कुंडलिनी की अवस्थिति

By: Sep 23rd, 2017 12:05 am

नाभि-मंडल में सूर्य का निवास है। सूर्य और चंद्र दोनों अधोमुखी हैं। सूर्य इस अमृतमयी शक्ति को जलाता और नष्ट करता रहता है। वास्तव में आकाश में चमकने वाली बिजली के समान इस शरीर के अंदर भी एक अग्नि है…

साधना और तंत्र-मंत्र में कुंडलिनी की उपयोगिता से भला कौन इनकार कर सकता है। जब यह जाग जाती है तो सकल कार्य सिद्ध हो जाते हैं। इस अंक में हम कुंडलिनी की अवस्थिति पर चर्चा करेंगे। मेरुदंड में दायीं ओर सूर्य नाड़ी और बायीं ओर चंद्र नाड़ी है। मध्य में सुषुम्ना है, जो सूर्य, चंद्र और अग्निरूपा है। योग में सूर्य नाड़ी को इड़ा और चंद्र नाड़ी को पिंगला कहा गया है। प्राचीन योगियों के मतानुसार सुषुम्ना गुदास्थि की त्रिकोणीय पीठ पर टिकी है। योग शास्त्रों में इसी स्थल को ब्रह्मांड का द्वार बताया गया है। गुदास्थि और त्रिकस्थि के सामने की मूलाधार शिरा और उसके ऊपर की पेशी का आकाश मुर्गी के अंडे जैसा है। इसे कंड कहते हैं। इसी कंड के केंद्र में कुंडलिनी सोई पड़ी रहती है। सिर के ऊर्ध्व में चंद्रमा का स्थान है, जिसे सहस्रार कहा गया है। चंद्रमा से अमृत टपकता रहता है। यह अमृत शरीर में शक्ति के रूप में विद्यमान रहता है। नाभि-मंडल में सूर्य का निवास है। सूर्य और चंद्र दोनों अधोमुखी हैं। सूर्य इस अमृतमयी शक्ति को जलाता और नष्ट करता रहता है। वास्तव में आकाश में चमकने वाली बिजली के समान इस शरीर के अंदर भी एक अग्नि है। आकाश में स्थित सूर्य के समान ही नाभि-मंडल में एक सूर्य है। यह सूर्य विष टपकाता रहता है, लेकिन जब इसे ऊर्ध्वमुखी कर दिया जाता है, तब इससे अमृत झरता है। तालुमूल में चंद्र स्थित है, जो अधोमुखी है, जिससे सदा अमृत बरसता रहता है। प्राणधारा अधोमुखी होकर क्षीण होती रहती है। कुंडलिनी के जागृत होते ही अधोमुखी सूर्य ऊर्ध्वमुखी हो जाने से अमृत की वर्षा होने लगती है। इसके बाद कुंडलिनी की भी ऊर्ध्वगति आरंभ हो जाती है। सुषुम्ना नाड़ी से होकर यह शक्ति सहस्रार की ओर बढ़ने लगती है। जननी सुषुम्ना कमल की नाल जैसी है। उसकी भीतरी नाड़ी को वज्रा कहा जाता है। इसके भीतर चित्रिणी नाड़ी है, जिससे कुंडलिनी शक्ति संचरित होती है। इसी चित्रिणी में षट्चक्र हैं। कुंडलिनी शक्ति जब ऊर्ध्वगामी होती है, तब ये चक्र खुलने लगते हैं। योग में इसे ही चक्रवेधन कहा जाता है। कुंडलिनी शक्ति को जगाने के लिए ऋषियों ने कई योगों का वर्णन किया है, जिनमें हठयोग, राजयोग, मंत्रयोग, भक्तियोग, कर्मयोग, ज्ञानयोग, लययोग और सिद्धियोग आदि हैं। कुंडलिनी न जागने और प्रकृति तथा पुरुष अथवा शक्ति और शिव का संयोग न होने तक जन्म और मृत्यु का चक्र चलता रहता है। जब यह योग संपन्न हो जाता है, तब अमरत्व या मोक्ष की प्राप्ति होती है। कहा जाता है कि एक बार शिवजी के गले में मुंडों की माला को देखकर भगवती पार्वती ने शिवजी से पूछा, ‘आप इन्हें क्यों धारण किए हैं?’ इस पर शिवजी ने जवाब दिया, ‘पार्वती, तुम कई बार जन्मी और मृत्यु को प्राप्त हुईं। ये मुंड तुम्हारे ही हैं और सूचित करते हैं कि तुम्हारे कितने जन्म हुए हैं।’ पार्वती ने यह सुनकर अमरत्व की इच्छा प्रकट की। तब शिवजी ने उन्हें मंत्र दिया। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से यही कहा है, ‘हे अर्जुन, तुम्हारे अनेक जन्म हुए, तुम हालांकि मेरे ही अंश हो, तथापि तुम इस ज्ञान को भूल गए हो। तुम्हें यह याद नहीं। अब मैं तुम्हें यह ज्ञान देता हूं।’ शिव और शक्ति का मिलन और फिर उनका कभी वियोग न होना ही अमरत्व है। वेदों ने इसे स्वीकार करते हुए कहा है, ‘उसको जानकर ही मृत्यु को पार किया जा सकता है। इसका अन्य कोई उपाय नहीं है।’ क्रिया-भेद से कुंडलिनी चार प्रकार से प्रकट होती है-क्रियावती, वर्णमयी, कलात्मा और वेधमयी। कुंडलिनी शक्ति सुषुम्ना मार्ग से षट्चक्रों को वेधती हुई शिव से जा मिलती है। कुंडलिनी शक्ति मूलाधार चक्र से उठकर और मणिपुर चक्र से होती हुई हृदयाकाश और भ्रूमध्य (आज्ञा चक्र) को पार करती हुई सहस्रार में अपने पति शिव के साथ विहार करती है।


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