नितांत एकांत पाने की चुनौती

By: Sep 24th, 2017 12:05 am

लिखना, अक्षर-अक्षर जुगनू बटोरना और सूरज के समकक्ष खड़े होने का हौसला पा लेना, इस हौसले की जरूरत औरत को इसलिए ज्यादा है क्योंकि उसे निरंतर सभ्यता, संस्कृति, समाज और घर-परिवार के मनोनीत खांचों में समाने की चेष्टा करनी होती है। कुम्हार के चाक पर चढ़े बर्तन की तरह, कट-कट कर तथा छिल-छिल कर, सुंदर व उपयोगी रूपाकार गढ़ना होता है। इसके बावजूद वह अपने लिए पर्याप्त जगह बना ले और अपने हक में फैसला लेकर, रोने-बिसुरने या मनुहार करने की अपेक्षा उस पर अडिग रह सके। इसके लिए अध्ययन और लेखन एक मजबूत संबल, माध्यम हो सकता है। यदि वह स्वतंत्र चेता होकर, निर्णायक की भूमिका में आना चाहे…..यद्यपि पहाड़ की कुछ अपनी (भीतरी व बाहरी) मुश्किलें व दुष्चिंताएं हैं। इसके बाद भी यह अत्यंत सुखद है कि हिमाचल में, महिला लेखन की सशक्त परंपरा रही है जिसका सतत् निर्वाह हो रहा है। इन रचनाधर्मी महिलाओं की रचना प्रक्रिया को समझने के प्रयास में कुछ विचार बिंदु इनके सम्मुख रखे हैं। इस अनुरोध सहित कि कुछ ऐसा जो इन बिदुंओं तक नहीं सिमटता हो, वे वह भी कहें। संक्षिप्त परिचय व तस्वीर के साथ।…‘तुम कहोगी नहीं तो कोई सुनेगा नहीं। सुनेगा नहीं तो जानेगा नहीं और निदान इसी में कि कोई सुने, तुम कहती क्या हो/ कोई जाने/ तुम सहती क्या हो…

जीवन के सच्च सार्वभौमिक और सनातन होते हैं, लेकिन उन्हें ग्रहण करने और सही परिप्रेक्ष्य में समझ पाने की अपनी-अपनी सीमाएं होती हैं। अभिव्यक्ति के स्वरूप को, लिखने वाले की भाषा व समसामयिक मुहावरे पर पकड़ जितनी गढ़ती है, उतना ही यह समझ उस गढ़न को रूपाकार देती है। इस दृष्टि से लेखन सीधे-सीधे मानवीय इकाई के आत्म-बोध से जुड़ता है। स्त्री या पुरुष से नहीं, परंतु जीवन में स्त्री व पुरुष की भूमिका व दायित्व जुदा-जुदा है। प्रत्यक्षतः समान दुःख-सुख है। चिंताएं व संघर्ष एक है। दुर्घटना और त्रासदी के अंदेशे और प्रभाव सब एक हैं, परंतु इन्हें झेलने अर्थात इनका सामना करने और वंचित, त्रस्त्र व अलग-थलग पड़ जाने पर स्वयं को संभाल लेते हुए पुनः बना लेने/पा लेने के लिए उपलब्ध विकल्प भिन्न हैं। विशेष रूप से पारंपरिक व रूढ़, जिन्हें नकारते हुए अपने हक में स्थितियों को ढाल लेने में अभी वक्त लगेगा। तब तक महिला लेखन को रेखांकित करते हुए उसके मूल्यांकन व विश्लेषण की जरूरत का औचित्य तो रहेगा ही…। बच्ची से वृद्धा हो जाने तक घर-परिवार व समाज, स्त्री के समक्ष निर्णायक की मुद्रा में रहता है। उसकी सुरक्षा और चिंता के प्रति अति आग्रही (दुराग्रही होने की सीमा तक भी) होते हुए उसकी इच्छा/अनिच्छा को नकारते हुए…। तो पहली चिंता यही कि महिला लेखक कितनी स्वतंत्र चेत्ता हैं। अनुगामी होने को

बाध्य कितनी और अपने निज में बिना किसी हस्तक्षेप के सार्थक सहयोग पा लेने में कहां तक सक्षम है…। रेखा वशिष्ठ लिखती हैं कि वह जिस पीढ़ी से आती हैं, उसमें निज को धड़ल्ले से अलापना, साहस व जोखिम का काम था। उन पर एक कुशल नट की तरह पांव साधने का दबाव बना रहा, जिसमें वह कभी सफल हुईं, तो कभी विफल…। यह उनकी सृजनात्मक सामर्थ्य है, जिसने सफलता/विफलता दोनों से ऊर्जा लेते हुए व लेखन के प्रति निष्ठा को सर्वोपरि मान कर, अपने लेखकीय व्यक्तित्व को एक अलग जगह स्थापित करते हुए परिभाषित किया। सरोज परमार लिखती हैं कि घर-परिवार के दायित्व निभाती हुई महिला साहित्यकार की रचनाएं अकसर चकले पर बिल जाती हैं। आग पर जल जाती हैं, या कपड़े धोते हुए धुल-पुंछ जाती हैं…। लिखी/ छापी/ बेची/ खरीदी/और पढ़ी पृष्ठ प्रति पृष्ठ पुरुष ने ही/औरत के हिस्से में/नहीं आई कोई किताब। पर सरोज परमार मानती हैं कि सेंध लगाने में सक्षम हुई है औरत। अंतहीन उसकी जिजीविषा कुचले जाने के हर प्रयास के बाद फूट पड़ती है। कांट-छांट दिए गए वृक्ष की कोम्पलों की तरह से…। जीवन के प्रति उनका जुझारूपन उनकी कविताओं में दिखता है, उनके कवि को खास आकार देता हुआ। बात अपने तक सीमित नहीं होती। आप को मिल रहे हैं अच्छे अवसर/आपके सृजन को प्रोत्साहित करता हुआ घर-परिवेश है, पर उनका क्या होता है जिनके लिए कभी कुछ सहल रहा ही नहीं। देव कन्या ठाकुर कहती हैं कि ऐसी महिला लेखक या तो लेखन को विराम दे देती हैं या लिखना ही छोड़ देती हैं, लेकिन साधारण सोच से ऊपर उठकर लिखा गया ही कालजयी होता है। मिल रहे सहयोग के साथ-साथ यह साहस भी देव कन्या ठाकुर में है, जो बहुआयामी उनकी प्रतिभा को ठोस जमीन दे रहा है। दबाव केवल बाहरी नहीं होता। प्रतिरोध वहीं नहीं होते जो हमारी राह में किसी चट्टान या कंटीली झाड़ी के रूप में उपस्थित हो जाते हैं। नामालूम और अरूप-अनाम से भीतरी अवरोध ज्यादा खतरनाक होते हैं। बनी बनाई लीक पर चलते जाने की सहूलियत, भावनात्मक स्तर पर शोषित होते रहने की तत्परता, घर की धुरी होने और बिन घरनी घर भूत का डेरा जैसे भोव-बोध का मुगालता या भुलावा…। सबसे अधिक वर्षों से घुट्टी में पिलाई जा रही यह सीख कि औरत को सुशील, संयमी व मुदुभाषी होना ही है। अपनी इच्छाओं के उठने व दबा देने के अविरल क्रम में हारते व टूटते भी सहज ही रहना है। यह सब उसे अपना होकर, अपने लिए जीने से दूर करते हुए निर्धारित चरित निभाने को प्रेरित करता है या दबाव डालता है। बड़ी महीन सी लकीर है, जिसे लांघकर कब प्रेरक दमनकारी हो जाता है। पता ही नहीं चलता। बाहरी प्रतिरोधों से लड़ने से, कम कठिन नहीं है, इस भीतरी हठधर्मिता से मुक्त हो पाना। क्योंकि पितृ सत्तात्मक समाज के वर्चस्व में, एक नियोजित प्रयत्न के तहत इसे स्त्री का स्वभाव बना दिया गया है। बल्कि दूसरों की देखा-देखी, वह स्वयं भी इसे अपने गुणों में शुमार करती है। इसलिए नहीं भरती आंखों में कोई आकाश, पैरों में नहीं बांधती किश्तियां…। वह नहीं देता यह झगड़ा फिर किसी दिन का/तेरी आंखों में कहीं कोई फलक है कि नहीं। परंतु एक अतिरिक्त संवेदनशील सृजनात्मकता, मुद्दों पर कुछ कहने के लिए बेचैन तो होगी ही। इसलिए सिरे से खारिज नहीं हो पाता आकाश। क्योंकि बंदिशों में बंधे/घिरे मन ही मुक्त और निर्भीक उड़ानों के स्वप्न देखते हैं। छल-कपट और पाप से त्रस्त ही निष्पाप और निश्छल स्वरों में गा पाते हैं। जिस किसी ने भी आलोक के इंद्रधनुष उकेरे हैं, पे्ररणा अपने अंतर के अंधकार से ही प्राप्त की है। बाहर और भीतर की दो अलग-अलग भावभूमियों पर ठहरी रचनाकार एक अनिर्णय की स्थिति तक आ पहुंचती है। जहां से दो रास्ते निकलते हैं। एक तो यह कि वह अपनी सुने और दूसरा यह कि स्वयं पर परिवेश को हावी हो जाने दे। मन के इस असमंजस में सृजन की संभावनाएं हैं, जिसके लिए सभा-संगोष्ठियों, मंच या प्रकाशन से पहले केवल कागज और स्याही चाहिए। घर को बाकायदा ध्यान में रखते हुए एक प्रबंधन कौशल की जरूरत है, ताकि दूसरों के साथ रहते हुए कुछ समय अपने साथ भी बिता लिया जाए। दिन भर में थोड़ा सा समय और नितांत अपना एकांत चाहिए। आधुनिक-बोध संपन्न संवेदना के संयोजन से, रचनात्मक प्रतिभा फिर अनायास अभिव्यक्त होगी। स्वयं को ही नहीं, औरों को भी एक सिलसिला थमाते हुए…

-चंद्ररेखा ढडवाल, धर्मशाला

विमर्श सूत्र

* रचना प्रक्रिया में घर व परिवार/समाज व परिवेश, आपसे आगे रहता है। अनुगामी होता है या साथ-साथ चलते हुए प्रोत्साहित करता है।

* वर्तमान के संदर्भ में, अंचल विशेष के मानस को, उसकी मौलिकता में उद्घाटित कर पाने में अनुष्ठान व संस्कार गीतों तथा लोक गाथाओं की क्या भूमिका रहती है?

* स्त्री-विमर्श को सभ्यता-विमर्श के आलोक में एक वंचित व शोषित मानवीय इकाई की चिंता की परिधि में लाना कितना अनिवार्य है।

* भोगे हुए व देखे/समझे हुए यथार्थ को ईमानदारी से निर्द्वंद्व कह पाने में दबाव या संकोच महसूस करती हैं?

संतुलन की साधना से बनती है रचना उत्कृष्ट

परिचय

*  नाम : रेखा वशिष्ठ, जन्म : 22 जनवरी, 1951, मंडी, हिमाचल प्रदेश  * प्रकाशित कृतियां : कविता संग्रह : ‘अपने हिस्से की धूप (1984)’,  चिंदी चिंदी सुख (1987) तथा ‘विरासत जैसा कुछ (2012)’। कहानी संग्रह : पियानो (1994)   *  सम्मान : कविता संग्रहों के लिए हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी पुरस्कार, साहित्य में योगदान के लिए चंद्रधर शर्मा गुलेरी सम्मान

सृजन एक सामाजिक कर्म है। साहित्य, कला और संस्कृति का सृजन समाज में रहते हुए समाज के लिए ही किया जाता है। कोई भी रचनाकार प्रथम तो एक सामाजिक इकाई ही होता है। साथ ही अपनी निजता में वह एक स्वतंत्र इकाई भी होता है। सामाजिकता और निजता की द्वंद्वात्मकता के मध्य चलते निरंतर व्यवहार का प्रतिफल ही साहित्य के रूप में अभिव्यक्त होता है। मैं मानती हूं कि व्यक्ति और समाज के बीच संतुलन की साधना ही उत्कृष्ट रचना को जन्म देती है। जो प्रश्न आप पूछ रही हैं, वह प्रायः महिला रचनाकारों से ही पूछा जाता है। यह इसलिए कि हम आज भी महिलाओं का पहला और सहज सरोकार घर और परिवार को मानकर चलते हैं। यह मान लिया जाता है कि उनकी सृजन शक्ति और ऊर्जा परिवार के निर्माण और पालन-पोषण में व्यय हो जाती है या हो जानी चाहिए। इससे इतर यदि वे कुछ करती हैं तो कहीं न कहीं घर-परिवार के खाते से कुछ लेकर ही कर पाती हैं, जिसके कारण महिला रचनाकार और परिवार-परिवेश या समाज के बीच तनाव की स्थितियां पैदा हो सकती हैं। मैं जिस पीढ़ी से आती हूं, उसमें ‘निज’ को धड़ल्ले से आलापना साहस और जोखिम भरा काम था। एक कुशल नट की तरह पांव साधने का दबाव बना रहा, जिसमें कभी सफल हुई, कभी विफल। यह स्थिति मेरे लेखक को परिभाषित भी करती है और मेरी सीमाएं भी तय करती है। परिवार या परिवेश आगे चलते हैं या पीछे, इसका तात्पर्य मेरे लिए स्पष्ट नहीं है। ये कोई बाहरी उपादान नहीं है, जिन्हें अपने से अलग आगे या पीछे रखा जा सके, वे आपका अविभाज्य, अविच्छिन्न हिस्सा हैं। आप इनमें से उपजे हैं, ये आपके भीतर ही हैं। मैंने तो केवल इनके साथ चलकर इनके सहयोग और प्रोत्साहन की ही कामना की है। यह भी मानती हूं कि यदि मैं अपने लेखन के प्रति आस्थावान और निष्ठावान रहती हूं तो मुझे यह, जो यदि आज तक मिला, आगे भी मिलता रहेगा। वर्तमान क्या है? यदि हम समय को एक निरंतर प्रवाह मानकर चलते हैं, तो वर्तमान उसी प्रवाह का प्रवहमान बिंदु है। एक अछोर शृंखला की कड़ी मात्र। अर्थात जिसे हम अतीत कहते हैं, वह भी बीतकर हमारे ही भीतर यानि वर्तमान में समाया होता है। फिर उसी वर्तमान में से भविष्य अपना रूप और आकार ग्रहण करता है। किसी अंचल विशेष के मानस के मौलिक स्वरूप को उद्घाटित करने में अनुष्ठान, संस्कारगीत, लोकगाथाएं निःसंदेह अत्यंत अनिवार्य भूमिका निभाते हैं। हमारी संस्कृति के ये विविध अवयव इस वृहद ब्रह्मांड में हमारे लघुतम स्वरूप को परिभाषित करके हमें अपना एक नाम और पहचान देते हैं। इस तरह ये हमें इस चलायमान, नश्वर जगत में किसी स्थान विशेष और काल विशेष में रोपित करके सापेक्षिक रूप से अस्थिरता में स्थिर और नश्वरता में अनश्वर बनाते हैं। इस तरह अतीत से हमें जो सामाजिक दाय मिलता है, उसे हम अपनी तरह से रूपायित करके भविष्य को सौंप देते हैं और इस तरह एक अक्षुण्ण परंपरा के वाहक होने का दायित्व निभाते हैं। सांस्कृतिक परंपराओं का वहन करना रूढि़वादी होना नहीं कहलाता। यह तो संस्कृति के दाय की सुरक्षा और उसका वाहक बनना होता है। मैं समझती हूं स्त्री विमर्श को वंचित-शोषित मानवीय इकाई की परिधि में लाने की आवश्यकता और अनिवार्यता का मुद्दा जहां कल तक का ज्वलंत मुद्दा था, आज वह मुद्दा कुछ कदम आगे निकल चुका है। यदि हम इस विक्टिम सिण्डोरम से बाहर नहीं निकलेंगे तो नारी सशक्तिकरण का लक्ष्य अप्राप्य ही बना रहेगा। समान नागरिक अधिकार, समान कर्त्तव्य, अवसरों और संसाधनों के समान बंटवारे के समानांतर वंचित और शोषित वर्ग में बने रहकर रियायतों की मांग करना और स्त्री विमर्श को आक्रामक मुद्राओं में केवल नारेबाजी बना देना अब छोड़ दिया जाना चाहिए। आवश्यकता इस बात की है कि स्त्री विमर्श को अब तंग दायरे से बाहर लाकर समूची मानवता के सांझे सरोकारों से जोड़ा जाए। स्त्रियों के सरोकार सबके सरोकार बनें और सबके सरोकारों में स्त्रियां भी शामिल हों। यथार्थ को ईमानदारी से निर्द्वंद्व कह पाने का दबाव या संकोच कम या अधिक मात्रा में सभी लेखक महसूस करते हैं। यह अभिव्यक्ति की सांझी चिंता है। भाषा से हम एकाधिक काम लेते हैं। यह कहा गया है कि प्रत्येक लेखक एक विशेष पाठक वर्ग में अपनी स्वीकार्यता चाहता है और उसी के अनुरूप वह अपनी स्वतंत्रता और सीमाएं तय करता है। लेखक के मन में जो संकोच के कुछ बाहरी कारण जो सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, कोई भी हों, उनके प्रति वह सचेत होता है। परंतु कुछ उसके अवचेतन से उपजते हैं, जिनके ऊपर लेखक का भी नियंत्रण नहीं होता। वही कारण उसे उसका विशेष ‘हस्ताक्षर’ प्रदान करते हैं। मैं यथार्थ को ईमानदारी से कहना लेखक का पावन कर्त्तव्य समझती हूं, परंतु कहने का तरीका, शैली चुनना लेखक का अधिकार मानती हूं। यथार्थ तो सांझा भी हो सकता है, परंतु अभिव्यक्ति लेखक की होती है। इसी में लेखक का व्यक्ति और व्यक्तित्व छिपा रहता है। मेरे पाठक यदि मेरे लेखन में दबाव या संकोच अनुभव करते हैं तो ये मेरे अवचेतन से उपजे कारणों से हो सकते हैं, जिन पर मेरा नियंत्रण नहीं है। मैं ऐसी ही हूं या यही मैं हूं।

-रेखा वशिष्ठ, मंडी

अभिव्यक्ति की ईमानदारी

परिचय

*  नाम : देवकन्या ठाकुर, जन्म : कुल्लू (हिमाचल प्रदेश)

*  सृजन : विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविता, कहानी व स्त्री सरोकारों से जुड़े विषयों पर आलेख प्रकाशित/चर्चित

*  सम्मान : नो वोमेन्ज लैंड (जनजातीय महिलाओं के अधिकारों से संबद्ध) डाक्यूमेंटरी फिल्म, राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय समारोहों में प्रदर्शित व पुरस्कृत हुई

* यूनाइटेड नेशंज पापूलेशन फंड (यूएनपीएफ) संस्था मुंबई द्वारा महिला लेखन के लिए लाडली बिटिया पुरस्कार दो बार प्राप्त किया

कहते हैं एक महिला लेखक को लिखने के लिए अपनी दिनचर्या में से समय चुराना पड़ता है, तभी वह लिख सकती है, नहीं तो घर, परिवार और बच्चों की परवरिश में उलझ कर रह जाती है। सौभाग्यवश मुझे मेरे परिवार ने लेखन को गंभीरता से लेने के लिए प्रेरित किया। मेरे लेखन के प्रारंभिक दिनों में मेरे माता-पिता व भाइयों ने मुझे प्रोत्साहित किया। मैं एक कामकाजी महिला हूं, इसलिए आफिस के बाद जो समय बचता है, मुझे उसी में सामंजस्य बिठाना पड़ता है। ऐसे में मेरे दो बच्चों की परवरिश और घर की जिम्मेदारियों का भी मुझे ध्यान रखना पड़ता है, परंतु मेरे पति की साहित्य के प्रति रुचि और प्रोत्साहन और मेरे सास-ससुर के सहयोग से मैं अपनी लेखन की निरंतरता को बनाए रख पा रही हूं, अन्यथा मैं बहुत सी ऐसी महिला लेखकों को देखती हूं जो पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण कुछ वर्षों के लिए लेखन को विराम दे देती हैं या फिर लिखना ही छोड़ देती हैं। अपने लेखन के दौरान मैं एक बात हमेशा याद रखती हूं – ‘थिंक ग्लोबल, एक्ट लोकल’। स्थानीय एवं आंचलिक विषयों/मुद्दों की अपनी एक विशेषता होती है, एक अपनापन होता है, जो धरातल से जुड़ा होता है जो पाठक को जुड़ाव महसूस करवाता है। किसी अंचल विशेष की रचना से उस क्षेत्र की संस्कृति, वहां के लोगों का रहन-सहन और उनके जीवन की चुनौतियां मुखरित होती हैं। अगर हम लोकगीतों की बात करते हैं तो मुझे लगता है कि हमारे लोक में इतना खूबसूरत लिखा गया है कि उसके आगे लिखने की या सुधार की कोई गुंजाइश ही नहीं। कुल्लू का एक लोकगीत देखिए, ‘शुणे जोता रे चीड़ुआ, कुलू देशा री कहाणी, उथड़ी-उथड़ी हींउये री जोता, ठंडा व्यासे रा पाणी’। इस गीत में कुल्लू का जितना खूबसूरत वर्णन किया गया, जितने सुंदर शब्दों का चयन कुल्लू की प्राकृतिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का वर्णन करने के लिए किया गया, वह सचमुच अद्भुत है। यही बात संस्कार गीतों पर भी लागू होती है। विवाह, मुंडन और अन्य धार्मिक अनुष्ठानों में अपनी आंचलिकता को ये संस्कार गीत सदियों से सहेजे हुए हैं और आधुनिक समय में हमारी बोलियों, लोकगीतों और अनुष्ठानों की भूमिका अहम है। मुझे लगता है कि केवल वही साहित्य पाठक को देर तक याद रहता है जो लेखक ने बिना किसी संकोच या दबाव के पूरी ईमानदारी से रचा हो। वरना बहुत सा साहित्य ऐसा भी गढ़ा जा रहा है जो पाठक के मन को छू पाने में असफल रहता है। मेरी अधिकतर कहानियां यथार्थवाद से निकली होती हैं। मेरी कलम तभी चलती है जब तक कि कोई विषय मुझे अंदर तक झिंझोड़ कर न रख दे। केवल पन्ने भरना और अपनी कहानियों की लंबी लिस्ट तैयार करना मेरा मकसद नहीं। कम लिखूं बेशक, पर बेहतर लिखूं जो समाज के लिए चिंतन का विषय बने। कई बार मैंने संवेदनशील मुद्दों पर लिखा है, मैं पूरी तैयारी और तथ्यों के साथ लिखती हूं, ताकि मेरे लेखन पर कोई अंगुली न उठा सके, बल्कि सोचने पर मजबूर करे। अगर विषय प्रभावित करने वाला हो और यथार्थवाद व धरातल से जुड़ा हो तो कोई पाठक आपको नहीं नकारेगा, ऐसा मैं सोचती हूं। अधिकतर लेखक और पाठक मुझे ‘फेमिनिस्ट लेखक’ कहते हैं और यह स्वीकार करते हुए मुझे कोई संकोच नहीं होता है, क्योंकि एक लेखक की कलम समाज को सही रास्ता दिखाने के लिए चलनी चाहिए। स्त्री विमर्श, दलित विमर्श और मानव मूल्यों पर लिखना मेरी प्राथमिकता है वरना बाजार तो यूं भी सामान्य विषयों के साहित्य से भी भरा पड़ा है जो सिर्फ मनोरंजन कर सकता है, समाज को जागृत नहीं कर सकता। लेखक जनसाधारण की सोच की सीमाओं से ऊपर उठकर लिखता है तो निश्चय ही वह साहित्य समाज को प्रेरणा देता है और बेहतर सोच की ओर अग्रसर करता है।

-देवकन्या ठाकुर, शिमला

घेराबंदी को तोड़ना सीखती स्त्री

परिचय

* नाम : सरोज परमार, 48 वर्षों से साहित्य सृजन से संबद्ध

* रचनाएं : काव्य संग्रह : घर सुख और आदमी, समय से भिड़ने के लिए तथा मैं नदी होना चाहती हूं

* सम्मान : इरावती साहित्य सम्मान, त्रिवेणी साहित्य अकादमी सम्मान तथा विविध संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत व सम्मानित

स्त्री की दुनिया को कुछ निश्चित परिधियों में कैद कर उसके अनुभव संसार को सीमित कर दिया गया है। आधी दुनिया साहित्य की मुख्य धारा से ओझल रही, लेकिन आज की स्त्री परिधि से बाहर निकलकर सामाजिक सरोकारों से जुड़ी। हर वह क्षेत्र जो तथाकथित रूप से पुरुषों का गढ़ माना जाता है, वहां स्त्री की उपस्थिति सहज स्वीकार्य नहीं है। अगर वह अपनी क्षमता, अपनी काबिलियत के बलबूते अपनी जगह बनाने के लिए सेंध लगा देती है तो उसे पीछे धकेलने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती। आज की नारी जान गई है कि लक्ष्मण रेखाएं खींची जाती रहेंगी। पर उसे अपने भविष्य के लिए अपने सपनों के लिए लांघनी भी पड़ेंगी। इस उल्लंघन का अर्थ है आउट-बाहर, समाज से बहिष्कृत। जब वह अपने बलबूते पर एक संसार रच लेती है, समाज को प्रभावित कर लेती है तो दुनिया झुकती है। उस मानवी ने घेराबंदियों को तोड़ना सीख लिया है। मानवी का ऋतुमति होना, गर्भधारण करना, दूध पिलाना, बच्चे पालना, बड़े करना, पिटना-बलात्कार, गालियां, यांत्रिक संभोग, नोच खसोट, हिकारत को चुपचाप झेलना, स्त्री देह से जुड़े बड़े सत्य हैं, जिनकी अभिव्यक्ति और प्रतिरोध अब कभी-कभार होने लगा है और उसका मोल भी उन्हें अलगाव, तलाक के रूप में झेलना पड़ता है। घर गृहस्थी, नौकरी, परिवार और बच्चों की जिम्मेदारी, अतृप्त प्रेम, तनावों में जीती हुई आधुनिक नारी की अपनी समस्याएं हैं। गांव देहात से पलायनवादी प्रवृत्ति से हमारी ग्रामीण युवतियों और वृद्धाओं पर दुख के पहाड़ टूट पड़ते हैं, उनका वजूट टूट जाता है और मुंह पर ताला लग जाता है। अपने परिवेश से कटकर जीना किसे अच्छा लगता है। पर आर्थिक मजबूरी, टूटते हुए सामाजिक तानेबाने से उसे विवश होकर शहर में पलायन करना पड़ता है। इस कशमकश में वे अपने श्रम को ही नहीं बेचतीं, तन को भी बेचने लगती हैं। आदिवासी नारियों की दशा भी कोई खास अच्छी नहीं है। वे नगरीय चकाचौंध से त्रस्त होकर आर्थिक रूप से सबल होने के लिए स्वयं को न चाहते हुए भी भोग के लिए प्रस्तुत करती हैं। रचयिता स्त्री का परिवार उसको प्रोत्साहन देता भी है और नहीं भी। घर का सारा काम निपटाकर, सबकी सार संभाल, बच्चों का होमवर्क, रिश्तेदारों के चोंचले, पति के नखरे सहन करने पड़ते हैं। फिर अपनी नींद और आराम के समय में कुछ पल चुरा लेती है और कुछ पढ़-रच लेती है। इस समय तक दिमाग इतना कुंद हो जाता है कि कुछ भी कलम की नोक पर ठीक से उतर नहीं पाता। पर अंदर की आग उससे कुछ न कुछ लिखवा लेती है। ऐसा तो बहुत कम स्त्रियों के साथ होता होगा कि जब वे लिखती हैं तो उनके लिए कॉफी, चाय, जूस, कटे फल मेज पर कोई रख जाता होगा। प्रायः औरत के मन में जब रचना जन्म लेती है तो समय के अभाव में चकले पर बेल दी जाती है। तवे पर पककर जल जाती है, कपड़े धोते धुल जाती है। पोंछा लगाते पुंछ जाती है। आवेग के प्रबल होने पर वह कुछ न कुछ लिख लेती है। जिंदगी के चकल्लसों में पिसते हुए भी वह रचना कर ही लेती है। लोक साहित्य का साहित्यिक क्षेत्र में भरपूर योगदान रहा है। लोक साहित्य की लंबी वाचिक यात्रा लिपिबद्ध होने की प्रक्रिया से गुजरकर समकालीन साहित्य को प्रभावित करती है। स्त्रियों द्वारा संचित लोकगीतों, शौर्यगाथाओं, लोककथाओं, अनुष्ठानों, परंपराओं का खजाना साहित्य को निरंतर सिंचित कर रहा है। हिमाचली लोकगीतों में पर्वतीय नारी की बेबसी, मजबूरी, पीड़ा छलकती है। मसलन ‘रूल्हा दी कुल्ह’ गीत से राजा जलविहीन चंबा प्रदेश की प्यास बुझाने के लिए अपनी रानी की बलि देता है। कांगड़ा की कुल्ह में भी रानी की ही बलि का जिक्र है। रानी की पीड़ा का चित्रण भी है। मेरा प्रश्न यह है कि क्या जल देवता नारी की बलि ही लेता है? पुरुष की बलि का क्या कहीं वर्णन है? एक लोकगीत में दर्शाया गया कि रानी मोर से प्रेम करती है, राजा अपनी उपेक्षा सह नहीं पाता। मोर को मार कर उसके मांस का सेवन कर प्रतिशोध लेता है। वजीर रामसिंह पठानिया का लोकगीत आज भी कांगड़ा के शूरवीरों को प्रोत्साहित करता है। परमाल रासो, बीसलदेव रासो, पृथ्वीराज रासो का मूल तो लोकगीत है। निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं लोकगीतों की वाचिक परंपरा ने हमारे साहित्य को पुष्ट किया व इतिहास की कडि़यां भी जोड़ी हैं। स्त्रियां निर्द्वंद्व एवं ईमानदारी से ही लिखती हैं। यह बात अलग है कि वे अभिधा का सहारा न लेकर व्यंजना, लक्षणा को हथियार बनाती हैं। आदिकाल से ही स्त्रियां रचना कर्म में प्रवृत्त रही हैं, परंतु उनकी रचनाओं को कम ही प्रकाश में लाया गया। उसने छद्म नाम से रचनाएं लिखीं। लोकगायिका रूप में रचना पीढ़ी दर पीढ़ी तक सहेजीं। निष्कर्ष रूप में यही कहूंगी कि स्त्री की जिजीविषा अपार है। कुचले जाने के हर प्रयास के बावजूद फूट पड़ती है वृक्ष की कोंपलों की तरह और जाग जाती है, उसकी उम्मीद घास पर पड़ी ओस की तरह।

-सरोज परमार, पालमपुर


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