गीता रहस्य स्वामी रामस्वरूप

By: Sep 16th, 2017 12:05 am

यजुर्वेद मंत्र 40/7 का भाव है कि जो योगीजन वैदिक ज्ञान-विज्ञान को जानकर कठोर योगाभ्यास आदि उपासना के द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार कर लेते हैं, उन्हें तो मोह और शोक आदि क्लेश प्राप्त नहीं होते। परंतु जो संसारी विषयों में फंसकर ईश्वर को भूल जाते हैं, वह संपूर्ण आयु संसारी पदार्थों का ही चिंतन करते हैं एवं मोह-लोभ, शोक आदि दोषों में फंसे रहते हैं…

परंतु जो मनुष्य वेद, शास्त्र एवं धर्म के विरुद्ध पाप कर्म करते हैं, उन्हें अंत समय में अपने किए हुए पाप कर्मों का ही स्मरण होता है और वह अगले जन्म में नीचे योनियों में जन्म पाकर दुःख के सागर में गोते लगाते रहे हैं। अतः प्राणी मृत्यु रूपी क्लेश एवं दुःखों को त्याग कर मोक्ष सुख को प्राप्त करें, जिसके लिए वह वेद मार्ग पर चलता रहे। श्लोक 8/6 में श्रीकृष्ण ने वेद विद्या पर आधारित ही ‘तदभावभावितः’ पद कहकर ऊपर कहा, यही ज्ञान दिया है कि प्राणी जीवन भर में किए हुए अपने कर्मों के आधार पर ही उन कर्मों से प्रभावित होकर अंत समय में उन्हीं शुभ अथवा अशुभ कर्मों को स्मरण करता हुआ शरीर त्यागता है और कर्मानुसार जीवात्मा मनुष्य अथवा पशु-पक्षी का शरीर धारण करता है और तद अनुसार सुख-दुःख भोगता है। अथर्ववेद मंत्र 4/35/12 में ईश्वर ने यही समझाया है कि ईश्वर ने ज्ञान रूपी भोजन चारों वेदों के रूप में मनुष्य के कल्याण के लिए दिया और ‘तेन ओदनेन मृत्युम अतितरणि’ अर्थात यही आत्म ज्ञान हमें जन्म एवं मृत्यु से बचाने वाला है। अब यदि हम श्रीकृष्ण जी की तरह वेद सुनते रहेंगे, तब ही हमारा कल्याण होता। मंत्र 4/34/5 में कहा, तपसा श्रमेण मृत्युम अति अतरन अर्थात तप और कठोर परिश्रम के द्वारा ज्ञान प्राप्त करके मनुष्य मृत्यु को पार कर जाता है। यही तप और कठोर परिश्रम जो कि शुभ कर्मों को करने के लिए किया जाता है, उसके संस्कार मनुष्य के चित्त पर पडते हैं और उन संस्कारों के तदभावभावितः उसी भावन को प्राप्त होता है अर्थात भावों से प्रभावित हुआ प्राणी तम एवं एति, से अंत समय में उन्हीं शुभ कर्मों को स्मरण करता हुआ भवसागर से पार हो जाता है। अतः ईश्वर ने जो हमें वेदों का ज्ञान दिया तो हम विद्वान पुरुषों से वेदों को सुन-सुनकर अपने जीवन में करने योग्य कर्मों को करते-करते जीवनयापन करें, जिससे अंत समय में हमें उन्हीं शुभ कर्मों का स्मरण हो। श्लोक 8/6 में श्रीकृष्ण महाराज अर्जुन से कह रहे हैं कि हे कुंती पुत्र! अंत समय में जिस-जिस भी भावना को स्मरण करता हुआ शरीर को त्यागता है, तब वह उसी भावना से प्रभावित हुआ उस भाव को ही सदा प्राप्त होता है। यजुर्वेद मंत्र 40/7 का भाव है कि जो योगीजन वैदिक ज्ञान-विज्ञान को जानकर कठोर योगाभ्यास आदि उपासना के द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार कर लेते हैं, उन्हें तो मोह और शोक आदि क्लेश प्राप्त नहीं होते। परंतु जो संसारी विषयों में फंसकर ईश्वर को भूल जाते हैं, वह संपूर्ण आयु संसारी पदार्थों का ही चिंतन करते हैं एवं मोह-लोभ, शोक आदि दोषों में फंसे रहते हैं। श्रीकृष्ण श्लोक 8/6 में यह भाव बता रहे हैं कि जो भी मनुष्य संसार में रहते हुए संसार के जिस-जिस विषयों में आसक्ति रखता है, अंत काल में वह उसी-उसी विषय का चिंतन करता है, क्योंकि वह सब विषय उसके चित्त पर संसारी कर्मों के के संस्कार के रूप में अंतिम रहते हैं और अंत समय में वही विषय उसकी स्मृति में आते हैं। जैसा कि यजुर्वेद मंत्र 7/48 में कहा कि किए हुए कर्म का फल अवश्य भोगना होता है। अतः प्राणी पाप कर्म से डर कर संपूर्ण आयु वैदिक शुभ कर्म ही करे और अधर्मयुक्त कर्मों का सदा त्याग कर दे। यजुर्वेद मंत्र 40/5 कहता है कि जो संपूर्ण आयु वैदिक शुभ कर्म करते हैं, यज्ञ एवं ईश्वर के नाम का स्मरण करते हैं, तब वह कृतम स्मर अर्थात जो कुछ जीवन में शुभ किया है, उसको स्मरण करें। भाव यह है कि जो पुरुष वेदानुकूल कर्म, उपासना एवं ज्ञान, तीनों विद्याओं को जीवन में धारण करता है और धर्म में रुचि रखता हुआ गृहस्थादि आश्रमों में सदा वैदिक शुभ कर्म करता है, वह जीवन में किए हुए उन्हीं शुभ कर्मों के संस्कारों के फलस्वरूप अंत समय में उन्हीं-उन्हीं शुभ कर्मों का स्मरण करता है और शुभ कर्मानुसार उसका अगला जन्म उत्तम कुल में होता है अथवा मोक्ष हो जाता है। श्लोक 8/7 में श्रीकृष्ण महाराज अर्जुन से कह रहे हैं कि हे अर्जुन! तू सब समय में मेरा आत्मज्ञान प्राप्त करके स्मरण कर और युद्ध कर, मेरे में अर्पित मन, बुद्धि वाला होकर मुझ को ही प्राप्त होगा, इसमें कुछ भी संदेह नहीं है। भाव-  यह पूर्णतः स्पष्ट है कि गीता ग्रंथ में जो श्रीकृष्ण महाराज ने वैदिक उपदेश दिया है, उसका मुख्य ध्येय अर्जुन से धर्मयुद्ध कराना ही है, अर्जुन को ब्रह्मज्ञान आदि देकर भगवान का भजन कराना नहीं है। अतः श्लोक 8/7 में श्रीकृष्ण महाराज ने स्पष्ट कह दिया कि हे अर्जुन! जो यह ज्ञान मैं तुझे दे रहा हूं और जो मेरे वैदिक भाव है, ‘सर्वेषु कालेषु माम् अनुस्मर’ अर्थात तू अब प्रत्येक क्षण मेरा ही स्मरण कर। ‘अनु’ का अर्थ है ‘इसके बाद’ अर्थात मेरे द्वारा दिए ज्ञान को सुनने के बाद मेरे ही इस वैदिक ज्ञान का स्मरण कर ‘च युद्ध’ और युद्ध कर। हे अर्जुन! तू अपना मन और बुद्धि इससे पृथक अर्थात विपरीत दिशा में मन ले जा। अतः श्लोक 8/7 में अर्जुन को पुनः कहा ‘मयि अर्पित मनोबुद्धिः’ मेरे में मन, बुद्धि को अर्पम करके ‘माम् एव एष्यसि’ तू मुझको ही प्राप्त होगा। यहां कहना अनुचित न होगा कि वैदिक ज्ञान अद्भुत आनंददायक एवं मोक्षदायक है।


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