देश की प्रतिष्ठा है बेटी : मीना

By: Sep 10th, 2017 12:12 am

NEWSमहिला सशक्तिकरण और हौसलों की जीती जागती मिसाल मंडी की मीना चंदेल हैं। जिन्होंने न सिर्फ अपनी जिंदगी से जंग लड़ी, बल्कि समाज और अपनी मजबूरियों से लोहा लेते हुए सारी दुनियां के लिए एक नया उदाहरण पेश किया है। मीना चंदेल के इन्ही हौसलों को अब राष्ट्रपति से सम्मान मिला है। 2008 में कन्या सीसे स्कूल मंडी की रसोई में आग लगने के बाद अपनी जान की परवाह किए बिना मीना चंदेल ने आग लगे सिलेंडर को स्कूल से बाहर निकाल कर अढ़ाई सौ बच्चों की जान बचा ली थी। इस हादसे में मीना चंदेल घायल भी हो गई थीं और शरीर के अंदर गैस चले जाने के कारण एक साल तक बीमार भी रही। उनकी इसी बहादुरी के लिए इस बार शिक्षक दिवस पर उन्हें राष्ट्रपति के हाथों राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है। हालांकि मीना चंदेल का अपना पूरा जीवन ही उपलब्धियों और संघर्ष से भरा है। मात्र 18 वर्ष में ही शादी हो जाने के कारण परिवार की तमाम जिम्मेदारियां सिर पर आने के बाद भी मीना चंदेल ने उस समय अपनी उच्च शिक्षा पूरी की, जब लड़कियों को समाज में ज्यादा पढ़ाया लिखाया नहीं जाता था। मीना चंदेल ने सुसराल में रहकर अपनी उच्च शिक्षा पूरी की और फिर अध्यापिका बन कर अपने सपनों को पूरा कर लिया। मीना चंदेल की तीन बेटियां हैं। जिन्हें उच्च शिक्षा दिला और एक मुकाम पर पहुंचा मीना चंदेल ने ‘बेटी है अनमोल’ की कहावत को सच में सिद्ध कर दिखाया है। मीना की एक बेटी कविता चंदेल डाक्टर बन चुकी हैं तो वहीं डोली और प्रियंका इंजीनियर बन चुकी हैं। मीना के पति प्रकाश चंदेल डाक विभाग में कार्यरत्त हैं। वहीं मीना वर्तमान में आदर्श कन्या स्कूल मंडी में टीजीटी के पद पर कार्यरत्त हैं। मीना  को इससे पहले 2015 में शिक्षक दिवस पर राज्य स्तरीय पुरस्कार से भी नवाजा जा चुका है। इसके साथ ही जिला प्रशासन और कई अन्य सामाजिक संगठन भी मीना को सम्मानित कर चुके हैं।

18 साल की उम्र में ही हो गई थी शादी

रंधाड़ा में स्वर्गीय धनी राम व हीमा देवी के घर 28 फरवरी, 1968 में पैदा हुई मीना चंदेल की दसवीं कक्षा तक पढ़ाई मिडल स्कूल पैड़ी से होने के बाद आईटीआई का डिप्लोमा करते हुए मात्र 18 वर्ष की उम्र में शादी हो गई थी। शादी के बाद मीना चंदेल ने आईटीआई का डिप्लोमा पूरा किया। उसके बाद अगले कुछ वर्षों में उन्होंने तीन बेटियों को जन्म दिया। इसी दौरान उनका चयन सिलाई अध्यापिका के रूप में भी हो गया, लेकिन सिलाई अध्यापिका बनने के बाद भी मीना के अंदर पढ़ने की ललक नहीं रुकी। 1988 में क्राफ्ट टीचर के रूप में शिक्षा विभाग में नियुक्ति मिलने के बाद भी मीना ने अपनी आगे की पढ़ाई जारी रखी और इग्नू के माध्यम से ग्रेज्जुशन की। फिर हिमाचल प्रदेश विश्व विद्यालय से बीएड और इग्नू से ही उन्होंने एमए हिंदी की डिग्री भी ली। इसके बाद 2007 में  और उन्हें टीजीटी के पद पर नियुक्ति मिली। वर्तमान में मीना एनसीसी की फर्स्ट आफिसर भी हैं।

स्कूल के बाद होती है समाज सेवा

मीना कई सामाजिक संगठनों से जुड़ी हुई हैं। मैगल गौ सदन, अनाथ आश्रम, मेरी लाड़ली मुहिम और अन्य ऐसे कार्यक्रमों में उनका योगदान रहता है। एनसीसी के माध्यम से वह बेटियों को सशक्त बनाने में लगी हुई हैं। उनकी छात्राएं 15 अगस्त व 26 जनवरी को होने वाली राष्ट्रीय परेड में भाग ले चुकी हैं। मीना स्कूल के बाद अकसर जरूरतमंद लोगों की सेवा करती हैं। स्कूल न जाने वाले बच्चों और अनाथ बच्चों की तलाश कर स्कूल तक पहुंचाना उनके मुख्य कार्यों में शामिल है।

-अमन अग्निहोत्री, मंडी

मुलाकात

बेटियों के बिना घर मकान से ज्यादा कुछ नहीं….

संघर्ष के बिना जीवन को लिखना आसान है या कठिन संदर्भों में खुद को पाना?

NEWSसंघर्ष से ही इनसान को अपनी पहचान होती है। 18 वर्ष की आयु में ही शादी हो गई और फिर संघर्ष शुरू। इसके बाद जो भी मिला वह सब संघर्ष का ही नतीजा है, लेकिन जब मन में समाज सेवा और दूसरों के लिए कुछ करने की भावना पैदा होने लगी तो जीवन का असली मकसद भी समझ आने लगा। जब नौंवी कक्षा में पढ़ती थी तो उस समय भी मेरी ऐसी कई सहेलियां थीं, जिनसे कोई बात नहीं करना चाहता था, लेकिन मैंने उनकी अक्षमता को न देख उनसे दोस्ती की। शायद वहीं से ही दूसरों के लिए कुछ करने का अंकुर मन में पैदा हुआ। जीवन में जब भी ऐसी कोई खुशी मिली, तो यही लगा कि मैं असल में कुछ कर रही हूं।

जीवन में जो पाया, उसमें निखार कब आया?

यह बड़ा दुखद है और यह सब सदियों से यूं ही होता आ रहा है। हम कुछ भी कर लें, लेकिन उसकी अहमियत कोई नहीं है। हमारे साथ किसका नाम जुड़ा है, इस पर ज्यादा खोजबीन होती है। यह सब गलत है। आज ही क्यों उस समय की भी महिलाओं ने अपनी अलग पहचान बनाई। अपने गांव से मैं पहली ऐसी लड़की थी, जिसने उस समय दसवीं कक्षा पास की थी और फिर उच्च शिक्षा भी प्राप्त की।

औरत की पूर्णता उसके निजी परिचय से कहीं हटकर क्यों खोजी जाती है?

जब तक लड़का और लड़की में भेद होता रहेगा और समाज से जात-पात का जहर खत्म नहीं होगा, तब तक समाज का बंटबारा लगातार ऐसे ही होता रहेगा। इससे समाज बंटता है। जब तक आप नारी को दबाते रहेंगे, तब तक समाज प्रगति कैसे करेगा। इससे पहले परिवार बंटते हैं और फिर समाज टूटता है। इन कुरीतियों को हमेशा के लिए बंद करने का अब समय है। मेरी भी जब तीन बेटियां हो गईं तो पति, सास-ससुर किसी ने कभी कोई एक बात नहीं कहीं।

घर में बेटी का होना या न होना?

घर में बेटी है तो घर स्वर्ग है, अगर घर में बेटी नहीं तो वह घर सिर्फ मकान है। बेटियों से ही परिवार बनता है। मेरी तीन बेटियां हैं और तीनों के आने के बाद जिंदगी में खुशियां ही खुशियां आई हैं।

जीवन में आपकी प्रेरणा का स्रोत और किस नारी चरित्र ने प्रभावित किया?

मुझे हमेशा झांसी की रानी के चरित्र से शक्ति मिली है। मेरी प्रधानाचार्य रही पदमा उपाध्याय आदर्श हैं। उन्होंने मुझे हमेशा आगे बढ़ने के लिए और दूसरों के लिए कुछ करने के लिए प्रेरित किया है।

एक शिक्षक के रूप में आपकी सामाजिक दृष्टि में कितना परिवर्तन आया?

शिक्षा से ही विश्वास मजबूत होता है। जैसे- जैसे मेरी शिक्षा आगे बढ़ती गई, मेरा दृष्टिकोण और समाज व लोगों को देखने का नजिरया और भी इनसानियत भरा बनता गया।

क्या आज की बेटी पराया धन है या यह राष्ट्रीय प्रतिष्ठा का सबब बन चुकी है?

बेटी पराया धन यह कहावत तो अब बदल ही देनी चाहिए। बेटी पराया धन नहीं बल्कि देश की प्रतिष्ठा का सबब बन चुकी हैं। बेटी इंजीनियर है, डाक्टर है, जज है, सेना में अधिकारी है, आईएएस व आईपीएस आफिसर है। बेटियां जहाज उड़ा रही हैं और अतंरिक्ष में पहुंच चुकी हैं। बेटियां तो अब इस देश को चला रही हैं। भारतीय बेटियों ने क्या करके नहीं दिखाया है।

नारी, शिक्षक या समाजसेवी के रूप में आपका सबसे गहरा संतोष ?

ये तीनों ही भूमिकाएं मेरे लिए अहम और एक बराबर हैं, लेकिन फिर भी दूसरों के चेहरे पर थोड़ी सी हंसी लाकर या किसी को रास्ता दिखाकर जो सुकून मिलता है, वह सबसे संतोषजनक होता है।

जब भावनाओं के धरातल पर आपको अपना रास्ता चुनना होता है?

यह सच में मुशिकल समय होता है। कई बार ऐसा हुआ भी है, लेकिन मैं कभी पीछे नहीं हटी। मेरा चयन जब स्कूल में एनसीसी अधिकारी के रूप में हो रहा था, तो सब मुझे रोक रहे थे। मुझे तीन महीने की टे्रनिंग के लिए प्रदेश से बाहर भी जाना था और बेटियों की जिम्मेदारी भी थी। सब रोकते भी रहे, लेकिन मैं जानती थी कि एनसीसी से जुड़ कर मैं छात्राओं के लिए क्या कर सकती हूं। इसलिए उस समय मैंने अपनी भावनाओं को परे रखकर किसी की नहीं सुनी और तीन महीने के लिए चली गई।

कोई तमन्ना जिसे आप अपनी बेटियों के मार्फत पूरा करना चाहेंगी?

ऐसी तमन्ना तो अब कोई नहीं है। इतना सा ही चाहती हूं कि मेरी बेटियां भी मेरी तरह बनें और खुशी भी है कि उनके अंदर भी समाज सेवा व दूसरों की मदद करने के गुण हैं।

राष्ट्रीय पुरस्कार पाने की सबसे बड़ी वजह?

शायद ईश्वर ने इनाम दिया है। राज्य स्तरीय पुरस्कार पाने के बाद मैंने सोचा नहीं था कि राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिलेगा। जलते हुए सिलेंडर को बाहर लाकर बच्चियों की जान तो बचा ली थी, लेकिन फिर एक साल तक मैं खुद बीमार रही। मेरा हार्ट सिकुड़ना शुरू हो गया था। शायद यह सबकी दुआओं व प्यार का फल मुझे ऐसे मिला है।

पुरस्कारों से हटकर आपको अगर कुछ अन्य पाना हो?

पुरस्कारों की इच्छा तो कभी रही नहीं। बस इतना ही चाहती हूं जो मैं करती हूं वो मुझसे कभी न छूटे और सबका प्यार मेरे साथ बना रहे।


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