औपन्यासिक आस्वाद की मार्मिक कहानियां

By: Sep 3rd, 2017 12:08 am

पुस्तक समीक्षा

कहानी संग्रह : काश! पंडोरी न होती (2016)

पृष्ठ संख्या : 112

मूल्य : रुपए 250/-

लेखिका : मृदुला श्रीवास्तव

प्रकाशक : अंतिका प्रकाशन, सी-56/यूजीएफ-ढ्ढङ्क, शालीमार गार्डन, एक्सटेंशन-ढ्ढढ्ढ, गाजियाबाद-201005 (उत्तर प्रदेश)

समकालीन हिंदी कहानी अपनी कथावस्तु के कारण अधिक चर्चा में है। आज यशपाल की यह धारणा कि कहानी केवल मनोरंजन की वस्तु नहीं होती अपितु इसका ध्येय तो पाठक के मन में वैचारिक कौंध उत्पन्न करना होता है–स्वीकार्य होती जान पड़ती है। अभिप्रायः यह कि कहानी मात्र काल्पनिक उछल-कूद नहीं होती, बल्कि यह जीवन का यथार्थपरक रेखांकन होती है।

मृदुला श्रीवास्तव के आलोच्य संग्रह ‘काश! पंडोरी न होती’ की सभी कहानियों पर भी उक्त टिप्पणी सार्थक प्रतीत होती है। कथा-लेखिका अपनी प्रत्येक कहानी में एक समस्या या प्रसंग को लेकर उसे पात्रों के ताने-बाने से बुनती हैं और अपने लक्ष्य को पूरा करती हैं।

हर रचना का कुछ न कुछ कहना होता है, अभिप्रेत अर्थ होता है। निर्धन एवं नारी का शोषण भारतीय समाज में घृणित परंपरा रही है। ‘मुलम्मा’ कहानी में धन के बल पर डा. त्यागराजन तेनम्मा का शारीरिक शोषण करता है। तंगम्मा एक झोंपड़ी में अपने माता-पिता तथा बड़ी बहन तेनम्मा के साथ रहती है। पिता नारियल पानी बेचता है।

मां और तेनम्मा फूल बेचती हैं। निकट की एक कोठी में रहने वाला धनवान डा. त्यागराजन दिन में कई-कई बार फूल खरीदने आता है और  तेनम्मा को बुरी नजर से निहारता है। बारिश होने के कारण दुकान बंद होती है। तेनम्मा को देख डा. त्यागराजन गाड़ी रोकता है। मां के संकेत करने पर वह गाड़ी में बैठ जाती है और रात भर त्यागराजन की भोग-लिप्सा को शांत करती है।

प्रातः लौटती है तो एकदम टूटी हुई और हाथ में खाने का थैला लाती है। भूखा परिवार भोजन पर टूट पड़ता है, परंतु उसकी छोटी बहन तंगम्मा गंडासा लेकर डा. त्यागराजन को मारने दौड़ती है। बदहाल जिंदगी… एवं विवश परिवार के शोषण की रोचक कहानी। ‘कहीं एक और ग्रंथी’ कहानी तनाव एवं मनोवैज्ञानिक भावना का चित्रण करती है।

कम पढ़ा-लिखा पति शैलेश हीनभावना के कारण आत्मघात कर लेता है। डा. ऋचा को अब डा. प्रभात विवाह का प्रस्ताव करता है। डा. ऋचा डी लिट. है और प्रभात पीएचडी है। डा. ऋचा सोचती है शैलेश उससे कम पढ़ा-लिखा था, डा. प्रभात भी कम पढ़ा है। कहीं फिर वही दुर्घटना न हो जाए।

वह डा. प्रभात के प्रस्ताव पर मुस्करा उठती है परंतु कागज के टुकड़े-टुकड़े कर सातवीं मंजिल से नीचे फेंक देती है। कहानी का ताना-बाना रोचक परंतु त्रासद है। प्राणांत करना कोई समस्या का हल नहीं होता। लेखिका को निरीह पात्रों की कहानियां अधिक प्रिय हैं।

‘चवन्नी’ कहानी का गंगवा कुपोषित है, गूंगा भी। वह तेजाब से भरी बोतल पी गया था। बच तो गया परंतु उसकी आवाज चली गई। वह कभी रामखिलावन के होटल पर काम करता है, कभी किसी और औरत के घर काम करने लगता है।

अंततः वह ऐसे  स्थान पर पहुंचता है, जहां बच्चों को बेचने का धंधा चलता था। वह बदहवास पुनः रामखिलावन के ढाबे पर लौट आता है… वह मार खा लेगा परंतु अब किसी दूसरे स्थान पर नहीं जाएगा।

मनुष्य के अमानवीय व्यवहार से वह भयभीत हो गया था… परंतु अपेक्षाकृत कम बुराई वाले मालिक के पास टिकना उसे बेहतर लगा। ‘ब्रेन’ कहानी में रोगी की विवशता और डाक्टर का ऊहापोह गहनता से रेखांकित है।

निर्धन रोगी प्रकाश का ब्रेन जब प्रयोगशाला में पहुंचता है तो डा. कुमार को झटका लगता है। उसे अमरीका में सम्मान लेने जाना था, परंतु वह न जाने का निर्णय कर लेता है, ताकि प्रकाश जैसे बुझते दीपक को बचाया जा सके। किसी के जीवन को बचा सकने की क्षमता सम्मान से कहीं बड़ी है।

‘खून के रंग’ कहानी में लेखिका ने रक्तदान के संदर्भ में एक विशेष संदेश देना चाहा है। बाप दयाशंकर आईएएस अधिकारी है, परंतु रक्तदान का विरोधी है। उसकी बेटी अनुराधा हर छह माह में एक बार खून देती है।

अनुराधा की मां बीमार होती है तो एक नौकर उसे खून देता है, अनुराधा भी मां के लिए खून देती है। पिता को पता चलता है, तो वह बेटी को निकाल देता है। खून के इतने रंग देखकर मां लौटना ही नहीं चाहती।

‘काश! पंडोरी न होती’ जम्मू-कश्मीर की पृष्ठभूमि पर लिखी नारी व्यथा की परेशान करने वाली मार्मिक कहानी है। शरणार्थियों के जीवन को उकेरती परिस्थितियों की भयावहता को चित्रांकित करती संग्रह की शीर्ष कहानी वस्तुतः औपन्यासिक कलेवर को समेटे हुए है।

लेखिका में यह भरपूर क्षमता है कि उसकी कहानियां उपन्यास के रूप में विस्तार से समस्याओं को उघाड़ें। मृदुला श्रीवास्तव की कहानियां परिपक्व अनुभवों की कलात्मक प्रस्तुतियां हैं। लेखिका पात्रों के मन में झांक कर अनमोल विचार मोती एकत्रित करने में सिद्धहस्त हैं।

दस की दस कहानियों में कोई न कोई समसामयिक समस्या उठाई गई है, परंतु पात्रों के अंतरमन की व्यथा की ये कहानियां रोचक एवं पठनीय हैं तथा पाठक के मन में वैचारिक कौंध उत्पन्न करती हैं। भाषा सहज-स्वाभाविक व पात्रानुकूल है, परंतु कहीं-कहीं बोझिल भी लगती है। फिर भी कथावस्तु की प्रासंगिकता पाठकों को साथ बहा ले जाती है।

-डा. सुशील कुमार फुल्ल, पुष्पांजलि, राजपुर, पालमपुर


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