अहंकार का भाव

By: Sep 16th, 2017 12:05 am

बाबा हरदेव

भीतर जो असल है वह अचल है। मनुष्य बेशक हजारों मील की यात्रा कर चुका हो, मगर जो भीतर है वह अपनी ही जगह मौजूद है, वह रत्ती भर भी नहीं चलता, लेकिन जब मनुष्य का अहंकार का भाव चलने की क्रिया पर सवार हो जाता है, तब मनुष्य कहता है कि मैं चल रहा हूं। फिर यह कर्ता बन जाता है…

कर्म से कर्ता का भाव पैदा नहीं होता, मानो कर्म अपने आप में कर्ता का भाव पैदा करने वाला, कर्ता के भाव को जन्म देने वाला नहीं है। वास्तविकता यह है कि अगर मनुष्य के भीतर कर्तापन का अहंकार मौजूद हो तो ‘कर्ता’ का भाव कर्म के ऊपर सवार हो जाता है, यानी कर्ता का निर्माता अहंकार का भाव है, और अहंकार का भाव इतना अद्भुत है कि मनुष्य अगर कुछ न करे तो भी ‘न करने’ के अहम से भी कर्ता  बन जाता है। उदाहरण के तौर पर एक मनुष्य रास्ते पर चल रहा है। अब चलने की क्रिया घटित हो रही है। अगर इस चलने की क्रिया को बड़े गौर से देखें तो हम भीतर कहीं भी चलने वाले को नहीं पाएंगे, क्योंकि हमें तो सिर्फ चलने की क्रिया ही मिलेगी, क्योंकि मनुष्य के भीतर जो मौजूद है वह चलता ही नहीं है, चलने की क्रिया तो बाहर हो रही होती है, भीतर चलने वाला तो कोई भी नहीं है। भीतर जो असल है वह अचल है। मनुष्य बेशक हजारों मील की यात्रा कर चुका हो, मगर जो भीतर है वह अपनी ही जगह मौजूद है वह रत्ती भर भी नहीं चलता, लेकिन जब मनुष्य का अहंकार का भाव चलने की क्रिया पर सवार हो जाता है, तब मनुष्य कहता है कि मैं चल रहा हूं। फिर यह कर्ता बन जाता है। अब हमारी भाषा में कुछ बुनियादी भूलें हमारे ही अहंकार के कारण प्रवेश कर गई है। अतः हमें ऐसा लगता है कि जब चलने की क्रिया हमारे सामने है तो फिर चलने वाला जरूर होना चाहिए। यह करीब-करीब वैसा ही है जैसे हम कहते हैं आकाश में बिजली चमकती है। यह वाक्य अस्तित्व की दृष्टि से बिलकुल गलत है। इस बात से ऐसा लगता है कि बिजली कुछ और है, और इसका चमकना कुछ और है। सच बात तो यह है कि चमकने का नाम ही बिजली है क्योंकि चमकने वाला और चमकने की क्रिया दो चीजें नहीं हैं। इसी प्रकार हम कहते हैं कि वर्षा बरसती है जबकि वर्षा का मतलब है कि जो बरस रही है, चुनांचे अगर हम किसी भी क्रिया के भीतर प्रवेश करें तो हम कर्ता को कभी नहीं पाएंगे, केवल हमें क्रिया ही मिलेगी। अब कोई भीतर है जरूर, पर वह कर्ता नहीं है बल्कि वह द्रष्टा है, साक्षी है, मानो क्रियाओं के भीतर गहरे में द्रष्टा है, केवल साक्षी ही है। इसी प्रकार हमारे पेट में भूख मालूम होती है और हम अकसर कहते हैं कि हमें भूख लगी है, जैसा कि हम भूख को लग रहे हैं या हम कर्ता हैं, जबकि सच्चाई इसके विपरीत है सच्चाई तो यह है कि हमें केवल पता चलता है कि भूख लगी है मानो भूख की क्रिया घट रही है, हम तो सिर्फ जानते हैं कि भूख लगी है। हमारे सिर में दर्द है, इस सूरत में भी हम केवल जान पा रहे हैं कि हमारे सिर में दर्द है, मगर हम दर्द नहीं है। अब जब हमें दर्द को मिटाने वाली कोई दवाई दी जाती है तो हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि दर्द मिट गया है, दर्द तो अपनी जगह है, हां! दर्द को जानने वाले तक पहुंचने का रास्ता जरूर टूट गया है और अब हम जान नहीं रहे हैं कि हमें दर्द हो रहा है। बस चेतना एक ज्ञाता है एक साक्षी है।


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