दृष्टिकोण का फर्क

By: Sep 23rd, 2017 12:05 am

श्रीराम शर्मा

हर मनुष्य की अपनी एक दुनिया है। वह उसकी अपनी बनाई हुई है और वह उसी में रमण करता है। दुनिया वस्तुतः कैसी है?  इसका एक ही उत्तर हो सकता है कि वह जड़ परमाणुओं की नीरस और निर्मम हलचल मात्र है। यहां अणुओं की धूल बिखरी पड़ी है और वह किन्हीं प्रवाहों में बहती हुई इधर-उधर भगदड़ करती रहती है। इसके अतिरिक्त यहां ऐसा कुछ नहीं है जिसे स्वादिष्ट-अस्वादिष्ट या रूपवान-कुरूप कहा जा सके। वस्तुतः कोई वस्तु न मधुर है न कड़वी, हमारी अपनी संरचना ही अमुक वस्तुओं के साथ तालमेल बिठाने पर जैसी कुछ प्रतिक्रिया उत्पन्न करती है उसी आधार पर हम उसका रंग, स्वाद आदि निर्धारण करते हैं। यही बात प्रिय अथवा अप्रिय के संबंध में लागू होती है। अपने और बेगाने के संबंध में भी अपनी ही दृष्टि और मान्यता काम करती है। वस्तुतः न कई अपना है न बेगाना। इस दुनिया के आंगन में अगणित लोग खेलते हैं।  इनमें से कभी कोई किसी के साथ हो जाता है तो कोई प्रतिपक्षी का खेल खेलता है। इन क्षणिक संयोगों और संवेगों को बालबुद्धि जब बहुत अधिक महत्त्व देने लगती है तो प्रतीत होता है कि कुछ बहुत बड़ी अनुकूलता-प्रतिकूलता उत्पन्न हो गई है। संसार के स्वरूप निर्धारण में उन्हें जानने, समझने में पांच ज्ञानेंद्रियों की भांति ही  नःसंस्थान के चार चेतना केंद्र भी काम करते हैं। अतएव उन्हें भी अनुभूति उपकरणों में ही गिना गया है।  हमारा समस्त ज्ञान इन्हीं उपकरणों के आधार पर टिका है। मनुष्यों की भिन्न-भिन्न मनःस्थिति के कारण ही एक ही तथ्य के संबंध में परस्पर विरोधी मान्यताएं एवं रुचियां होती हैं। यदि यथार्थता एक ही होती तो सबके एक ही तरह के अनुभव होते। जबकि एक व्यक्ति परमार्थ परोपकार में संलग्न होता है, तो कोई दूसरा अपराधों में। एक को भोग प्रिय है, तो दूसरे को त्याग। एक को प्रदर्शन में रुचि है, तो दूसरे को सादगी में। इन भिन्नताओं से यही सिद्ध होता है कि वास्तविक सुख-दुख, हानि-लाभ कहां है, किसमें है? इसका निर्णय किसी सार्वभौम कसौटी पर नहीं, मनःसंस्थान की स्थिति के आधार पर ही किया जाता है। यह सार्वभौम सत्य यदि प्राप्त हो गया होता, तो संसार में मतभेदों की कोई गुंजाइश न रहती। सुख और दुख की अनुभूति सापेक्ष है। एक-दूसरे की तुलना कर स्थिति के भले-बुरे का अनुभव किया जाता है। आज की जीवनशैली में हमारा दृष्टिकोण कुछ सिमट कर रह गया है। आधुनिक मनुष्य सिर्फ अपने ही बारे में सोचता है। दुनिया की होड़ में सबसे आगे निकल जाना चाहता है। इसके लिए चाहे उसे कोई भी रास्ता अपनाना पड़े। आज की तुलना में पहले इनसान ज्यादा सुखी था और उसके सोचने का ढंग भी कुछ अलग ही था। दूसरों का परोपकार करना और उनके सुखों के लिए अपने सुखों का त्याग करना ये सब उसके मन के भाव होते थे। स्वार्थी होना उसके स्वभाव में बिलकुल नहीं था। वर्तमान में इनसान इतना व्यस्त रहता है कि अपनों के विषय में भी सोचने का समय उसके पास नहीं है। ऐसे लोगों से जुड़े समाज का भविष्य कैसा होगा इसका अनुमान लगाना ज्यादा कठिन नहीं है। जब तक हम अपने दृष्टिकोण को सही नहीं करते तब तक किसी भी लक्ष्य पर पहुंच पाना मुश्किल है।


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