्व पटल पर हमारी संस्कृति के आच्छादित होने की कहानी बताई गई है, वहीं इसमें कहा गया है कि विदेशों में गए भारतीय आज भी खुद को अपनी संस्कृति में जिंदा रखे हुए हैं और भारतीय संस्कारों की कद्र पूरा विश्व करता है। इसके अलावा नर्मदा प्रसाद उपाध्याय के आलेख में दर्शाया गया है कि किस तरह भारतीय चित्रकला में भी लोक चित्रण को विशेष स्थान दिया गया है। आरंभ की चित्रकला के विषय जहां दरबार केंद्रित व शिकार केंद्रित हैं, वहीं आधुनिक काल आते-आते भारतीय चित्रकला आम आदमी को विभूषित करती प्रतीत होती है।  इस आलेख में चित्रकला की विविध शैलियों, जैसे कांगड़ा कलम, चंबा कलम, गुलेर कलम और जसरोटा कलम का भी विशेष महत्व दर्शनीय है। विभिन्न प्रदेशों व समुदायों की लोक संस्कृति का प्रसार, उनका महत्व तथा विकास गाथा को भी इस विशेषांक में बखूबी दर्शाया गया है। विशेषांक में विविध रंग भरती संस्कृतियां पठन के दौरान आंखों के सामने एक तरह से सजीव हो उठती हैं। भारतीय संस्कृति के विविध रंग विशेषांक को सचमुच ही बहुरंगी बना देते हैं। इस अंक को पढ़कर पाठक जहां वैचारिक दृष्टि से सबल होगा, वहीं कलात्मक पक्ष उसे जरूर आह्लादित करेगा। मात्र तीस रुपए में इतना कुछ करना वाकई कमाल की बात है।

-फीचर डेस्क

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