कला में जरूरी है विविधता

By: Sep 9th, 2017 12:05 am

गुरुओं, अवतारों, पैगंबरों, ऐतिहासिक पात्रों तथा कांगड़ा ब्राइड जैसे कलात्मक चित्रों के रचयिता सोभा सिंह भले ही पंजाब से थे, लेकिन उनका अधिकतर जीवन अंद्रेटा (हिमाचल) की प्राकृतिक छांव में सृजनशीलता में बीता। इन्हीं की जीवनी और उनके विविध विषयों पर विचारों को लेकर आए हैं प्रसिद्ध लेखक डॉ, कुलवंत सिंह खोखर। उनकी लिखी पुस्तक ‘सोल एंड प्रिंसिपल्स’ में सोभा सिंह के दार्शनिक विचारों का संकलन व विश्लेषण किया गया है। किताब की विशेषता यह है कि इसमें कला या चित्रकला ही नहीं, बल्कि अन्य सामाजिक विषयों पर भी मंथन किया गया है। आस्था के विभिन्न अंकों में हम उन पर लिखी इसी किताब के मुख्य अंश छापेंगे जो आध्यात्मिक पहलुओं को रेखांकित करते हैं। इस अंक में पेश हैं कला पर उनके विचार ः

शुरू में एक चित्रकार अपनी आजीविका कमाने के लिए कमर्शियल आर्ट को अपना सकता है। इसके बाद वह लोगों को प्रभावित करने के लिए पेंटिंग करता है। अंत में वह आनंद के लिए पेंटिंग करता है तथा परमानंद को प्राप्त करता है। यह व्यक्ति के आंतरिक संतोष व आनंद के लिए किया जाता है। एक चित्रकार में जानने की जो इच्छा होती है, वह भी काम करती है। वह इसको अपने प्रयासों से प्राप्त करना चाहता है। अगर कोई बच्चा बिस्तर पर चढ़ने की कोशिश कर रहा है और आप इसमें उसकी मदद करते हैं तो वह नाराज हो जाएगा और रोना शुरू कर देगा। ऐसा करके आपने बच्चे की उस प्रसन्नता को छीन लिया जो उसे अपने पहले प्रयास के सफल होने पर मिलने वाली थी। एक प्रतिभावान व्यक्ति भी इसी तरह सफलता प्राप्त करना चाहता है। इससे उसको आत्मसंतोष व आनंद मिलते हैं। उसे समाज जाने और उसकी प्रशंसा करे, यह इच्छा उसकी कला के विकास को उसकी प्रतिभा के अनुकूल बनाए रखने को प्रेरित करती है। यह बचपन में उसके साथ खेलने वालों द्वारा स्वीकायर्ता की इच्छा, जवानी में विपरीतलिंगी द्वारा प्रशंसा की अभिलाषा तथा परिपक्वता में उसके नजदीकी संसार द्वारा उसको मान्यता देने की चाहत के समान है। वह प्रयास करता रहता है और कई साहसिक कारनामों से होकर गुजरता है। लेकिन ऐसे लोग कम ही हैं जिनकी प्रतिभा एक लक्ष्य पर आधारित होती है। मैंने किसी महिला का चित्र उसकी कामुकता को प्रोजेक्ट करने के लिए कभी नहीं बनाया। मैंने उसकी योग्यताओं को इस मूल लक्ष्य के साथ उभारा कि महिला भी महान होती है। जैसा कि इसे मैं अब देखता हूं, मैं चाहता था कि मेरे चित्रों में से मेरी माता बाहर निकल कर आए। हमें यह याद रखना चाहिए कि महिलाओं को अपने जीवन में कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। मैंने उसकी सभी खामियों को नजरअंदाज करते हुए उसे चित्रित किया। इसके बाद मैं संतों की ओर मुड़ा। मैंने उन्हें चित्रित करना चाहा। मैं उनके एकल दिमागी समर्पण से प्रभावित था। लेकिन वे केवल अपनी आकांक्षाओं में रहे। उनकी आकांक्षा उस एक के लिए थी जो पहुंच से परे है। यह मुझे स्वीकार्य नहीं था। मुझे वे चित्र बनाने की इच्छा हुई जिनके बारे में मैं तब से सुन रहा था जब से मैंने अपने पिता की पगड़ी को पहचानना शुरू किया। मैं यह जानता था कि पंजाबी लोगों की अपने जीवन में अपनी आत्मा की एक धमक वाली शक्ति होती है। मैं सिख स्वतंत्रता सेनानियों के समर्पण भाव तथा अपने गुरुओं व पैगंबरों में उनकी आस्था व विश्वास को देख चुका था। मुझे ज्ञान हुआ कि इस सबके बावजूद सिख विश्वास कमजोर होता जा रहा था। उनके समक्ष उनकी आस्था का स्रोत रखने के लिए मैंने गुरुओं, जो मेरे लिए आदर्शवादी थे, के चित्र बनाने की सोची। इसके बावजूद मैंने चित्रण के एकल विचार तक अपने को सीमित नहीं रखा और जो कुछ मुझे अच्छा लगा, मैं उसका चित्रण करता गया। इस तरह मेरी कला में विविधता आई और वह निखरती गई। इस सच्चाई के बावजूद कि सिखों का नैतिक रूप से अपकर्ष हो रहा था, गुरुओं ने उनमें जो नैतिक मूल्य भरे थे वे अभी भी जिंदा थे। सिखों का जो विश्वास डगमगा रहा था, मैंने अवनति की ओर जाने की उनकी प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया।


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