कारगिल युद्ध की साहसिक विजयगाथा

By: Sep 9th, 2017 12:02 am

डा. सुशील कुमार फुल्ल

लेखक, वरिष्ठ साहित्यकार हैं

बतरा ने भारतीय सेना की शौर्यपूर्ण परंपरा को जीते हुए अपने देश के लिए प्राण न्यौछावर कर दिए। अपने योद्धा को वीरगति प्राप्त करते देख जम्मू-कश्मीर रायफल्ज के सैनिकों का खून खौल उठा और उन्होंने पाक सेना पर भीषण आक्रमण किया…मार गिराए अनेक सैनिक और जो डर कर भागे, वे पहाड़ से नीचे गिर कर मर गए। बतरा की वीर गति का संदेश नीचे मुख्यालय में पहुंचा, तो सफलता का जश्न शोक में बदल गया। एक महान योद्धा का गमन भारतीय सेना के लिए बहुत बड़ी हानि थी। विक्रम बतरा ने क्षेत्र को शत्रु से मुक्त करवा दिया था। यह अपने आप में एक महान उपलब्धि है। अपूर्व शौर्य प्रदर्शन करने वाले वीर विक्रम बतरा के सम्मान में शिखर 4875 का नाम अब ‘कैप्टन विक्रम बतरा शिखर’ रखा गया है…

कारगिल युद्ध एक भयावह सपना था। सपाट ठंडे पहाड़ों पर अपने आप को बचाते हुए एम्युनिशन लेकर चढ़ना एक जोखिम भरा काम था। ऊपर बैठे, चारों तरफ पोजीशन लिए पाक सैनिक तोप से गोले बरसा रहे थे, फिर भी भारतीय सेना ने शत्रु को नाकों तले चने चबवा दिए। कारगिल के चारों उपखंडों द्रास, मश्कोह, बटालिक तथा काकसर में शत्रु को खदेड़ने के लिए भीष्ण युद्ध चल रहा था। अलग-अलग चोटियों के लिए योजनानुसार सेना अपना आपरेशन चला रही थी। वीर विक्रम बतरा एवं संजीव जम्वाल की कंपनियों ने शिखर 5140 पर विजय प्राप्त कर ली थी। तभी तो विक्रम के साहसिक कारनामे न केवल शत्रु सेना में, बल्कि अपने सैनिकों में आम हो गए थे। साथियों को बचाते हुए स्वयं आगे होकर लड़ने के लिए विक्रम को किसी ने कारगिल नायक, तो किसी ने कारगिल का टाइगर कहा, जिसकी दहाड़ से शत्रु सैनिक कांप जाते थे। पत्रकार बरखा दत्त ने जब विजय के उपरांत विक्रम से बातचीत की और पूछा कि उसे कैसा महसूस हो रहा है? तब आत्मविश्वास से लवरेज विक्रम ने अपने ही अंदाज में कहा था-यह दिल मांगे मोर। और उसके बाद पेप्सी के इस विज्ञापन का अर्थ ही बदल गया। लाखों लोगों ने टीवी पर विक्रम को बढ़ी हुई दाढ़ी के साथ अपनी सफलता पर चहकते हुए देखा था। मानो वह अभी और बहुत कुछ कहना चाहता था। उसमें एक उत्साह था, एक गर्व की अनुभूति थी। शिखर 5140 पर विजय के उपरांत विक्रम ने 20 जून को अपने घर पालमपुर फोन किया था। फोन पिता श्री गिरधारी लाल बतरा ने सुना। ‘डैड!’ उत्साह से भरे विक्रम बतरा के ये शब्द पिता के कानों में मिसरी घोल गए। ‘विक्रम….हां, बेटा।’ डैड, मैंने अपना टास्क पूरा कर दिया। शिखर 5140 पर झंडा फहरा दिया है। जो काम मुझे दिया गया था, वह मैंने कर दिया।’

‘तुम ठीक तो हो बेटा।’ पिता ने फोन पर पूछा। मानो हाथों से बेटे के शरीर को टटोलने का प्रयत्न कर रहे हों। ‘डैड, मैं एक दम ठीक हूं। चिंता मत करो। मां दुर्गा का आशीर्वाद है।’ जरा फोन मां को दो। विक्रम अपनी जननी से लिपट जाना चाहता था। ‘बेटा…’ मां कमलकांता का भीगा स्वर विक्रम को भी रुला गया। ‘मां, मुझे आप का बेटा होने पर गर्व है। मातृभूमि एवं राष्ट्र की रक्षा मां की रक्षा है।’ हां, बेटा।’ मां का दिल पिघल रहा था। शिखर 5140 चोटी पर विजय के बाद अनेक पत्रकारों ने विक्रम बतरा तथा अन्य सैनिकों से उनके साहसिक कारनामों के विषय में बात की। स्टेट्समैन अखबार के विशेष संवाददाता श्रींजय चौधरी भी कारगिल में उपस्थित थे। उन्होंने भी विक्रम से विस्तृत बात की। जो आशय, भाव उसमें समाहित था, उसे यहां अपने शब्दों में प्रस्तुत करने का प्रयास किया जाता है। ‘विक्रम उत्साह एवं विश्वास से छलछला रहा था।… यह दैवीय कृपा ही थी कि उसकी कंपनी का एक भी सैनिक हताहत नहीं हुआ था। यह किसी मध्यकालीन नायक की कथा जान पड़ती थी… जो रास्ते में आने वाले रचंतरण कर अपनी क्रिया को प्राप्त कर लेता है।’ उन दिनों भारतीय सेना का प्रथम लक्ष्य शत्रु को आगे बढ़ने से रोकना था। वह पहले बहुत अंदर आकर अपने पांव जमा चुका था। अब विक्रम की कंपनी पहाड़ पर चढ़ रही थी, मौसम डरावना था। ढलानों पर बर्फ फिसलने वाली थी। विक्रम ने बताया-बर्फ पड़ने पर हमारे सैनिक और भी जोश से चिल्ला उठे-हम शत्रु को ध्वस्त करके ही दम लेंगे। ऊपर शिखरों पर बैठे पाकिस्तानी सैनिक बंकरों में से लगातार मशीनगनों और स्वचालित रायफलों से गोलियों की बौछार कर रहे थे। शत्रु बीच-बीच में अग्नि पिंड छोड़ रहा था। जब ये जलते तो चारों तरफ प्रकाश हो जाता। शत्रु लगातार गोलीबारी करता रहा, परंतु हमारे वीर निरंतर आगे बढ़ते गए। शिखर पर पहुंचते ही ‘जय दुर्गा माता’ का जयघोष हुआ और सभी शत्रु पर टूट पड़े। हमने उनका पीछा किया और गोलियां बरसाने लगे। विक्रम ने कहा-मैंने चार पाकिस्तानी सैनिकों को खड्ड में गिरते हुए देखा, लेकिन हम उन्हें निकाल नहीं पाए। बहुत से सैनिक चट्टानों के पीछे भी छिपे थे। उन सब सैनिकों को वहां से खदेड़ दिया गया और क्षेत्र पर अब हमारा आधिपत्य था। ‘अभी भी दो बंकर बचे थे।

उनमें पाकिस्तानी सैनिक होने की आशंका थी। योजनानुसार हमने उन बंकरों पर धावा बोल दिया तथा दो पाकिस्तानी सैनिकों को मार गिराया। फिर सारे क्षेत्र का निरीक्षण किया। अब उस क्षेत्र पर हमारा अधिकार था। ऐसा सुनिश्चित हो जाने पर विक्रम ने अपना विजय संकेत ‘यह दिल मांगे मोर’ कमांडिंग आफिसर के पास भेज दिया। ‘हमें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि हमारा एक भी सैनिक हताहत नहीं हुआ था। निश्चित रूप से यह गौरवशाली विजय थी। स्थिति का संकट इतना कि हर पांच कदम पर रुक कर सांस लेना पड़ रहा था। बीच में लगने लगा था कि संभवतः हम अपने लक्ष्य तक न पहुंच पाएंगे। विहान होने तक यदि हम उन ढलानों पर ही होते, तो कठिन स्थिति होती क्योंकि हम सीधे पाकिस्तानियों के निशाने पर होते। ‘भागते हुए पाकिस्तानी सैनिकों को मारते हुए आप कैसा महसूस कर रहे थे?’ श्रीजय ने विक्रम बतरा से पूछा था। ‘यदि हम उन्हें न मारते तो वे हमें मार देते। अगर हम ऊपर न पहुंचते, तो उनके शिकार बन जाते। यह सब ईश्वर की कृपा से संभव हुआ। भाग्य हमारे साथ था।’ वीर विक्रम ने कहा। कमांडिंग अफसर लेफ्टिनेंट कर्नल वाईके जोशी ने बाद में कहा – पर्वतीय युद्धों के क्षेत्र में प्वाइंट 5140 का युद्ध जितनी श्रेष्ठता से लड़ा गया, वह सैनिक पाठ्यक्रम का एक अंग बन सकता है।’ 20 जून को द्रास में प्रसन्नता की लहर थी। इस छोटे से शहर में भारतीय सेना, पुलिस एवं सीमा सुरक्षा बल की टुकडि़यां फैल गईं। अब द्रास क्षेत्र में हमारा पलड़ा भारी था। मश्कोह घाटी के शिखरों पर शत्रु सेना ने अपने बहुत ही मजबूत मोर्चे बना रखे थे और भारतीय वायु सेना के विमान पाकिस्तानी सेना की सप्लाई लाईन को तोड़ने के लिए मशकोह की पर्वत शृंखला पर गोले बरसा रही थी। भले ही टाइगर हिल पर भारतीय सेना का नियंत्रण हो चुका था, परंतु अब भी पाक सेना इस स्थिति में थी कि वह पुनः आक्रमण करके क्षेत्र पर कब्जा कर सके। सत्रह हजार फुट की ऊंचाई पर हमारे सैनिक थे, जहां अभी उन्हें कोई कवर (कवच) प्राप्त नहीं था। मश्कोह की ऊंचाइयां बहुत ज्यादा थीं। यहां नौसिखिए सैनिक सफल नहीं हो सकते थे। विशेषज्ञों  ने परस्पर विचार-विमर्श किया तथा निर्णय लिया कि इस काम के लिए अनुभवी सेनाओं को ही लगाया जाए। परिणामस्वरूप निर्णय 13 जेएके रायफल्ज के पक्ष में ही हुआ। इस लक्ष्य प्राप्ति के लिए सत्रहवीं जाट रेजिमेंट की बटालियन तथा 12 महार को भी लगाया गया। अंततः द्रास, बटालिक आदि पर अपने आधिपत्य के बाद मश्कोह की चोटी 4875 पर नियंत्रण के लिए शत्रु को ललकारने और पटकने की घड़ी आ गई थी। कर्नल जीएस मान तथा मेजर आरएस खंडका ने अपनी तोपों के मुंह शिखर पर अनाधिकृत नियंत्रण के साथ विराजमान शत्रु सेना के बंकरों पर लगातार गोलाबारी शुरू कर दी। अचानक भारी बम वर्षा से घबरा कर शत्रु सैनिक उखड़ गए। इस बीच भारतीय सैनिक निरंतर जयघोष करते हुए बढ़ते जा रहे थे। एक तरफ से जेएके राइफल्ज के जवान, दूसरी तरफ से जाट बटालियन के वीर तथा तीसरी ओर से नगा रेजिमेंट के शूरवीर अभियान पर थे। तभी शत्रु सेना के गोलों ने हमारे सैनिकों को भारी गोलाबारी के कारण क्षण भर रुक जाने के लिए विवश कर दिया। दिन निकलने वाला था और दिन की रोशनी में शत्रु हमारे सैनिकों को देख सकता था।

अभी सैनिक लक्ष्य से 50 मीटर पीछे थे। शिखर 4875 के फ्लैट टॉप के लिए घमासान जारी था। नागप्पा की दोनों टांगों में छर्रे लग चुके थे और पाकिस्तानी सेना वहां जल्दी ही पहुंच जाना चाहती थी, इस रणनीतिक स्थान पर कब्जे के लिए। तभी कैप्टन विक्रम बतरा ने हुंकार भरी-सर, मैं जाऊंगा ऊपर। विक्रम बतरा अस्वस्थ था, ज्वर से पीडि़त, आंखें लाल और कांप रहा था, परंतु शौर्य की अग्नि दहक रही थी। बहुत से सैनिक स्वेच्छा से विक्रम के साथ जाने के लिए तत्पर हो गए। सभी ने विक्रम बतरा के साथ दुर्गा माता मंदिर में आराधना की और पहाड़ की चढ़ाई पर चल पड़े। उसमें आत्मविश्वास था और दृढ़ता थी। ज्यों ही वह अपने मिशन को प्राप्त करने के लिए आगे बढ़ा, सारी थकान दूर हो गई। 16,087 फुट की ऊंचाई पर सैनिकों का दम फूल रहा था, परंतु यह सुस्ताने का वक्त नहीं था। सूर्योदय से पहले उन्होंने शत्रु की दो और गन पोजीशंज को ध्वस्त कर दिया। सूर्य का प्रकाश होते हुए विक्रम बतरा और उसकी पलटन लैज पर पहुंच चुकी थी। जय दुर्गे माता का जयघोष करते हुए वे शत्रु पर टूट पड़े। घमासान चलता रहा…सात पाकिस्तानी सैनिक ढेर हो गए थे।  प्रातः के छह बज गए थे। बतरा एंड कंपनी विजयी हो गए थे, लेकिन बतरा अभी देख-परख कर रहा था तथा अपने सैनिकों का हौसला बढ़ा रहा था। भागते हुए सैनिकों ने उस पर रॉकेट फेंका। रॉकेट बतरा के सिर पर लगा और वह गिर पड़ा। बतरा ने भारतीय सेना की शौर्यपूर्ण परंपरा को जीते हुए अपने देश के लिए प्राण न्यौछावर कर दिए। अपने योद्धा को वीरगति प्राप्त करते देख जम्मू-कश्मीर रायफल्ज के सैनिकों का खून खौल उठा और उन्होंने पाक सेना पर भीषण आक्रमण किया…मार गिराए अनेक सैनिक और जो डर कर भागे, वे पहाड़ से नीचे गिर कर मर गए। बतरा की वीर गति का संदेश नीचे मुख्यालय में पहुंचा, तो सफलता का जश्न शोक में बदल गया। एक महान योद्धा का गमन भारतीय सेना के लिए बहुत बड़ी हानि थी। विक्रम बतरा ने क्षेत्र को शत्रु से मुक्त करवा दिया था। यह अपने आप में एक महान उपलब्धि थी। अपूर्व शौर्य प्रदर्शन करने वाले वीर विक्रम बतरा के सम्मान में शिखर 4875 का नाम अब ‘कैप्टन विक्रम बतरा शिखर’ रखा गया है।

-ये विचार लेखक की किताब ‘कारगिल में शूरवीर विक्रम बतरा’ से लिए गए हैं।


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