तंत्र में है कुंडलिनी की उपयोगिता

By: Sep 9th, 2017 12:05 am

कुंडलिनी के जागरण से साधक समस्त तंत्र क्रियाओं का विजेता बन जाता है। कोई भी तंत्र साधना उसके लिए दुष्कर नहीं रह जाती है, बल्कि तंत्र की सिद्धियां उसकी ओर स्वतः खिंची चली आती हैं। प्रत्येक तंत्र साधक को कुंडलिनी का ज्ञान होना अनिवार्य है। जिस प्रकार समस्त पृथ्वी, वन, पर्वत आदि के आधार अहिनायक विष्णु हैं, उसी प्रकार समस्त योग और तंत्र का आधार कुंडलिनी है…

त्रिपुरसुंदरी की तंत्र साधना कुंडलिनी योग पर आधारित है। कुंडलिनी के जागरण से साधक समस्त तंत्र क्रियाओं का विजेता बन जाता है। कोई भी तंत्र साधना उसके लिए दुष्कर नहीं रह जाती है, बल्कि तंत्र की सिद्धियां उसकी ओर स्वतः खिंची चली आती हैं। प्रत्येक तंत्र साधक को कुंडलिनी का ज्ञान होना अनिवार्य है। जिस प्रकार समस्त पृथ्वी, वन, पर्वत आदि के आधार अहिनायक विष्णु हैं, उसी प्रकार समस्त योग और तंत्र का आधार कुंडलिनी है। पुराणों में अध्यात्म भाव को नारायण, पुरुष, शिव और ब्रह्म आदि कहा गया है। छांदोग्योपनिषद् में वर्णित है कि जब पुरुष अथवा परमशिव ने अनेक होने की इच्छा की, तब प्रथम स्पंदन अह्म तथा दूसरा इदम् हुआ। अध्यात्म भाव (ब्रह्म) में स्पंदन होने पर भूत भाव की निसृति और भूत भाव से विसर्ग भाव जागता है। यही सृष्टि का आरंभ है। यह विसर्ग भाव ही प्रकृति अथवा शक्ति है। विष्णु को शेषशायी दिखाया गया और शिव के साथ सर्प लिपटे प्रदर्शित किए गए। ये सब पुरुष और प्रकृति, शिव और शक्ति के संयोग के प्रतीक हैं। भारतीय ऋषियों ने इस पृथ्वी को शेषनाग के फन पर रखी बताया है। यह सर्पशक्ति का प्रतीक है। श्वेताश्वतरोपनिषद् में कहा गया है कि अपने ही गुणों (सत, रज, तम) से आच्छादित इस देवात्मक शक्ति के दर्शन ऋषियों ने ध्यान द्वारा किए। यह देवात्म शक्ति, जिसे विष्णु की शैया, शिव के आभूषण या पृथ्वी को धारण करने वाले शेषनाग के रूप में चित्रित किया गया, मानव देह में स्थित है। यह शरीर इसी देवात्म शक्ति पर आधारित है। कुंडलिनी शक्ति का निवास मूलाधार चक्र में बताया गया है। यह मूलाधार चक्र रीढ़ की हड्डी के सबसे निचले छोर में है, जिसे गुदास्थि भी कहते हैं। तंत्रशास्त्रों में इसका जो उल्लेख मिलता है, उसमें कहा गया है कि यहां स्वयंभूलिंग, जिसके साढ़े तीन कुंडल मारकर कुंडलिनी शक्ति सोई पड़ी है, उसका सिर स्वयंभूलिंग के सिर पर है और वह अपनी पूंछ को अपने मुंह में डाले हुए है।  हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है कि इस शक्ति का निवास योनिस्थान में है। कुछ अन्य का मत है कि यह त्रिकस्थि और गुदास्थि के मध्य के त्रिकोण में निवास करती है। कुंडलिनी के निवास स्थान के बारे में एक सर्वमान्य और निश्चित मत यह है कि यह छियानवें अंगुल होता है। मूलाधार चक्र इस शरीर-यष्टि के मध्य में अर्थात 48वें अंगुल पर है। योगी या तंत्र साधक जब इस शक्ति को जगा देता है, तब कुंडल खुल जाते हैं, बंधन कटने लगते हैं और ऊर्ध्वगति आरंभ हो जाती है। ऋग्वेद में इस शक्ति को वाक् कहा गया है। इसी के एक मंत्र में इस शक्ति ने अपना परिचय देते हुए कहा है, ‘मैं रुद्रों, वसुओं और आदित्यों के साथ विहार करती हूं। वरुण, मित्र, इंद्र और अग्नि आदि को मैं ही उठाए हुए हूं।’ तंत्र में इसे वागेश्वरी घोषित किया गया है अर्थात ‘स्वर की उत्स, हे कुंडलिनी, तुम्ही हो।’ ऋग्वेद में यह वाग्देवी स्वयं घोषित करती है, ‘मैं जिसे चाहती हूं, उसे महान शक्तिशाली, संत, ऋषि और ब्रह्म बना देती हूं।’ इस प्रकार योग, तंत्र और पुराणों आदि में जिस कुंडलिनी का उल्लेख है, उसकी वास्तविकता और महत्ता को भारतीय ऋषियों ने सृष्टि के आदिकाल में स्वीकार किया। जब यह कुंडलिनी जाग जाती है, तब इसकी ऊर्ध्वगति आरंभ हो जाती है और एक तत्व को दूसरे तत्व में विलीन करती हुई यह परम शिव से जा मिलती है।

 


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App