घरेलू स्पर्धा को मिले प्रोत्साहन

By: Sep 5th, 2017 12:05 am

डा. भरत झुनझुनवाला

लेखक, आर्थिक विश्लेषक एवं टिप्पणीकार हैं

डा. भरत झुनझुनवालासंरक्षण से अकुशल उत्पादन सदा चलता रहेगा, यह जरूरी नहीं है। इतना सही है कि उद्यमियों द्वारा कुशल उत्पादन तब ही किया जाता है, जब उन्हें प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़े। लेकिन इस प्रतिस्पर्धा का वैश्विक होना जरूरी नहीं है। घरेलू प्रतिस्पर्धा से भी यह कुशलता हासिल की जा सकती है। जैसे चमड़े, काली मिर्च एवं दवाओं का अपने देश में आयात कम ही होता रहा है। फिर भी हम विश्व में इनका न्यूनतम दाम पर उत्पादन कर रहे हैं। यह सुखद परिणाम घरेलू प्रतिस्पर्धा का है…

डोकलाम पर फिलहाल संकट के बादल छंट गए हैं। डोकलाम की पृष्ठभूमि में देश में मांग उठ रही है कि चीन के माल का बहिष्कार किया जाए। यह बहिष्कार यदि जनता द्वारा स्वेच्छा से किया जाता है, तो इसमें कोई कानूनी अड़चन नहीं आती है। परंतु जनता द्वारा इस प्रकार का बहिष्कार सफल होने के लिए गांधी जैसे व्यक्तित्व की जरूरत होती है। तब ही मैंचेस्टर के सस्ते कपड़े का बहिष्कार हो सका था। द्वितीय स्तर पर यह बहिष्कार आयात कर लगा कर किया जा सकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसी पहली दिशा में हुंकार भरी है। इन्होंने कहा है कि देश को आयातित माल का स्वदेशी उत्पादन करना चाहिए। जैसे चीन से आयातित सस्ते सीएफएल बल्बों का हम उतना ही सस्ता उत्पादन स्वयं करने लगें, तो चीन से बल्ब का आयात कम हो जाएगा, लेकिन नीति आयोग ने इसके ठीक विपरीत सुझाव दिया है। आयोग ने कहा है कि सभी माल का देश में उत्पादन करने में हमारी प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता का हृस होगा। देश के दीर्घकालीन विकास के लिए जरूरी है कि हम संपूर्ण विश्व में सबसे सस्ते से सस्ता माल बनाएं। घरेलू उत्पादन को बढ़ावा देने पर हम इस लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाएंगे। जैसे मान लीजिए वर्तमान में चीनी सीएफएल बल्ब 80 रुपए में उपलब्ध है, जबकि स्वदेशी बल्ब 100 रुपए में। हमारे उद्योग पिट रहे हैं। ऐसे में प्रधानमंत्री के चिंतन के अनुरूप सरकार ने चीनी बल्बों पर 30 रुपए का आयात कर लगा दिया। इससे हमारे बाजार में चीनी बल्ब का दाम 110 रुपए हो गया। हमारे बल्ब उद्योग को संरक्षण मिला और वह चल निकला।

नीति आयोग का कहना है कि घरेलू उद्योग को ऐसा संरक्षण नहीं देना चाहिए, चूंकि तब हमारे उद्यमी 100 रुपए में बल्ब बनाकर प्रसन्न रहेंगे, चूंकि उनका माल बिकता रहेगा। वे तकनीकी सुधार के प्रयास नहीं करेंगे, जिससे हम भी 80 रुपए में बल्ब बना सकें। हम महंगे माल को बनाने के आदी हो जाएंगे और वैश्विक प्रतिस्पर्धा में पिछड़ जाएंगे। हमारे उद्यमी विश्व बाजार में अपनी पैठ कभी भी नहीं बना पाएंगे। हम सदा ही संरक्षण की बैसाखी पर जीते रहेंगे। नीति आयोग के अनुसार उद्यमों को प्रतिस्पर्धा के चाबुक से मार कर कुशल बनाना होता है। नीति आयोग के दृष्टिकोण में कई कमियां हैं। पहली कमी यह है कि संरक्षण से अकुशल उत्पादन सदा चलता रहेगा, यह जरूरी नहीं है। इतना सही है कि उद्यमियों द्वारा कुशल उत्पादन तब ही किया जाता है, जब उन्हें प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़े। लेकिन इस प्रतिस्पर्धा का वैश्विक होना जरूरी नहीं है। घरेलू प्रतिस्पर्धा से भी यह कुशलता हासिल की जा सकती है। जैसे चमड़े, काली मिर्च एवं दवाओं का अपने देश में आयात कम ही होता रहा है। फिर भी हम विश्व में इनका न्यूनतम दाम पर उत्पादन कर रहे हैं। यह सुखद परिणाम घरेलू प्रतिस्पर्धा का है। अतः सही नीति यह है कि घरेलू उद्योगों को संरक्षण देने के साथ-साथ घरेलू प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा दिया जाए। जैसे कालेज के छात्रों को दूसरे कालेजों के छात्रों से संरक्षण दिया जाता है, परंतु अपने कालेज में आपसी फ्रेंडली मैच खेले जाते हैं।

तब हम चीनी आयातों से भी बच सकेंगे और कुशल उत्पादन भी कर सकेंगे। नीति आयोग के दृष्टिकोण में दूसरी कमी उद्यमिता के विकास को नजरअंदाज करने की है। 10वीं में पढ़ रहे छात्र को पहलवान से कुश्ती करने को दंगल में उतार दिया जाए तो वह निश्चित रूप से हारेगा। इसी प्रकार देश में उठ रहे नए छोटे उद्योगों को सीधे बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों से प्रतिस्पर्धा में झोंक दिया जाए, तो वे निश्चित रूप से हार जाएंगे। अपने देश में इस प्रक्रिया के तमाम उद्योग शिकार हो चुके हैं। जैसे पूर्व में हर छोटे शहर में अपने अखबार छपते थे, अपनी डबल रोटी और सोडा वाटर की फैक्टरी थी इत्यादि। आज पूरे बाजार पर बड़ी कंपनियिं ने कब्जा कर लिया है। इससे ग्राहक को सस्ता एवं अच्छा माल भी उपलब्ध हुआ है। परंतु देश के नागरिकों की उद्यमिता का विकास ठप्प हो गया है। 10वीं के छात्र को पहलवान बनाना हो तो पहले समकक्ष छात्र प्रतिद्वंदियों के सामने दंगल में उतारना पड़ता है। जूनियर प्रतिस्पर्धा में अव्वल आ जाए, तब पहलवान से वह टक्कर ले सकता है। यदि छात्र स्तर पर 10वीं के छात्र को कुश्ती का अवसर ही नहीं दिया जाए तो वह कभी भी पहलवान नहीं बन सकता है।

इसी प्रकार छोटे उद्यमियों को समकक्ष दूसरे छोटे उद्यमियों से प्रतिस्पर्धा करने का अवसर ही नहीं दिया जाए तो वे कभी भी बड़े उद्यमी नहीं बनेंगे। इस प्रकार के संरक्षण को अर्थशास्त्र में ‘इनफैंट इंडस्ट्री’ अथवा ‘बाल उद्योग’ संरक्षण कहा जाता है। नीति आयोग उद्यमिता के विकास के इस पक्ष को नजरंदाज कर रहा है। नीति आयोग के दृष्टिकोण में तीसरी कमी जनहित की अनदेखी है। कार्ल मार्क्स ने इस संबंध में एक रोचक कहानी बताई थी। एक बच्चा मां से पूछता है कि मां घर को गर्म रखने के लिए कोयला क्यों नहीं है। मां उत्तर देती है, बेटा कोयले का उत्पादन ज्यादा है, इसलिए कोयला नहीं है। बेटा फिर पूछता है, जब कोयले का उत्पादन ज्यादा है, तो फिर घर में कोयला क्यों नहीं है। मां उत्तर देती है, कोयले का उत्पादन ज्यादा होने से तुम्हारे पिता को नौकरी से हटा दिया गया है और उनके पास कोयला खरीदने को पैसा नहीं है। इसी प्रकार मान लीजिए देश में सस्ते चीनी सीएफएल बल्ब उपलब्ध हो गए, परंतु स्वदेशी बल्ब उद्योग के बंद हो जाने से उसमें कार्यरत कर्मी बेरोजगार हो गया है और वह बाजार में उपलब्ध सस्ते चीनी सीएफएल बल्ब को खरीद नहीं पा रहा है। वह अंधेरे में जीवनयापन कर रहा है। स्वदेशी उत्पादन के रोजगार पर पड़ने वाले इस सुप्रभाव को नीति आयोग नजरअंदाज कर रहा है। आम आदमी से नीति आयोग को कुछ लेना-देना नहीं है। अतः प्रधानमंत्री मोदी को वर्तमान नीति आयोग को बर्खास्त कर देना चाहिए।

इस नीति को लागू करने में एक रोड़ा विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) का है। डब्ल्यूटीओ ने कई ऐसे नियम बना रखे हैं, जो सदस्य देशों को अपने मन मुताबिक व्यापार की इजाजत नहीं देते। इन व्यापारिक बंदिशों के कारण विभिन्न देशों को अपनी व्यापार नीति में कई मर्तबा अनचाहे दबाव को झेलना पड़ता है। डब्ल्यूटीओ के नियमों के अनुसार हम एक सीमा से अधिक आयात कर नहीं लगा सकते हैं। अतः प्रधानमंत्री को तत्काल निर्देश देना चाहिए कि डब्ल्यूटीओ के अंतर्गत स्वीकार अधिकतम स्तर पर आयात कर लगाए जाएं। दूसरे डब्ल्यूटीओ में ‘एंटी डंपिंग’ की व्यवस्था है। यदि कोई देश अपना माल उत्पादन लागत से कम पर दूसरे देश में बेच रहा हो, तो खरीददार देश को अधिक आयात कर लगाने की छूट है। जैसे मान लीजिए सीएफएल बल्ब की असल उत्पादन लागत 90 रुपए है। चीन की कंपनियां इसे अमरीका में 140 रुपए में बेच रही है और पर्याप्त लाभ कमा रही है। परंतु अमरीका में बल्ब की बिक्री की एक सीमा है। अपनी फैक्टरियों का चक्का चलाते रखने के लिए वे भारत में 80 रुपए में उस बल्ब को बेच देते हैं, जिसकी उत्पादन लागत 90 रुपए है। ऐसे में भारत सरकार बल्ब पर अतिरिक्त ‘एंटी डंपिंग’ टैक्स लगा सकती है। प्रधानमंत्री को चाहिए कि इन व्यवस्थाओं का लाभ उठाकर अधिकाधिक आयात कर लगाएं और साथ-साथ घरेलू प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा दें।

ई-मेल : bharatjj@gmail.com


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