परिवर्तन के महान क्षण

By: Sep 16th, 2017 12:05 am

श्रीराम शर्मा

बीसवीं सदी का अंत आते-आते समय सचमुच बदल गया है। कभी संवेदनाएं इतनी समर्थता प्रकट करती थीं कि मिट्टी के द्रोणाचार्य एकलव्य को धनुष विद्या में प्रवीण, पारंगत कर दिया करते थे। मीरा के कृष्ण उसके बुलाते ही साथ नृत्य करने के लिए आ पहुंचते थे। गांधारी ने पतिव्रत भावना से प्रेरित होकर आंखों में पट्टी बांध ली थी और आंखों में इतना प्रभाव भर लिया था कि दृष्टिपात करते ही दुर्योधन का शरीर अष्टधातु का हो गया था। तब श्राप, वरदान भी शस्त्र प्रहारों और बहुमूल्य उपहारों जैसा काम करते थे। वह भाव-संवेदनाओं का चमत्कार था। उसे एक सच्चाई के रूप में देखा और हर कसौटी पर सही पाया जाता था। अब भौतिक जगत ही सब कुछ रह गया है। आत्मा तिरोहित हो गई। शरीर और विलास-वैभव ही सब कुछ बनकर रह गए हैं। यह प्रत्यक्षवाद है। जो बाजीगरों की तरह हाथों में देखा और दिखाया जा सके वही सच और जिसके लिए गहराई में उतरना पड़े, परिणाम के लिए प्रतीक्षा करनी पड़े, वह झूठ। आत्मा दिखाई नहीं देती। परमात्मा को भी अमुक शरीर धारण किए, अमुक स्थान पर बैठा हुआ और अमुक हलचलें करते नहीं देखा जाता इसलिए उन दोनों की ही मान्यता समाप्त कर दी गई। भौतिक विज्ञान चूंकि प्रत्यक्ष पर अवलंबित है। उतने को ही सच मानता है जो प्रत्यक्ष देखा जाता है। चेतना और श्रद्धा में कभी शक्ति की मान्यता रही होगी, पर वह अब इसलिए अविश्वस्त हो गई कि उन्हें बटन दबाते ही बिजली जल जाने या पंखा चलने लगने की तरह प्रत्यक्ष नहीं देखा जा सकता। जो प्रत्यक्ष नहीं वह अमान्य, भौतिक विज्ञान और दर्शन की यह कसौटी है। इस आधार पर परिवर्तन का लाभ तो यह हुआ कि अंधविश्वास जैसी मूढ़ मान्यताओं के लिए गुंजाइश नहीं रही और हानि यह हुई कि नीतिमत्ता, आदर्शवादिता,धर्म,धारणाओं को भी अस्वीकार कर दिया गया। इसलिए मानवी गरिमा के अनुरूप अनुशासन भी लगभग समाप्त होने जा रहा है। नई मान्यता के अनुसार मनुष्य एक चलता- फिरता पौधा मान लिया गया। अधिक से अधिक उसे वार्तालाप कर सकने की विशेषता वाला पशु माना जाने लगा। प्राणीवध में जिस निर्दयता और निष्ठुरता का आरोपण कर लोग अनुचित और अधार्मिक माना करते थे, वह अब असमंजस का विषय नहीं रह सकेगा, ऐसा दिखता है। अपराधों के लिए द्वार इसीलिए खुले कि उसमें मात्र दूसरों की हानि होती है। अपने को तो तत्काल लाभ उठाने का अवसर मिल जाता है। अन्य विचारों में भी पशु प्रवृत्तियों को अपनाए जाने के संबंध में जो तर्क दिए गए और प्रतिपादन प्रस्तुत किए गए हैं। जीव जगत में जब धर्म, कर्त्तव्य, दायित्व जैसी कोई मान्यता नहीं, तो फिर मनुष्य ही उन जंजालों में अपने को क्यों बांधे? जब बड़ी मछली छोटी मछली को खाती है, जब बड़ी चिडि़या को छोटी चिडि़यों पर आक्रमण करने में कोई हिचक नहीं होती, जब चीते हिरन स्तर के कमजोरों को दबोच लेते हैं तो फिर समर्थ मनुष्य ही अपने असमर्थ जनों का शोषण करने में क्यों चूकें। प्रत्यक्षवाद ने, भौतिक विज्ञान ने सुविधा, संवर्धन के लिए कितने ही नए-नए आधार दिए हैं, तो उसकी उपयोगिता और यथार्थता पर क्या किसी को संदेह करना चाहिए।


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