राजकाज में हिंदी अपनाने की हिचक क्यों

By: Sep 14th, 2017 12:05 am

डा. मनोहर शास्त्रीडा. मनोहर शास्त्री

लेखक, सुंदरनगर, मंडी से हैं

संयुक्त राष्ट्र संघ में जब हमारे प्रधानमंत्री हिंदी में भाषण देते हैं, तो सभी देशों के प्रतिनिधि तालियां बजाकर हिंदी का सम्मान करते हैं लेकिन अपने देश में हिंदी अभी भी सिसकियां भर रही है। यदि पूरे देश में हिंदी ही वार्तालाप व राजकार्य की भाषा होगी, तो न धर्म भेद होगा, न जाति भेद होगा तथा न क्षेत्र भेद…

स्वतंत्र भारत की सबसे बड़ी विडंबना यही रही है कि अब तक हमारी मातृभाषा संपूर्ण राष्ट्र की राजभाषा नहीं बन पाई है। बहुआयामी राष्ट्र के लिए सशक्त राष्ट्रभाषा एवं राजभाषा की अनिवार्यता होती है। भारत जैसे विशाल देश के लिए राष्ट्र भाषा हिंदी की सर्वव्यापकता और भी जरूरी हो जाती है। देश में अनेक भाषाएं तथा बोलियां बोली जाती हैं लेकिन हिंदी में ही वह योग्यता व क्षमता है, जो पूरे राष्ट्र को एक माला में पिरो सकती है। इसी से अधिकांश भाषाएं व बोलियां विकसित हुई हैं। इतिहास साक्षी है कि जिस भी देश ने अपनी राष्ट्र भाषा को सशक्त व सबल बनाकर पूरे देश में उसी में राजकीय कार्य किया तथा अपनी राष्ट्र भाषा को सम्मान दिया, उसी ने सार्वभौमिक विकास किया है। विकसित देश जापान, जर्मनी, चीन, फ्रांस तथा रूस इसी कारण विकसित हुए हैं। उनकी प्रगति व उन्नति का कारण एकदम स्पष्ट है कि उन्होंने राष्ट्रभाषा को राजभाषा बनाकर उसको उचित सम्मान भी दिया। चीन में लगभग 70 भाषाएं बोली जाती हैं, लेकिन उनकी राष्ट्रभाषा एक ही है। जिस देश की राष्ट्रभाषा का सभी देशवासी सम्मान व उपयोग करते हैं, वहां देशप्रेम होगा, खुशहाली होगी।

दुर्भाग्य से भारत में आजतक हिंदी को पूर्ण रूप से राजभाषा का दर्जा नहीं मिल पाया है। आखिर इसके पीछे क्या कारण है? सीधा सा उत्तर है-कुछ राज्यों की अपनी संकीर्ण सोच। राष्ट्र पांच प्रमुख अवयवों से निर्मित होता है-भौगोलिक क्षेत्र, जातियां, धर्म, संस्कृति और भाषा। कोई भी देश इन पांचों को अधिमान दिए बिना उन्नति नहीं कर सकता। देश की संस्कृति, धर्म उसकी भाषा में ही छिपे होते हैं। यही कारण है कि आक्रमणकारी सर्वप्रथम उस देश की भाषा को ही छिन्न-भिन्न करते हैं। हर काम में चाल चलने वाले अंग्रेजों ने भी सर्वप्रथम हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी पर ही प्रहार किया था। उसी का नतीजा है कि आज भी हम विदेशी भाषा के गुलाम हैं। अंग्रेजी के प्रति मोह से जो पट्टी हमारी आंखों पर बंधी है, उसके कारण हम हिंदी को कभी उस सम्मान की नजर से देख ही नहीं पाए, जिसकी वह हकदार थी। एक राष्ट्रकवि ने मातृभाषा की महिमा गाते हुए कितना सुंदर कहा है :

जिसे न निज देश, न निज गौरव का अभिमान है,

नर नहीं वह, निरा पशु और मृतक समान है।

इसके बावजूद आज हिंदी जन-जन की भाषा नहीं बन सकी है। सैकड़ों वर्ष पूर्व हमारे संतों, सिद्ध पुरुषों और योगियों ने संस्कृत को अपने आचार-व्यवहार की भाषा  बनाया था। भाषायी सागर रूपी संस्कृत से निकलने वाली हिंदी ही आज पूरे राष्ट्र को आपस में जोड़ने का कार्य कर सकती थी, लेकिन हमने हिंदी का तिरस्कार करके इसके दरवाजे भी बंद कर रखे हैं। स्वामी अरविंद जी ने कहा था-भारत के विभिन्न प्रदेशों के बीच हिंदी के प्रचार द्वारा एकता स्थापित करने वाला व्यक्ति ही ‘सच्चा भारतीय बंधु’ है।

14 सितंबर, 1949 को अनुच्छेद-343 के अंतर्गत हिंदी भाषा को  राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया गया था। तब व्यवस्था दी गई थी कि संविधान लागू होने के 15 वर्ष बाद हिंदी संपूर्ण रूप से राजभाषा बन जाएगी। भारत के संविधान के अनुच्छेद 351 में लिखा गया है, ‘संघ का यह कर्त्तव्य होगा कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे ताकि वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्त्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके’। जिस देवनागरी लिपि को कम्प्यूटर के लिए आरंभ में उचित नहीं माना गया, वही देवनागरी लिपि बाद में कम्प्यूटर के लिए सबसे उत्तम व वैज्ञानिक लिपि सिद्ध हुई है। पूरे विश्व ने तो हिंदी के महत्त्व को स्वीकार किया, लेकिन भारत में आजादी के इतने वर्षों बाद भी हिंदी अपना स्थान मांग रही है। तुच्छ एवं संकीर्ण विचारधारा से ग्रस्त कुछ सांसद आज भी हिंदी की बिंदी पर ग्रहण लगा रहे हैं। इसका विरोध करके वे संविधान की भावना का भी मजाक उड़ा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ में जब हमारे प्रधानमंत्री हिंदी में भाषण देते हैं, तो सभी देशों के प्रतिनिधि तालियां बजाकर हिंदी का सम्मान करते हैं लेकिन अपने  देश में हिंदी अभी भी सिसकियां भर रही है। यदि पूरे देश में हिंदी ही वार्तालाप व राजकार्य की भाषा होगी, तो न धर्म भेद होगा, न जाति भेद होगा तथा न क्षेत्र भेद। एक भाषा, एक राष्ट्र की परिकल्पना साकार हो, तभी सही मायनों में हम स्वतंत्र होंगे। भारत का उत्तरी क्षेत्र का व्यक्ति यदि दक्षिण राज्य में जाता है, तो उसे वहां भाषा की समस्या से जूझना पड़ता है। इसी प्रकार दक्षिण भारत के व्यक्ति को दिल्ली भी टोक्यो या शंघाई लगती है, क्योंकि उसने राष्ट्रभाषा से दूरी जो रखी है। राष्ट्रभाषा हिंदी का यदि सभी भारतीय प्रयोग करें, तो समस्या ही खत्म हो जाएगी। सभी राज्य हिंदी को राजभाषा का दर्जा देकर मातृभूमि व राष्ट्र के कर्ज को चुका सकते हैं। आखिर हम कब तक अंग्रेजों के गुलाम रहेंगे? हिंदी को अपनाने में कैसी शर्म? अधिक भाषाओं का ज्ञान अच्छी बात है, लेकिन विदेशी भाषा की गुलामी देशद्रोह है। आज हम बच्चों को हिंदी में नमस्ते, प्रणाम, सुप्रभात कहने से क्यों रोक रहे हैं? क्यों हम उन्हें गुडमार्निंग, गुड नाइट व बाय-बाय जैसे शब्दों के चक्कर में डाल रहे हैं?

आओ भारत माता की शक्ति व सौंदर्य में चार चांद लगाने में अपना योगदान दें। हिंदी की बिंदी की चमक बरकरार रखने के लिए इसे शिरोमणि स्थान देना होगा, तभी हम मातृभूमि का ऋण चुका सकते हैं। हिंदी के सम्मान में सबसे पहले दैनिक जीवन की सोच और बोलचाल में अपनाना होगा। उसके बाद राजभाषा बनाने का कार्य लक्ष्य भी धीरे-धीरे हासिल हो जाएगा। जब तक हम हिंदी को देश के हर कोने में सजाने, अपनाने, राजकार्यों की भाषा बनाने का कार्य नहीं करेंगे, तब तक हिंदी दिवस मनाने की सार्थकता सिद्ध नहीं होगी।


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