जिंदा हैं धर्मवीर भारती… आज भी, कल भी

By: Sep 3rd, 2017 12:10 am

डॉ. धर्मवीर भारती आधुनिक हिंदी साहित्य के प्रमुख लेखक, कवि, नाटककार और सामाजिक विचारक थे। वह साप्ताहिक पत्रिका धर्मयुग के प्रधान संपादक भी रहे। डॉ. धर्मवीर भारती को 1972 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया। उनका उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ हिंदी साहित्य के इतिहास में सदाबहार माना जाता है। दूसरे उपन्यास ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ पर तो फिल्म भी बनी है। इनका नाटक ‘अंधा युग’ भी सर्वाधिक पठनीय कृतियों में शामिल रहा है। पाठक को सम्मोहित करने में इनका कोई सानी नहीं था, इसीलिए इनकी कृतियां खूब बिकीं व पढ़ी भी गईं। इन्हें प्रेम, रोमांस व रोमांच का रचनाकार माना जाता है। इनकी कई रचनाएं कालजयी हैं, इसी कारण माना जाता है कि मरने के बावजूद साहित्य में वह कल भी जीवित थे, आज भी जीवित हैं और कल भी जीवित रहेंगे।

जन्म

धर्मवीर भारती का जन्म 25 दिसंबर 1926 को इलाहाबाद के अतरसुइया नामक मोहल्ले में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री चिरंजीवलाल वर्मा और माता का नाम श्रीमती चंदादेवी था। भारती के पूर्वज पश्चिमी उत्तर प्रदेश में शाहजहांपुर जिले के खुदागंज नामक कस्बे के जमींदार थे। संस्कार देते हुए बड़े लाड़-प्यार से माता-पिता अपने दोनों बच्चों धर्मवीर और उनकी छोटी बहन वीरबाला का पालन कर रहे थे कि अचानक उनकी मां सख्त बीमार पड़ गईं, दो साल तक बीमारी चलती रही। बहुत खर्च हुआ और पिता पर कर्ज चढ़ गया। मां की बीमारी और कर्ज से वह मन से टूट से गए और स्वयं भी बीमार पड़ गए। 1939 में उनकी मृत्यु हो गई।

शिक्षा

इन्हीं दिनों पाठ्य पुस्तकों के अलावा कविताएं तथा अंग्रेजी उपन्यास पढ़ने का बेहद शौक जागा। स्कूल खत्म होते ही घर में बस्ता पटक कर वाचनालय में भाग जाते, वहां देर शाम तक किताबें पढ़ते रहते। इंटरमीडिएट में पढ़ रहे थे कि गांधी जी के आह्वान पर पढ़ाई छोड़ दी और आजादी की लड़ाई में कूद पड़े। सुभाष चंद्र बोस के प्रशंसक थे, बचपन से ही शस्त्रों के प्रति आकर्षण भी जाग उठा था, इसलिए हर समय हथियार साथ में लेकर चलने लगे और सशस्त्र क्रांतिकारी दल में शामिल होने के सपने मन में संजोने लगे। लेकिन अंततः मामा जी के समझाने-बुझाने के बाद एक वर्ष का नुकसान करने के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय में स्नातक की पढ़ाई के लिए दाखिला लिया। कोर्स की पढ़ाई के साथ-साथ उन्हीं दिनों शैली, कीट्स, वर्ड्सवर्थ, टॅनीसन, एमिली डिकिन्सन तथा अनेक फ्रांसीसी, जर्मन और स्पेन के कवियों के अंग्रेजी अनुवाद पढ़े। एमिल जोला, शरतचंद्र, गोर्की, क्युप्रिन, बालजाक, चार्ल्स डिकेन्स, विक्टर ह्यूगो, दॉस्तोयव्स्की और तॉल्सतोय के उपन्यास खूब डूब कर पढ़े।

लेखन और पत्रकारिता

स्नातक, स्नातकोत्तर की पढ़ाई ट्यूशनों के सहारे चल रही थी। उन्हीं दिनों कुछ समय श्री पद्मकांत मालवीय के साथ ‘अभ्युदय’ में काम किया, इलाचंद्र जोशी के साथ ‘संगम’ में काम किया। इन्हीं दोनों से उन्होंने पत्रकारिता के गुर सीखे थे। कुछ समय तक हिंदुस्तानी एकेडेमी में भी काम किया। उन्हीं दिनों ख़ूब कहानियां भी लिखीं। ‘मुर्दों का गांव’ और ‘स्वर्ग और पृथ्वी’ नामक दो कहानी संग्रह छपे। छात्र जीवन में भारती पर शरत चंद्र चट्टोपाध्याय, जयशंकर प्रसाद और ऑस्कर वाइल्ड का बहुत प्रभाव था। उन्हीं दिनों वह माखन लाल चतुर्वेदी के संपर्क में आए और उन्हें पिता तुल्य मानने लगे। दादा माखनलाल चतुर्वेदी ने भारती को बहुत प्रोत्साहित किया।

उच्च शिक्षा और प्रगतिशील लेखक संघ

स्नातक में हिंदी में सर्वाधिक अंक मिलने पर प्रख्यात ‘चिंतामणि गोल्ड मेडल’ मिला। स्नातकोत्तर अंग्रेजी में करना चाहते थे, पर इस मेडल के कारण डॉ. धीरेंद्र वर्मा के कहने पर उन्होंने हिंदी में नाम लिखा लिया। स्नातकोत्तर की पढ़ाई करते समय मार्क्सवाद का उन्होंने धुआंधार अध्ययन किया। प्रगतिशील लेखक संघ के स्थानीय मंत्री भी रहे लेकिन कुछ ही समय बाद साम्यवादियों की कट्टरता तथा देशद्रोही नीतियों से उनका मोहभंग हुआ। तभी उन्होंने छहों भारतीय दर्शन, वेदांत तथा बड़े विस्तार से वैष्णव और संत साहित्य पढ़ा और भारतीय चिंतन की मानववादी परंपरा उनके चिंतन का मूल आधार बन गई।

शोध कार्य

डॉ. धीरेंद्र वर्मा के निर्देशन में सिद्ध साहित्य पर शोध कार्य चल रहा था। साथ ही साथ उस समय कई कविताएं लिखी गई जो बाद में ‘ठंडा लोहा’ नामक पुस्तक के रूप में छपी। उन्हीं दिनों ‘गुनाहों का देवता’ उपन्यास लिखा। साम्यवाद से मोहभंग के बाद ‘प्रगतिवाद ः एक समीक्षा’ नामक पुस्तक लिखी। कुछ अंतराल के बाद ही ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ जैसा अनोखा उपन्यास भी लिखा।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिंदी प्राध्यापक

शोधकार्य पूरा करने के बाद वहीं विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक के रूप में नियुक्ति हो गई। देखते ही देखते बहुत लोकप्रिय अध्यापक के रूप में उनकी प्रशंसा होने लगी। उसी दौरान ‘नदी प्यासी थी’ नामक एकांकी नाटक संग्रह और ‘चांद और टूटे हुए लोग’ नाम से कहानी संग्रह छपे। ‘ठेले पर हिमालय’ नाम से ललित रचनाओं का संग्रह छपा और शोध प्रबंध ‘सिद्ध साहित्य’ भी छप गया। मौलिक लेखन की गति बड़ी तेजी से बढ़ रही थी। साथ ही अध्ययन भी पूरी मेहनत से किया जाता रहा। उस दौरान अस्तित्ववाद तथा पश्चिम के अन्य नए दर्शनों का विशद अध्ययन किया। रिल्के की कविताओं, कामू के लेख और नाटकों, ज्यां पॉल सार्त्र की रचनाओं और कार्ल मार्क्स की दार्शनिक रचनाओं में मन बहुत डूबा। साथ ही साथ महाभारत, गीता, विनोबा भावे और राम मनोहर लोहिया के साहित्य का भी गहराई से अध्ययन किया। गांधीजी को नई दृष्टि से समझने की कोशिश की।

मुंबई और संपादन

इसी बीच 1954 में श्रीमती कौशल्या अश्क द्वारा सुझाई गई एक पंजाबी शरणार्थी लड़की कांता कोहली से विवाह हो गया। संस्कारों के तीव्र वैषम्य के कारण वह विवाह असफल रहा। बाद में संबंध विच्छेद हो गया। लेखन का काम अबाध चल रहा था। सात गीत वर्ष, अंधायुग, कनुप्रिया और देशांतर प्रकाशित हो चुके थे। कुछ ही समय बाद मुंबई से एक प्रस्ताव ‘धर्मयुग’ के संपादन का आया। ‘निकष’ को आगे न चला पाने की कसक मन में थी ही, संपादन की ललक ने प्रस्ताव पर विचार किया और विश्वविद्यालय से एक वर्ष की छुट्टी लेकर 1960 मे मुंबई चले आए।

पुनर्विवाह

धर्मयुग के संपादन में नए क्षितिज नजर आने लगे, साहित्यिक लेखन से इतर अपने देश के लिए बहुत कुछ बड़े काम किए जा सकते हैं, यह समझ में आने लगा तो विश्वविद्यालय की नौकरी से त्यागपत्र देकर पूरे समर्पण के साथ धर्मयुग के संपादन में ध्यान केंद्रित किया। इस दौरान एक अत्यंत शिक्षित और संभ्रांत परिवार में जन्मी इलाहाबाद विश्वविद्यालय की शोध छात्रा, जो कलकत्ता के शिक्षायतन कॉलेज में हिंदी की प्राध्यापक बन चुकी थी, से विवाह किया। यही पुष्पलता शर्मा बाद में पुष्पा भारती नाम से प्रख्यात हुईं।

रचनाएं

कविता

ठंडा लोहा (1952), सात गीत वर्ष (1959), कनुप्रिया (1959), सपना अभी भी (1993), आद्यन्त (1999)

पद्यनाटक

अंधायुग (1954)

कहानी संग्रह

मुर्दों का गांव (1946), स्वर्ग और पृथ्वी (1949), चांद और टूटे हुए लोग (1955), बंद गली का आखिरी मकान (1969), सांस की कलम से (पुष्पा भारती द्वारा संपादित संपूर्ण कहानियां)(2000)

उपन्यास

गुनाहों का देवता (1949), सूरज का सातवां घोड़ा (1952), ग्यारह सपनों का देश (प्रारंभ और समापन)1960

निबंध

ठेले पर हिमालय (1958), कहनी अनकहनी (1970), पश्यंती (1969), साहित्य विचार और स्मृति (2003)

रिपोर्ताज

मुक्त क्षेत्रे, युद्ध क्षेत्रे (1973), युद्ध यात्रा (1972)

आलोचना

प्रगतिवाद : एक समीक्षा (1949), मानव मूल्य और साहित्य (1960)

एकांकी नाटक

नदी प्यासी थी (1954)

बीमारी और निधन

1989 में हृदय रोग से गंभीर रूप से बीमार हो गए। मुंबई अस्पताल के डॉ. बोर्जेस के अथक प्रयासों और गहन चिकित्सा के बाद बच तो गए किंतु स्वास्थ्य फिर कभी पूरी तरह सुधरा नहीं। कई प्रकार के तनावों को झेलते हुए सत्ताइस बरस की रात और दिन की बेइंतिहा दिमागी मेहनत से शरीर काफी अशक्त हो चुका था। वह केवल अद्भुत इच्छा शक्ति के साथ काम करते रहे थे। अंततः 4 सितंबर 1997 को नींद में ही मृत्यु को वरण कर लिया।

सम्मान एवं पुरस्कार

1967 में संगीत नाटक अकादमी सदस्यता, दिल्ली, 1984 में हल्दीघाटी श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार, राजस्थान, 1985 में साहित्य अकादमी रत्न सदस्यता, दिल्ली, 1986 में संस्था सम्मान, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, 1988 में सर्वश्रेष्ठ नाटककार पुरस्कार, संगीत नाटक अकादमी, दिल्ली, 1988 में सर्वश्रेष्ठ लेखक सम्मान  महाराणा मेवाड़ फाउंडेशन, राजस्थान, 1989 में गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार केंद्रीय हिंदी संस्थान आगरा, 1989 में राजेंद्र प्रसाद शिखर सम्मान, बिहार सरकार, 1990 में भारत भारती सम्मान, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, 1990 में महाराष्ट्र गौरव, महाराष्ट्र सरकार, 1991 में साधना सम्मान, केडिया हिंदी साहित्य न्यास मध्यप्रदेश, 1992 में महाराष्ट्राच्या सुपुत्रांचे अभिनंदन, 1994 में व्यास सम्मान व 1996-97 में अन्य सम्मान।


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