बिहार में राजनीतिक कशमकश

By: Sep 21st, 2017 12:08 am

पीके खुराना

लेखक, वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं

पीके खुरानाभाजपा की रणनीति यह है कि उसे बिहार में भी किसी अन्य सहयोगी दल पर निर्भर न रहना पड़े। केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा भी कोरी हैं और वह शुरू से ही भाजपा के साथ हैं, लेकिन भाजपा की मंशा यही है कि उसे न कुशवाहा पर निर्भर रहना पड़े न नीतीश पर। भाजपा की राज्य इकाई ने इसी नीति पर काम करते हुए अपने पैर फैलाने आरंभ भी कर दिए हैं और वह बूथ स्तर तक खुद को मजबूत करने की नीयत से काम कर रही है। ऐसा नहीं है कि नीतीश कुमार इस चुनौती से वाकिफ न हों…

नरेंद्र मोदी के व्यक्तिगत विरोधी रहे बिहार के मुख्यमंत्री को अंततः एनडीए में आना ही पड़ा। हालांकि 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनने से पहले भी वह एनडीए में थे, लेकिन तब भाजपा स्पष्ट रूप से नीतीश कुमार के लिए सहयोगी दल की भूमिका निभा रही थी, जबकि इस बार मुख्यमंत्री होने के बावजूद नीतीश का जद (यू) भाजपा के सहयोगी दल की भूमिका में है। तो भी, एक तरफ लालू यादव और उनके परिवार की मनमानी से परेशान और दूसरी तरफ भाजपा का बढ़ता प्रभाव देखकर आखिरकार नीतीश को यही ठीक लगा कि वह मोदी की छतरी तले आ जाएं। उनके भाजपा के साथ आ जाने से बिहार के सारे समीकरण गड़बड़ा गए हैं। एक समय वह महागठबंधन के ऐसे नेता थे कि बिहार में कांग्रेस भी उनकी उपेक्षा करने की स्थिति में नहीं थी, लेकिन महागठबंधन की टूट के साथ ही कांग्रेस को अपने विधायक बचाने की फिक्र हो गई है और राहुल गांधी को अपने विधायकों को दिल्ली बुलाना पड़ा। गुजरात में कांग्रेस एक बार विधायकों की टूट भुगत चुकी है और कांग्रेस हाइकमान बिहार में इसकी पुनरावृत्ति नहीं चाहता था।

राज्य में इस समय लालू यादव सबसे बड़े विपक्षी नेता हैं, लेकिन आय से अधिक संपत्ति मामलों की छानबीन के चलते वह भी कठिनाई में हैं। लालू यादव लगातार नीतीश कुमार के खिलाफ बोल रहे हैं, लेकिन उनके छोटे पुत्र तेजस्वी यादव ने शुरू में तीखे तेवर दिखाने के बाद अब नीतीश कुमार से अनुरोध किया है कि उन्हें उपमुख्यमंत्री वाले अपने बंगले में रहने दिया जाए। चुनाव आयोग ने शरद यादव को जनता दल (यूनाइटेड) का प्रतिनिधि मानने से इनकार कर दिया है और अभी उनकी नैया भी डांवांडोल है। नीतीश कुमार ने चेतावनियों के बावजूद शरद यादव को अपने दल से निष्कासित नहीं किया है और वह उन्हें वापिस अपने दल में आने का प्रस्ताव भी दे चुके हैं लेकिन इस पर शरद यादव की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। इस सारे घटनाक्रम में सबसे अधिक लाभ तो भाजपा को हुआ है। दिल्ली विधानसभा चुनावों में भाजपा की करारी हार के बाद बिहार में भाजपा को फिर से धूल चाटनी पड़ी थी और एक बार तो लगने लगा था कि नरेंद्र मोदी-अमित शाह का जादू टूट गया है। हालांकि उसके बाद भाजपा संभल गई और उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनावों की बड़ी जीत ने बिहार का घाव भुला दिया। राज्यों के चुनावों से फारिग होते ही मोदी और शाह ने 2019 की तैयारी आरंभ कर दी और अमित शाह भारत भर के राज्यों के दौरे पर निकल पड़े। डेढ़ वर्ष बाद लोकसभा के चुनाव होंगे और भाजपा इसके लिए कमर कस रही है।

बिहार के हालिया विधानसभा चुनावों में हालांकि लालू यादव के दल की सीटें ज्यादा थीं, लेकिन मुख्यमंत्री का चेहरा नीतीश ही थे और चुनाव भी उनके नेतृत्व में तथा उनकी विकास की छवि को लेकर ही लड़े गए थे। महागठबंधन से टूट के बाद भाजपा की छत्रछाया में आने के बावजूद नीतीश ही मुख्यमंत्री हैं, लेकिन पिछले दो महीनों के घटनाक्रम से यह स्पष्ट है कि अब बिहार में वह एकछत्र नेता नहीं रह गए हैं और उनका प्रभाव और भी घटने की आशंका है। कोरी-कुर्मी जातियों में लोकप्रियता के चलते ही नीतीश कुमार बिहार में बड़े नेता बन पाए हैं। अन्य पिछड़ी जातियों में यादवों की संख्या 15 प्रतिशत है तो कोरी-कुर्मी 12 प्रतिशत संख्या के साथ दूसरे नंबर पर हैं और चुनावी गणित में उनकी बड़ी भूमिका है।

भाजपा की रणनीति यह है कि उसे बिहार में भी किसी अन्य सहयोगी दल पर निर्भर न रहना पड़े। केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा भी कोरी हैं और वह शुरू से ही भाजपा के साथ हैं, लेकिन भाजपा की मंशा यही है कि उसे न कुशवाहा पर निर्भर रहना पड़े न नीतीश पर। भाजपा की राज्य इकाई ने इसी नीति पर काम करते हुए अपने पैर फैलाने आरंभ भी कर दिए हैं और वह बूथ स्तर तक खुद को मजबूत करने की नीयत से काम कर रही है। ऐसा नहीं है कि नीतीश कुमार इस चुनौती से वाकिफ न हों, लेकिन लगता है कि उनका मानना यह है कि लोकसभा चुनावों में भाजपा को बढ़त लेने दी जाए और विधानसभा चुनावों में स्थानीय प्रभाव के कारण उनके दल को प्राथमिकता मिलेगी। नीतीश कुमार खासे अवसरवादी हैं, लेकिन मोदी और शाह अपनी निष्ठुरता के लिए जाने जाते हैं इसलिए यह कहना मुश्किल है कि भविष्य में दोनों दलों का रिश्ता कैसा रहेगा और घटनाक्रम क्या

करवट लेगा। उधर, बिहार कांग्रेस के अध्यक्ष अशोक चौधरी भी भाजपा में जाने के लिए पर तोल रहे प्रतीत होते हैं। बताया जाता है कि कांग्रेस के 27 विधायकों में से 14 ने नया दल बनाने के पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए हैं, लेकिन दल बदल विरोधी कानून के प्रावधानों के अनुसार उन्हें अभी चार और विधायकों के समर्थन की आवश्यकता है। यही कारण है कि अशोक चौधरी अभी कुछ भी खुल कर कहने से परहेज कर रहे हैं।

दूसरी ओर, मोदी की अपनी चुनौतियां हैं। रोजगार बढ़ नहीं रहे हैं, नोटबंदी और जीएसटी के कारण रोजगार छिने हैं, अर्थव्यवस्था में सुस्ती आई है और उनके निर्णय अर्थव्यवस्था की सुस्ती दूर कर पाने में असफल साबित हुए हैं, ऐसे में मोदी का करिश्मा और अमित शाह की चुनावी रणनीति के बावजूद 2019 के लोकसभा चुनाव में बहुमत हासिल करना बड़ी चुनौती बन सकता है। यही कारण है कि अब अमित शाह विभिन्न राज्यों के दौरे पर हैं और राज्य इकाइयों में महत्त्वपूर्ण नेताओं से ही नहीं, बल्कि अन्य कार्यकर्ताओं से भी मिल रहे हैं और जमीनी वास्तविकता को समझने का प्रयास करने के साथ-साथ कार्यकर्ताओं को प्रेरित-उत्साहित करने का काम कर रहे हैं।

सन् 2014 के लोकसभा चुनावों के बाद देश में एक गुणात्मक परिवर्तन यह आया है कि राजनीतिक दलों को चुनाव से डेढ़-दो साल पहले से ही चुनाव की तैयारी में जुट जाना पड़ रहा है। शुरू में जनसंपर्क और चुनाव क्षेत्र प्रबंधन को लेकर चर्चा में आए प्रशांत किशोर ने बिहार में नीतीश कुमार को जीत दिलवाई और उत्तर प्रदेश और पंजाब में कांग्रेस के लिए काम किया। उत्तर प्रदेश में वह कोई करिश्मा नहीं दिखा पाए और पंजाब में भी कैप्टन अमरेंदर सिंह की जीत में उनकी भूमिका सीमित रही है। अब वह आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी के लिए काम कर रहे हैं लेकिन नांद्याल विधानसभा उपचुनाव और काकीनाड़ा नगर निगम चुनावों में हार से यह चर्चा आम हो गई है कि प्रशांत किशोर अभी तक आंध्र प्रदेश की जमीनी स्थिति को समझ नहीं पाए हैं। 2019 के आगामी चुनावों में देश और बिहार के मतदाता क्या रुख अपनाएंगे यह तो भविष्य के गर्भ में है, लेकिन इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि बिहार में कोई बड़ा परिवर्तन भी संभव हो सकता है।

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