दोहे
राम नाम की सेल में…
दुःशासन और द्रौपदी, मिलकर खेलें खेल।
चीरहरण के खेल में, कान्हा भेजे जेल।।
बतरस कभी ना घोलिए, अवसर बीतो जाए।
ऐसी भाषा मौन की, हिय की कथा सुनाए।।
शून्य में महाशून्य है, काल में महाकाल।
सांची उसकी जोत है, सच्चा पुरख अकाल।।
ज्ञान जग को बांट रहा, ़खुद को रहा न साध।
गुरु होए को रूप धरे, क्यों करे अपराध।।
वांछाओं के काट की, बनी नहीं शमशीर।
जादू यह समझे बिना, भटका रहे शरीर।।
भीतर की इस नाव में, देखो कितने छेद।
ईसा, ईश्वर-ओ-अली, मिलकर खोलें भेद।।
घर-आंगन में गुंज उठी, चिडि़यों की मनुहार।
सूरज की पहली किरण, बांटे सबको प्यार।।
तिलक और तसबीह की, रहा असीरी मान।
कैसे हो तेरा भला, उलटा बहता ज्ञान।।
हर युग में जलती रहे, दुष्ट उदर की आग।
इस दानव की ़कैद से, कौन सका है भाग।।
नेकी, इश़्क और व़फा, का़गज़ पे हैं नाम।
जितना जिसका नाम है, उतने ऊंचे दाम।।
आती-जाती सांस में, जपो राम ही राम।
रोम-मदीना जो बसे, सो काशी में राम।।
घट-घट में जो बस रहा, कण-कण में वह राम।
जो केवल अवधहिं बसे, कैसे राजा राम।।
यह मेरा कशकोल है, वह तेरा कशकोल।
भीतर सब ़खाली पड़ा, मानस के पट खोल।।
भक्ताई अंधी भईर्, चाईं पीर-़फ़कीर।
अ़क्ल धरी सब ताक पर, पीटें वही लकीर।।
मरहट सी दुनिया लगे, मकर चांदनी लोग।
अपना-अपना भोग है, अपना-अपना जोग।।
अधरों पर मुस्कान जटिल, आंखों में आगार।
बिछे हाट की खाट पर, प्रकट हुए अवतार।।
नेता से गठजोड़ कर, बुनते नित बाघम्बर।
दीन-धरम के नाम पर, बाबा रचें आडंबर।।
बकध्यानी पंडित भए, ढोंगी मुल्ला होए।
नज़र गड़ी है माल पर, अल्लाह-अल्लाह रोय।।
द्यूत् सजा दरबार में, पांचाली पर दांव।
शीश झुकाए महामना, रहे धर्म की ठांव।।
पड़े हुए हैं काम बहुत, मचने लगी अंधेर।
मन की बातें छोड़ तू, ढंग की बात उकेर।।
नारी की झाईं पड़त, कब अंधा हुआ भुजंग।
जिनके मनवा दोष है, ढूंढे नए प्रसंग।।
आभासी बाज़ार में, बखियां यूं न उधेड़।
परनिंदा को त्याग तू, अपनी बात निबेड़।।
सूना है तन चेत बिन, जैसे रहे मशीन।
बैठ शिखर पर धज रहा, शैल कोई तल्लीन।।
सत्ता सिर पर भार हुई, चढ़ा करेला नीम।
लहू टपकता नैंनों से, धीरे-धीरे जीम।।
तुलसी तो दास भए, कबीरा भए ़फ़कीर।
बगुले सारे दीन के, खींचें वही लकीर।
जीना उनको आ गया, आप गहे जो गैल।
देख खिलौने राम के, बने छबीले छैल।।
अंतःकरन की खूंटी पर, मिले वही आराम।
जैसे घर की खाट पर, देह करे विश्राम।
देह की अग्नि कब बुझी, ढीला हुआ शरीर।
मन की बातें छोड़ तू, मनवा बड़ा शरीर।।
राम नाम की सेल में, व्योपारी संत-महंत।
भेड़ों को ज्यों हांकते, कसाई और कुमंत।।
लोगन को नहीं चाहिए, सीधी-सच्ची बात।
दीन-धरम के खेल में, ़खूब करें उत्पात।।
श्वान मारा काम का, भागे है चहुं ओर।
शैल पड़े जब अ़क्ल पर, चले न कोई ज़ोर।।
अगर-धूप के मेल में, सन्यासी है लीन।
मन में चले अगड़-बगड़, तरुवर फल विहीन।
चमके मूंड घुटाए से, खप्पर, चेहरा, भाल।
चुपके-चुपके गपक तू, चिकना-चुपड़ा माल।
गहराई सन्यास की, दो मीटर की चैल।
खड़ा बीच बाज़ार में, जैसे कोई बैल।।
सेंत-मेंत सब हेत है, हेत ही सेंत-मेंत।
सिया राम के खेत में, हो रहे सारे खेत।।
रब की ज़ात होकर भी, सर पर मैला ढोए।
नर का दुश्मन नर बना, ईश्वर बैठा रोए।।
मद-माया के खेल में, सारे हैं अलमस्त।
वीरानी छाई हुई, बूढ़ा हुआ बसंत।।
दाता के इस दहर में, चारों ओर समर।
कब तक जीवन से लड़ें, टूट गई है कमर।।
मन की गहरी चाल है, उससे गहरी रार।
जैसे सांस उधार की, लेती खाल लुहार।।
हिंदू-तुरक दोऊ भिड़े, दोनों पड़े अचेत।
भारी विचार पर पड़े, मजहब धरम समेत।।
श्वान मनुष दोउ एक हैं, दोनों खोजत माड़।
अपने लहू में डूब कर, चूसें सूखे हाड़।।
कहने को सब हेत है, सब कारण आधार।
़िफगार-ए-दिल से पूछिए, बीते कल की मार।।
ना भली कभी दोस्ती, न बुरा कोई दुश्मन।
व़क्त के दरिया में बहें, मुल्ला हो या बामन।।
राम नाम की सेल में, अब मिलती है भेल।
कलयुग के इस दौर में, तू मंदिर-मस्ज़िद खेल।।
राजरीत का शील है, साम, दाम, दंड, भेद।
सदाचार के पल्लू में, इतने सारे छेद।।
लालच की इस साध में, धरा बची है आध।
पीढि़यां मह़फूज़ नहीं, पुरखे पढ़ते श्राद्ध।।
-अजय पाराशर
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