जीवन के लिए होती है कला

By: Sep 23rd, 2017 12:05 am

गुरुओं, अवतारों, पैगंबरों, ऐतिहासिक पात्रों तथा कांगड़ा ब्राइड जैसे कलात्मक चित्रों के रचयिता सोभा सिंह भले ही पंजाब से थे, लेकिन उनका अधिकतर जीवन अंद्रेटा (हिमाचल) की प्राकृतिक छांव में सृजनशीलता में बीता। इन्हीं की जीवनी और उनके विविध विषयों पर विचारों को लेकर आए हैं प्रसिद्ध लेखक डॉ, कुलवंत सिंह खोखर। उनकी लिखी पुस्तक ‘सोल एंड प्रिंसिपल्स’ में सोभा सिंह के दार्शनिक विचारों का संकलन व विश्लेषण किया गया है। किताब की विशेषता यह है कि इसमें कला या चित्रकला ही नहीं, बल्कि अन्य सामाजिक विषयों पर भी मंथन किया गया है। आस्था के विभिन्न अंकों में हम उन पर लिखी इसी किताब के मुख्य अंश छापेंगे जो आध्यात्मिक पहलुओं को रेखांकित करते हैं। इस अंक में पेश हैं कला पर उनके विचार :

किसी चित्रकार अथवा कलाकार के व्यक्तिगत प्रयासों को हम यथार्थवादी, भावनात्मक, काल्पनिक, परंपरागत, प्रगतिशील, आधुनिक, अत्याधुनिक आदि श्रेणी में वर्गीकृत कर सकते हैं। यह वर्गीकरण क्षेत्र, उत्पत्ति तथा व्यवहार या परिपाटी के आधार पर किया गया है। कला को कांगड़ा, मुगल, राजपूत या बांग्ला कला के रूप में वर्गीकृत किया गया है। कांगड़ा कला सबसे पहले एक शिल्प है। इसमें हर क्षण का विवरण दिया गया है तथा हर विवरण का समापन कलात्मक रूप से हुआ है। कांगड़ा कला में यथार्थ को सामने लाने का असफल प्रयास है, लेकिन इसमें सृजनात्मकता की कमी है। कांगड़ा कला का जन्म बसोहली में हुआ था। कांगड़ा के राजा का विवाह बसोहली में हुआ था। दहेज के रूप में उसे दो कलाकार भी दिए गए थे। राजा औरंगजेब द्वारा अपने दिल्ली दरबार से निष्कासित किए गए दो या तीन मुगल कलाकार भी कांगड़ा के राजा के पास आए। इन सबने मिलकर चित्रकला में जो प्रयास किए, उसे आज कांगड़ा कला कहा जाता है। यह संयुक्त प्रयास वर्ष 1776 से 1806 तक लगभग तीस वर्षों तक चलते रहे। दूसरी ओर राजपूत कला में शक्ति को अधिमान दिया गया है, लेकिन इसमें स्वाभाविकता की कमी है। कलाकार नाक को लंबा और कोमलतापूर्वक पतला बना देते हैं तथा इसमें अस्वाभाविक घुमाव है। वे आंखों को बहुत बड़ी बना देते हैं तथा ठुड्डी भी स्वाभाविक नहीं है। हालांकि इस कला में सौंदर्य जरूर है। उधर, मुसलमानों पर मानव आकृति बनाने की पाबंदी थी ताकि वे लोग इनका पूजा के उद्देश्य से प्रयोग न कर सकें। इस तरह मुगल कला में विकल्प की कमी है, फिर भी यह पौधों तथा बेल-बूटों की आकृतियों से निकलती हुई कलात्मक व सौंदर्यात्मक भाव को अभिव्यक्त करती है। बाद में इसमें कुछ बदलाव आए और धीरे-धीरे पक्षियों व जानवरों के चित्र दिखाई देने लगे। मुस्लिम कला में पवित्रता व दोष का भाव उभरा है। इसमें मौलिकता का अभाव है, लेकिन इन कलाकारों ने अपने कर्म में विषयों को परिमार्जित किया है। इसी तरह बांग्ला व मद्रास कला का भी विकास हुआ। इसमें गोल चेहरों तथा काली आंखों की प्रतिकृतियां हैं। दूसरी ओर पश्चिमी कला, जिसे आम तौर पर पश्चिम का उत्पाद माना जाता है, के सामने मुख्यतः धर्म है। बाद के समय में आदर्शवादी व रचनात्मक विषयों को भी अभिव्यक्ति मिली। तथाकथित सिख कला के बारे में ज्यादा बोलने के लिए मेरे पास कुछ नहीं है। जब लोगों को सांस लेने का समय मिला तो ऐसी चीजों की उत्पत्ति हुई। शांतिकाल की अवधि में संस्कृतियों की अभिव्यक्ति हुई है। उपद्रवी पानी जब तक शांत नहीं होता, तब तक गहराई में स्थित चीजों को कैसे देखा जा सकता है। दुर्भाग्य से सिख इतिहास, विशेषकर आरंभिक सिख इतिहास की गणना उपद्रवों की अवधि के रूप में होती है। वास्तविकता यह है कि हम यह परिभाषित नहीं कर सकते कि यह कला यह अथवा वह है। कला को जब कोई निहारता है, तो किसी को उसमें मुगल, किसी को राजपूत अथवा किसी को बसोहली कला नजर आती है। मैं समझता हूं कि संगीत, चित्रकला, साहित्य, विज्ञान और राजनीति की तरह कला भी जीवन के विकास में मदद करती है। अगर ये जीवन का विकास नहीं करते हैं, तो ये कुछ नहीं हैं। अपने आप में कला मात्र एक विषय है।


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