अति स्वाभाविक है भक्ति

By: Sep 9th, 2017 12:08 am

भक्त और भक्ति भारतीय दर्शन में पवित्रतम स्थान पर आसीन रहे हैं। अब सांस्कृतिक अज्ञानता के कारण इन्हें नकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। इन पवित्र शब्दों को ज्ञान और तर्क का विरोधी का बताया जा रहा है। ऐसे में यह आवश्यक हो जाता है कि हम इस बात को समझें कि भारतीय चिंतन में भक्ति को ज्ञान से आगे की उपलब्धि माना जाता है। ओशो रजनीश का यह लेख हमें भक्त और भक्ति के माहात्म्य से परिचित कराता है …

अति स्वाभाविक है भक्ति अति स्वाभाविक है भक्ति ज्ञान तो द्वैतवादी होगा ही। अनिवार्यतः होगा। उसमें अंतर्निहित अनिवार्यता है द्वैत की। इसलिए बड़े से बड़े ज्ञानी भी चाहे लाख कहें कि संसार मिथ्या है, माया है, पर संसार को मानते हैं। संसार को बिना माने नहीं चलता। ज्ञान की घटना ही नहीं घटती अगर ज्ञाता और ज्ञेय का भेद न हो। ईश्वर को जानोगे कैसे अगर जानने वाला ईश्वर से भिन्न न हो? अभिन्न हो तो जानना समाप्त हो गया। तुम वृक्ष को जानते हो, क्योंकि वृक्ष से भिन्न हो। अगर तुम वृक्ष हो गए, तो फिर वृक्ष को कैसे जानोगे? फिर जानने वाला नहीं बचा। ज्ञानी अनंत-अनंत भेदों से उठते-उठते उस दशा में आ जाता है, जहां दो बचते हैं। दो के पार ज्ञान की यात्रा नहीं है। वहां ज्ञान थक जाता है। भक्ति इससे आगे की उड़ान लेती है, जहां दो वस्तुतः समाप्त हो जाता हैं क्योंकि भक्ति का आग्रह जानने में नहीं है, होने में है। भक्ति के आग्रह को ठीक से समझ लो। भक्ति की बुनियादी धारणा है कि बिना एक हुए कोई उपाय जानने का भी नहीं है। ज्ञान की धारणा है-दो हों तो ही जाना जा सकता है, भक्ति की धारणा है-एक सधे तो ही ज्ञान है। उसे भक्ति ज्ञान भी नहीं कहती इसीलिए, क्योंकि ज्ञान में दो की भाषा आ जाती है, उसे प्रेम कहती है। एक जानना है बाहर-बाहर से और एक जानना है भीतर से। प्रेमी भी एक-दूसरे को जानते हैं, लेकिन वह जानना वैज्ञानिक के जानने से भिन्न है। तुम एक डाक्टर के पास गए, तुम्हारे सिर में दर्द है, तुमने अपने सिरदर्द की कहानी कही, डाक्टर जानता है सिरदर्द को, सिरदर्द के संबंध में पढ़ा है, लिखा है, खुद भी कभी अनुभव किया है, दवा भी जानता है, तुम्हें सिरदर्द से छुटकारा दिलाने का उपाय भी करेगा, लेकिन उसका जानना बाहर से है। तुम्हारी प्रेयसी या तुम्हारी मां, या तुम्हारा पति, या तुम्हारा मित्र, जब तुम उससे कहोगे कि सिरदर्द है, वह भी जानता है, यद्यपि उसने शास्त्र नहीं पढ़े हैं और सिरदर्द क्या है, इसका विश्लेषण न कर सकेगा। लेकिन उसका जानना एक और आयाम का जानना है-सहानुभूति का, समानुभूति का। जब तुम्हारे प्रिय के सिर में दर्द होता है, तो तुम्हारे सिर में भी दर्द हो जाता है। जब बेटा परेशान होता है, तब मां परेशान हो जाती है। यह परेशानी बाहर-बाहर नहीं रहती, यह भीतर छू जाती है। प्रेमी एक-दूसरे में विलीन हो गए होते हैं। इसलिए जब कोई प्रिय पात्र मरता है तो प्रिय पात्र ही नहीं मरता, तुम्हारा एक बड़ा हिस्सा मर जाता है। तुमने जिससे प्रेम किया था, वह मर गया। उस दिन तुम जानोगे कि तुम्हारा एक बड़ा हिस्सा मर गया, तुम्हारी आत्मा का एक खंड समाप्त हो गया। तुम अब उतने ही नहीं हो जितने तब थे जब तुम्हारा प्रेमी जिंदा था। अब तुम खाली-खाली हो, अधूरे-अधूरे हो। तुम्हारे भवन का एक खंड गिर गया, अब तुम खंडहर हो। जब प्रिय पात्र के मर जाने पर कोई रोता है, चीखता-चिल्लाता है, तो वह सिर्फ इसलिए नहीं रो रहा है, चिल्ला रहा है कि प्रिय पात्र मर गया, उसकी मृत्यु में उसकी भी मृत्यु घट गई है, वह भी अब आधा है, अपंग है, उसके भी पैर टूट गए हैं। अब वह कभी पूरा न हो सकेगा। अब यह खालीपन रहेगा और अखरेगा। जितना बड़ा प्रेम होगा, जितना गहन प्रेम होगा, उतनी ही बड़ी मृत्यु घटित होगी। और अगर प्रेम परिपूर्ण हो तो प्रिय पात्र के मरते ही तुम भी मर जाओगे। एक श्वास ज्यादा न ले सकोगे। सती की प्रथा ऐसे ही शुरू हुई थी। फिर पीछे विकृत हुई सभी चीजें विकृत हो जाती हैं, लेकिन ऐसे ही शुरू हुई थी। कभी कोई प्रेमी मरा था और उसकी प्रेयसी फिर सांस न ले सकी थी। फिर सांस लेने में कोई अर्थ ही न रह गया था। चिता पर चढ़ने भी जाना नहीं पड़ा था, चिता पर चढ़ने लायक था ही अब कौन, प्रिय की मृत्यु में ही स्वयं की भी मृत्यु हो गई थी। इतना तादात्म्य हो तो एक तरह का ज्ञान होगा, उसे ज्ञान कहना ठीक नहीं क्योंकि ज्ञान से हम समझते हैं भेद, दूरी, फासला। वह ज्ञान अनूठे ढंग का ज्ञान होगा, वहां फासला न होगा, दुई न होगी, द्वैत न होगा। उसी को शांडिल्य प्रीति कहते हैं। एक ऐसे जानने का ढंग भी है जो हार्दिक है। एक जानने का ढंग है जो बौद्धिक है। बौद्धिक ज्ञान में ज्ञाता और ज्ञेय का फर्क होता है, चेत्य और चित्र का फर्क होता है, दृश्य और द्रष्टा का फर्क होता है। हार्दिक ज्ञान में, भाविक ज्ञान में सब भेद समाप्त हो जाते हैं।  रामकृष्ण के जीवन में एक उल्लेख है—ऐसे बहुत संतों के जीवन में उल्लेख है। पर रामकृष्ण का उल्लेख ताजा है, वह गंगा पार कर रहे थे दक्षिणेश्वर में, नाव में बैठे, उनके भक्त भजन गा रहे हैं। अचानक बीच भजन में वह चिल्लाए—मुझे मारते क्यों हो! मुझे मारते क्यों हो! जो भजन गा रहे थे वे तो एकदम ठिठक कर रह गए, कौन रामकृष्ण को मार रहा है, कौन मारेगा! किसलिए? उन्होंने कहा—आप कहते क्या हैं, परमहंसदेव? कोई आपको मार नहीं रहा, आपको हुआ क्या है? और उन्होंने अपनी चादर उघाड़ी और अपनी पीठ दिखाई और पीठ पर कोड़ों के निशान हैं और खून बह रहा है। रामकृष्ण ने कहा, उस तरफ देखो-बीच गंगा में नाव है, उस किनारे पर कुछ लोग मिलकर एक मल्लाह को पीट रहे हैं। जब नाव किनारे जाकर लगी, भक्तों ने उस आदमी को जाकर देखा जिसको पीटा गया था, उसकी कमीज उघाड़ी, उसकी पीठ पर ठीक वैसे ही कोड़े के चिह्न थे जैसे रामकृष्ण के, ठीक वैसे ही। अब बात और अबूझ हो गई। उन्होंने रामकृष्ण को पूछा-यह हुआ कैसे? उन्होंने कहा-उस क्षण में तादात्म्य हो गया। जब वे उसे मार रहे थे तब एक क्षण को मैं उसके साथ एक हो लिया। इस स्थिति का नाम है समानुभूति। यह सहानुभूति से आगे का कदम है। वैज्ञानिक बहुत से प्रयोग कर रहे हैं इस संबंध में और समानुभूति पर बड़ी खोज पिछले बीस वर्षों में हुई है-विशेषकर रूस में बड़ी खोज हुई है। खास करके मां और उसके बच्चों के बीच। अभी परीक्षण पशुओं में चल रहा है। एक खरगोश को दूर पानी में ले जाकर, मील भर गहरे पानी में ले जाकर मारा गया और उसकी मां ऊपर घाट पर खेल रही है। जब उसे मारा गया, तब खरगोश की मां को जैसे बिजली के धक्के लगे—यंत्र लगाए गए थे जो परीक्षण कर रहे थे, धक्के लगे। जैसे भीतर कोई गहरी चोट लगी। फिर इस प्रयोग को बहुत तरह से दोहराया गया। जब भी बच्चे को मारा गया, तभी मां को चोट पहुंची। हजार मील की दूरी पर भी चोट पहुंची क्योंकि मां और बेटे का संबंध बड़ा गहरा है। बेटा मां के पेट में नौ महीने रहा है। बेटा मां के पेट में नौ महीने इस तरह रहा है कि मां होकर रहा है। इस तरह का गहरा संबंध फिर किसी का कभी नहीं होगा क्योंकि कौन किसके पेट में नौ महीने रहेगा! तो मां और बेटे के हृदय के तार गहराई में जुड़े हैं, प्राण संयुक्त हैं।  ये समानुभूति के लक्षण हैं, यह एक अनूठे ढंग का जानना है, जहां हृदय जुड़े होते हैं। इस जोड़ का नाम भक्ति है। जिस दिन तुम्हारा हृदय विराट से जुड़ जाता है, जिस दिन तुम्हारा प्रेमी और कोई नहीं, स्वयं परमात्मा होता है, जिस दिन सारे अस्तित्व के साथ तुम एकता में लयबद्ध हो जाते हो, तुम्हारी भिन्न तान नहीं रहती, तुम एकतान हो जाते हो, तुम इस विराट संगीत में एक स्वर हो जाते हो, तुम इस विराट संगीत के विपरीत नहीं बहते, तुम इस धारा के साथ एक हो जाते हो, यह धारा जहां जाती है वहीं जाते हो, तुम्हारे भीतर विपरीतता समाप्त हो जाती है, भक्ति का जन्म होता है।


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