ईश्वर का स्मरण

By: Sep 16th, 2017 12:05 am

महेश योगी

भावातीत ध्यान की इस युक्ति से भगवान का यह उपदेश जीवन में व्यावहारिक हो जाता है। यह ध्यान देना रोचक है कि अनुस्मर का उपदेश हरेक के लिए भगवद्चेतना की संसिद्धि के लिए आधार प्रदान करता है, वह चाहे जिस धर्म के अनुयायी हों और भगवान के बारे में उनकी चाहे जो मान्यता हो…

तस्मात्सर्वेशु कालेशु मामनुस्मर युध्य च॥

मय्यर्पित मनोबुद्धिर्मावैश्यस्य.संशयम् ॥॥

श्रीमदभगवद्गीता के आठवें अध्याय में भगवान जीवन के अंतिम काल में ईश्वर के स्मरण को प्रतिपादित करते हुए कहते हैं, अतएव मुझे हर काल में अनुस्मर कर और युद्ध कर। जब मन और बुद्धि मुझ में अर्पित कर बिना संशय के मेरे पास आओगे। हे पार्थ तब ही तुम परम पुरुष दिव्य सत्ता को प्राप्त होंगे। यहां जिस अनुस्मर की प्रक्रिया का उल्लेख किया है उससे मन और बुद्धि आत्मा में प्रतिष्ठित हो जाती हैं, जैसा भगवान कहते हैं, मय्यर्पित मनोबुद्धिमेवैष्यस्यसंशयम। भगवद्सत्ता में तल्लीन होने के लिए या भगवद चेतना की अनुभूति के लिए एकाग्रता को भावातीत सत्ता के क्षेत्र में ले जाना होता है। सजगता के स्तर पर जब ईश्वर का कोई विचार मन के सजग स्तर से गहरे ले जाया जाता है और वह जब चेतना के गहनतम स्तर में अपनी सूक्ष्मतम अवस्था में आत्मसात हो जाता है, तब उसे अनुस्मर कहा जाता है। अनुस्मर की इस प्रक्रिया में विचार आह्लाद में वृद्धि करने वाला होता है और मन इस आह्लाद में वृद्धि से स्वाभाविक रूप से बंध जाता है और इस प्रकार विचार की सूक्ष्मतम अवस्थाओं के अनुभव की ओर तब तक खिंचा चला जाता है, जब तब सूक्ष्मतम अवस्था में पहुंचकर तुरंत उसे भी पारकर भावातीत शुद्ध चेतना में नहीं पहुंच जाता। इस क्षेत्र से बाहर आकर जब सजग मन बाहर से सांसारिक क्रियाकलापों में लग जाता है, तब ईश्वर स्वाभाविक रूप से चेतना के गहन स्तरों से आबद्ध होता है, जिसके लिए सजग मन को कोई प्रयास नहीं करना पड़ता। वह प्रक्रिया जिससे भीतर ईश्वर के आह्लाद और बाहर विश्व के क्रियाकलाप एक दूसरे को कमजोर किए बिना साथ-साथ चलते हैं, वास्तविक अनुस्मर कहलाता है। भगवान का इस ढंग से स्मरण कि स्मरण की प्रक्रिया चेतना के समस्त स्तरों को अनुप्राणित कर मन को सुगमता से सभी विचारों से परे जाने और समस्त विचारों के स्रोत भावातीत चेतना में पहुंचने में सक्षम बनाती है। भावातीत ध्यान की इस युक्ति से भगवान का यह उपदेश जीवन में व्यावहारिक हो जाता है। यह ध्यान देना रोचक है कि अनुस्मर का उपदेश हरेक लिए भगवद्चेतना की संसिद्धि के लिए आधार प्रदान करता है, वह चाहे जिस धर्म के अनुयायी हों और भगवान के बारे में उनका चाहे जो मान्यता हो। वह चाहे किसी एक ईश्वर के भक्त हों या अनेक देवताओं के आराधक और पुनश्च वे चाहे शंकराचार्य के अद्वैत दर्शन को मानने वाले हों, या रामानुजाचार्य विशिष्टाद्वैत अथवा माधवाचार्य के द्वैत-अद्वैत के अनुयायी या फिर वे भक्ति के किसी भी मार्ग का अनुकरण करते हों। इस बात से कोई अंतर नहीं पड़ता कि विभिन्न धर्मों के उपदेश क्या हैं या विभिन्न धर्म एक दूसरे से हजार तरीके एक दूसरे से पृथक हों, अनुस्मर  हृदय की गहराई से भगवान के अनुस्मरण के मामले में सब एक हैं। हृदय की गहराइयों से भगवान का अनुस्मरण समस्त धर्मों में एक जैसा है। अनंतकाल से समस्त धर्मों का इतिहास व्यक्ति के अपने इष्ट देव के अनुस्मरण को ही मुक्ति का मार्ग निरूपित करता है। गहन स्मरण का पाठ आज किसी भी धर्म के मंच से नहीं पढ़ाया जाता।


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