आर्थिक सुरक्षा हो तो युवा कृषि को अपनाएंगे

By: Sep 1st, 2017 12:03 am

मोहिंद्र सिंह चौहान

लेखक, हमीरपुर से हैं

आज का युवा स्वाभिमान के साथ अपने खेतों में काम करने के बजाय तीन-चार हजार रुपए की नौकरी करना बेहतर समझता है। इसके दो कारण हैं। एक तो युवा मेहनत नहीं करना चाहता, दूसरे खेती के काम को अपनी शान के विपरीत समझता है, क्योंकि खेती करने वालों को न तो सम्मान मिलता है न ही पर्याप्त पैसा…

युवाओं को आज कृषि कार्य में कोई खास दिलचस्पी नहीं रह गई है। यह देख कर हैरानी होती है कि जिन लोगों के पास कृषि भूमि है, उनके बच्चों को अपने खेतों व भूमि के बारे में भी कोई जानकारी नहीं होती। होगी भी क्यों, क्योंकि युवा खेतों में जाना ही पसंद नहीं करते। युवा खेतों में जाएं भी क्यों, क्योंकि खेती से कुछ मिलता भी नहीं है। जहां कुछ मिलता नहीं हो, वहां युवा जाएंगे भी किसलिए। आज का युवा स्वाभिमान के साथ अपने खेतों में काम करने के बजाय तीन-चार हजार रुपए की नौकरी करना बेहतर समझता है। इसके दो कारण हैं। एक तो युवा मेहनत नहीं करना चाहता, दूसरे खेती के काम को अपनी शान के विपरीत समझता है, क्योंकि खेती करने वालों को न तो सम्मान मिलता है न ही पर्याप्त पैसा। सरकारें आती-जाती रहती हैं, नीतियां बनती हैं, योजनाएं चलती हैं, लेकिन स्थिति जस की तस बनी रहती है। नीतियां, विशेषकर कृषि नीतियां सुपरिणाम नहीं दे पा रहीं, क्योंकि, उनमें नीयत नाम की कोई चीज नहीं बची। योजना का बजट खत्म हुआ तो फाइल वहीं की वहीं बंद। क्या काम किया गया, भविष्य में योजना का क्या लाभ होगा, कोई पता नहीं। परिणाम क्या निकला कोई पता नहीं होता। परिणाम की भविष्य के लिए कोई निरंतरता नहीं रहती। बेहतर हो कि अगर धरातल की आवश्यकताओं को समझ कर योजनाएं बनाई जाएं, जो बातों तक सीमित न रहकर निरंतर चलती रहें और उनमें कोई व्यवधान न आएं। जो काम एक बार प्रारंभ हो, वह अगली कडि़यों में भी जुड़ता चला जाए। एक ऐसी चेन बने, जो बीज बोने से लेकर पैसा किसान तक पहुंचाने में सहायक हो।

हमारे पास स्रोत हैं, साधन हैं, युवा शक्ति है, लेकिन कमी है तो केवल प्रारंभ से लेकर अंत तक हर स्तर पर आने वाली बाधा का निवारण करने की। कृषि से युवाओं के विमुख होने का यही एक प्रमुख कारण है, उन्हें हर स्तर पर किसी न किसी समस्या का सामना करना पड़ता है। अगर किसान पैदावार कर लेता है, तो विपणन संबंधी समस्या उसके सामने होती है। जितनी लागत किसान ने लगाई होती है, दाम उसकी तुलना में बहुत कम मिलता है। हमारे पास पर्याप्त वैज्ञानिक ज्ञान है, जो हमेशा अपने वैज्ञानिक मार्गदर्शन के लिए तत्पर रहता है, लेकिन आवश्यकता है इस वैज्ञानिक ज्ञान को ग्रहण करने वालों की। वैज्ञानिक विधि से की गई खेती से भरपूर उत्पादन की अपार संभावनाएं हैं, लेकिन वैज्ञानिक ज्ञान भी अधिकतर मौखिक रूप में ही रहता है। व्यावहारिक स्तर तक इसे प्रारूप नहीं मिल पाता। कृषि में सिंचाई की व्यवस्था एक मूलभूत आवश्यकता है। सिंचाई व्यवस्था के कई साधन उपलब्ध हो सकते हैं। जैसे कि उठाऊ जल परियोजनाएं, प्राकृतिक जल स्रोतों का संरक्षण या वर्षा जल संग्रहण। इनमें अगर प्राकृतिक जल स्रोतों के जल संग्रहण के लिए सूक्ष्म एवं बड़े चैक डैम निर्मित किए जाएं, तो वर्ष भर व्यर्थ बहने वाले पानी का कृषि-बागबानी में सदुपयोग किया जा सकता है। इससे न केवल सिंचाई को वर्ष भर सुचारू किया जा सकता है, बल्कि भूमिगत पानी के स्तर (वाटर लेवल) में भी बढ़ोतरी की जा सकती है। सिंचाई व्यवस्था के उपरांत सवाल उठता है कि किस प्रकार की फसलों की कृषि-बागबानी की जाए? इसके लिए उन्हीं पारंपरिक फसलों की वैज्ञानिक विधि से खेती की जाए, जो क्षेत्र विशेष की जलवायु के अनुरूप वहां पर उगती हों। आधुनिक वैज्ञानिक तकनीक के साथ पारंपरिक फसलों का सामंजस्य बिठाना सतत कृषि विकास के लिए अति आवश्यक है। हिमाचल प्रदेश में विशेष कर निचले पर्वतीय क्षेत्रों की आर्थिक उन्नति में फूलों में गेंदा सब्जियों में कद्दू-पेठा, नर्सरी उत्पादन, फलों में आम, नींबू, गलगल, अनार, औषधीय पौधों में हरड़-बहेड़ा, आंवला, चंदन एवं अन्य मौसमी फसलें नए आयाम दे सकती हैं।

विपणन के लिए विपणन संबंधी व्यवस्था को इतना प्रोत्साहन नहीं मिलता, जितना मिलना चाहिए। जब उत्पादन भरपूर होता है, तब किसान के लिए प्रमुख समस्या विपणन की होती है। किसान के पास इतना समय नहीं होता कि वह अपने कृषि कार्य के साथ-साथ विपणन संबंधित कार्य को भी सुचारू रूप से कर सके। अतः सरकार को सूक्ष्म स्तर पर किसानों से उत्पाद संग्रहण की व्यवस्था करनी चाहिए, ताकि किसान अपने उत्पादन का एक-एक अंश सुगमता से बेच सके। संबंधित क्षेत्रों में कृषि आधारित उद्योगों की स्थापना हो तो उत्पाद की बर्बादी को भी काफी सीमा तक रोका जा सकता है। साथ ही घरेलू स्तर पर लघु उद्योगों की बर्बादी को भी काफी सीमा तक रोका जा सकता है। साथ ही घरेलू स्तर पर लघु उद्योगों को भी बड़े उद्योगों से संबद्ध किया जाए। जब उद्योग स्थापित होंगे तो उनमें रोजगार के अवसर सृजित होंगे। व्यावसायियों से लेकर प्रबंधकों एवं कामगारों की आवश्यकता होगी। शिक्षित युवाओं को कृषि के साथ-साथ उद्योगों में भी रोजगार के अवसर मिलेंगे। युवाओं का शहरों की ओर पलायन रुकेगा। जब कृषि आधारित व्यवस्था से रोजगार मिलेगा, तब कृषि-बागबानी की तरफ युवाओं का रुझान भी बढ़ेगा। जब हमारी कृषि व्यवस्था में निरंतरता आएगी, तभी सतत विकास का पहिया निरंतरता की ओर बढ़ेगा। अतः अब समय की मांग है कि हमारी युवा शक्ति को बुनियादी योजनाएं बनाकर देश-प्रदेश के विकासरूपी गाड़ी को चलाने के दायित्व से जोड़ें, न कि अस्थायी प्रलोभन की योजनाएं बनाकर।

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