भाजपा की जगह और वजह

By: Sep 22nd, 2017 12:02 am

हक और हुजूम के बीच भाजपा की कांगड़ा रैली में परख उन मुद्दों की, जो हिमाचल को अलग सांचे की सियासत में देखते हैं। चुनावी हुंकारे का सबसे बड़ा प्रदर्शन करके भाजपा अपने संगठन की ताकत का इजहार कर रही है, तो समझना यह होगा कि राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के तेवर कांग्रेस को कितना पीछे धकेलते हैं। रैली का आयोजन कांगड़ा में होना एक महत्त्वपूर्ण रणनीति का स्पष्ट संकेत है और यह भी संभव है कि योद्धाओं के मंच से पार्टी, अपनी युवा ब्रिगेड का अवलोकन करते हुए भविष्य के चिराग ढूंढ ले। असल में भाजपा का बिगुल इस मैदान से बजेगा, तो राजनीति के कुरुक्षेत्र बने कांगड़ा की भाजपाई नब्ज और नस्ल का ठीक से पता चलेगा। फिलहाल परिस्थितियां इस काबिल नहीं कि चुनावी महत्त्वाकांक्षा को किसी डोर में बांध कर उड़ने की इजाजत दी जाए या स्वयंभू नेताओं के सोशल मीडिया पर चल रहे सर्वेक्षणों पर पर्दा डाला जाए। यह दीगर है कि पिछले चुनाव में हाशिए से बाहर किए गए नेता अब पार्टी के बीचोंबीच अपने लिए जगह तलाश रहे हैं। भाजपा की चुनौती भी यही रही और आज भी बरकरार है कि पार्टी और सत्ता के बीच नेताओं के बीच जमीन कैसे बांटी जाए। हालांकि शाह के संयोजन में बड़े नेताओं को भी मालूम नहीं है कि उनका दरबार किस हिस्से में सजेगा या जहां आम कार्यकर्ता दरी बिछाता रहा है, वहीं से उठाकर किसी तिनका सरीखे कार्यकर्ता को बड़े मंच पर बैठा दिया जाएगा। बेशक शाह के नेतृत्व की पार्टी को समझ आ चुका है कि हिमाचल ऐसी आशा करता है, ताकि प्रदेश का कारवां बदल जाए। वे दाग मिट जाएं जो पहाड़ी प्रदेश को आहत करते हैं या ऐसे नेता बदल दिए जाएं जो जातिवाद, क्षेत्रवाद या परिवारवाद के आधार पर राजनीति को मुकम्मल करते हैं। कांगड़ा की रैली में भले ही शिनाख्त उस हुंकारे की होगी, जिसकी शुमारी में लगभग आधा हिमाचल समा जाएगा, लेकिन सारा हिमाचल-गैर राजनीतिक हिमाचल उस विचारधारा को सुनना चाहेगा, जो प्रदेश की अस्मिता की रक्षा तथा हिमाचली होने का फख्र अदा करे। जनता उन प्रस्तावों-उन परिवर्तनों की राह ताक रही है, जो हिमाचल का विजन बनकर भाजपा के नाम की रसीद काट रहे हैं। इससे पूर्व हिमाचल अगर भाजपा के साथ चला, तो स्थानीय नेताओं की हुकूमत नजर आई, तो क्या ये तमाम परछाइयां बदल जाएंगी। आज भी गैर राजनीतिक हिमाचल अटल बिहारी वाजपेयी के संजीदा संबंधों की बुनियाद पर भाजपा को देखता है। उस आधार को महसूस करता है, जो सीधे औद्योगिक पैकेज, प्रधानमंत्री सड़क परियोजना, जल विद्युत नीति या रोहतांग सुरंग के उस पार तक प्रकाशमान होता है। विडंबना यह है कि अब पहाड़ को समझने के बजाय, केंद्रीय परियोजनाएं फिजिबिलिटी के तर्क पर अछूत और असहाय बनाने में जुटी हैं। देखें शाह की सूची में हिमाचल का राजनीतिक सूर्योदय कितनी ईमानदारी से ऐसी अवरुद्ध प्रगति किरणों का स्पष्टीकरण दे पाता है। घोषित नेशनल हाई-वे पर फिजिबिलिटी का डंडा हटाया जाता है या एम्स के बिखरे पत्थर समेटे जाते हैं। हिमाचल तो इस उम्मीद में मतदाता सूची बढ़ा रहा था कि देश के प्रधानमंत्री चुनाव पूर्व कुछ शिलान्यासों पर हस्ताक्षर कर जाते, ताकि बदले में केंद्र के कर्जे को चुकता करने की कंजूसी न होती। अगर भाजपा विशुद्ध राजनीति से हटकर एम्स, ट्रिप्पल आईटी, नेशनल हाई-वे या केंद्रीय विश्वविद्यालय जैसी प्रादेशिक महत्त्वाकांक्षा से जुड़े प्रतीकों को खड़ा कर देती है, तो हुंकार से बढ़कर जनता का इकरार भी आज साथ होता। मतदाता को कार्यकर्ता से बड़ा बनाने के लिए चुनाव कोई इकबालिया बयान नहीं, बल्कि मिट्टी के कण की पहचान से जुड़ता है वोटर। हिमाचल की मिट्टी अलग और मतदाता की जागरूकता श्रेष्ठ है। उसके संस्कार और देश के प्रति जज्बात अति उत्तम हैं। यहां किसी अन्य राज्य से हटकर समझना होगा कि यह छोटा सा प्रदेश आखिर सरकारों की पल्टा-पल्टी क्यों करता रहा। यहां कमोबेश हर सरकार ने प्रयत्न किए, इसलिए सार्वजनिक ढांचा पर्वतीय दुरुहता का मुकाबला कर पाया। वर्तमान सरकार पर वार कर रही भाजपा के पास फिलहाल जो मुद्दे हैं, वे सभी मुख्यमंत्री के आचरण से सवाल कर रहे हैं, लेकिन प्रदेश सरकार विरोधी लहर का उत्पीड़न महसूस नहीं कर रहा। यहां बिहार, उत्तर प्रदेश से अलग या पड़ोसी पंजाब से भिन्न धरातल पर मतदाता खड़ा है, इसलिए देखना यह होगा कि भाजपा के हुंकारे में सरकार को सिफर करने की शक्ति क्या है।


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