महाराजा हरि सिंह की घर वापसी

By: Sep 23rd, 2017 12:05 am

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्रीअंतिम दिनों में महाराजा हरि सिंह के लिए मुंबई ही रंगून बन गया था। वक्त के सत्ताधीशों ने उन्हें, उनके कू-ए-यार से निष्कासित कर दिया था। बहादुर शाह जफर शायरी से अपने आप को अभिव्यक्त करते थे, लेकिन हरि सिंह अपने भागते हुए अश्वों को दूर तक देखते हुए अपनी पीड़ा को अंदर ही अंदर समा लेते थे। लेकिन जम्मू के उनके अपने लोग इतने साल बाद भी उनको भुला नहीं पा रहे थे। वे हरि सिंह से किए गए व्यवहार से स्वयं को शर्मिंदा महसूस कर रहे थे। अंततः उन्होंने महाराजा के इस संसार से चले जाने के पांच दशक बाद अप्रैल, 2012 को उनकी भव्य मूर्ति तवी नदी के सेतु पर स्थापित करके स्वयं को उऋण किया…

23 सितंबर को महाराजा हरि सिंह का जन्म हुआ था। वह जम्मू-कश्मीर को भारत में ही रखने के लिए अंत तक लड़ते रहे, लेकिन कांग्रेस और नेशनल कान्फ्रेंस ने उन्हें अपमानित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इनकी इस नीति से कश्मीर समस्या उलझती रही और पाकिस्तान को बल मिलता रहा। उनकी मृत्यु मुंबई में निष्कासन काल में हुई। महाराजा हरि सिंह ने वसीयत कर दी थी कि उनकी मृत्यु के बाद किसी प्रकार के अनुष्ठान न किए जाएं। अपने परिवार के सदस्यों को तो उन्होंने अपने दाह संस्कार तक में भाग लेने की अनुमति नहीं दी थी, लेकिन इसके बावजूद कर्ण सिंह ने यह अनुष्ठान करना अपना कर्त्तव्य समझा। आश्चर्य है कि जिस कर्ण सिंह ने मुंबई जाने से पहले माता-पिता की यज्ञोपवीत संस्कार की इच्छा को पूर्ण करने के लिए, उस समय केश मुंडन की परंपरा का निर्वाह, भारी दबाव के चलते भी नकार दिया था, वही कर्ण सिंह वसीयत में मना किए जाने के बावजूद महाराजा हरि सिंह की तेरहवीं करने को अपना कर्त्तव्य बता रहे थे। जब महाराजा हरि सिंह जिंदा थे तो कर्ण सिंह ने ‘रीजेंट न बनने’ के उनके आदेश को नहीं माना और जब हरि सिंह इस संसार से चले गए तो कर्ण सिंह ने, ‘मेरे धार्मिक अनुष्ठान न किए जाएं’ के दिए गए उनके आदेश को नहीं माना। संसार की गति विचित्र है। महाराजा हरि सिंह चले गए थे और मुंबई का हरि भवन अब उदास और अकेला था। वहां से सभी के जाने का वक्त आ गया था। कैप्टन दीवान सिंह का भी, जो अंतिम क्षणों तक महाराजा के साथ साए की तरह रहे थे। उन नौकरों-चाकरों का भी, जिन्हें महाराजा अब अपना असली परिवार मानते थे। महाराजा ने अपनी वसीयत में सभी के साथ नीर-क्षीर न्याय किया था। वैसे भी सिंहासनारूढ़ होते समय उन्होंने संकल्प लिया था-न्याय ही मेरा धर्म है। अपनी वसीयत में उन्होंने सभी नौकरों को, जितने साल उन्होंने नौकरी की थी, प्रत्येक साल की एवज में तीन महीने की अतिरिक्त तनख्वाह दी। उच्च पदस्थ सहायकों को कीमती मकान और बहुमूल्य उपहार दिए गए। उनकी जम्मू के नागबणी में एक स्कूल खोले जाने की इच्छा थी।

हरि सिंह के प्रथम जीवनीकार सोमनाथ वाखलु ने बहुत बाद में लिखा, ‘कुल मिलाकर महाराजा हरि सिंह का जीवन एक त्रासदी कही जा सकती है। यह ठीक है कि किसी विरोधी ने सीजर की तरह उनकी सीधे-सीधे हत्या नहीं की, लेकिन उन्हें इतना घायल और अपमानित किया गया, उनको परेशान किया गया और उनके साथ इतना दुर्व्यवहार किया गया कि वह मधुमेह का शिकार हो गए। कालांतर में मधुमेह, तनावों के कारण बढ़ता गया और हृदयाघात के कारण उनकी मृत्यु हो गई।’ कई साल बाद जम्मू की ही पद्मा सचदेव ने अपने उपन्यास ‘जम्मू जो कभी शहर था’ में महाराजा की मृत्यु पर, उपन्यास की नायिका सुग्गी नाईन के माध्यम से लिखा, ‘देखो विधाता ने क्या किया। जुगराज और जुगरानी दोनों विदेश में थे। महारानी कांगड़ा में थीं और कप्तान दीवान सिंह को भी महाराजा ने कहीं भेजा हुआ था। बस, अपने दो-चार नौकर ही थे। डाक्टर को महाराजा साहब ने कहा था-मैं जा रहा हूं डाक्टर। यह कह कर सुग्गी की आंखें भर आईं। बैसाखी के दिन थे, उदासी भरे। खबर आ गई, महारानी तारादेवी कांगड़ा से आ रही हैं। मोटरें चल पड़ी हैं। जुगराज और जुगरानी भी आ गए थे, पर संस्कार तो हो ही चुका था। जुगराज उनकी भस्म लेकर आए। महाराजा की इच्छा के मुताबिक भस्म जम्मू की पहाडि़यों पर, पीर पंचाल पर और तवी में बिखरा दी गई। सुग्गी विलाप करने लगी, ओ जम्मू के राजा, अंत में आपको अपनी मिट्टी भी न मिली। जिन्होंने आपको देस निकाला दिया, उनको कीड़े पड़ेंगे।’ सुग्गी का यह प्रलाप प्रकारांतर से समस्त डोगरा समाज की महाराजा हरि सिंह को श्रद्धांजलि थी।

महाराजा अपनी वसीयत में जम्मू में एक विद्यालय खोलने का निर्देश दे गए थे। ऐसा स्कूल, जिसमें गरीबों के बच्चे बिना शुल्क के पढ़ ही न सकें, बल्कि जीवनयापन के लिए कृषि कार्य से संबंधित ज्ञान भी प्राप्त कर सकें। उसी के अनुसार जम्मू से दस किलोमीटर दूर नागबनी में ‘महाराजा हरि सिंह एग्रीकल्चर कालेज’ स्कूल प्रारंभ किया गया। 1967 में न्यासियों ने यह स्कूल नई दिल्ली की डीएवी प्रबंध समिति के हवाले कर दिया। स्कूल का अपना भव्य भवन है। उसका अपना छात्रावास भी है। स्कूल का शिक्षा स्तर भी उत्तम ही कहा जा सकता है, लेकिन स्कूल निःशुल्क शिक्षा नहीं देता। अलबत्ता फीस माफी का प्रावधान तो जैसा अन्य स्कूलों में होता है, वैसा यहां भी है। कुछ अनाथ बच्चों को भी निःशुल्क पढ़ाया जाता है, लेकिन महाराजा की इच्छा के अनुसार कम से कम कृषि की शिक्षा यहां नहीं दी जाती। एग्रीकल्चर स्कूल लिखते समय शायद महाराजा की इच्छा रही होगी कि विद्यार्थी उन्नत खेती के तौर-तरीके सीख कर खेती में सुधार लाएं। महाराजा हरि सिंह के वारिसों ने स्कूल में कभी रुचि नहीं ली। लेकिन इसे जम्मू की भाषा में यह भी कह दिया जाता है कि उन्होंने कभी इसमें दखलअंदाजी नहीं की। जब तक कैप्टन दीवान सिंह जिंदा थे, तब तक वह स्थानीय समिति के अध्यक्ष भी थे और महाराजा हरि सिंह की निशानी मान कर स्कूल की संभाल भी करते थे। लेकिन कैप्टन साहब के स्वर्गवास से महाराजा हरि सिंह और महाराजा हरि सिंह एग्रीकल्चर कालेज स्कूल के बीच की वह अंतिम कड़ी भी समाप्त हो गई। महाराजा हरि सिंह इस संसार से चले गए थे। जम्मू-कश्मीर को देश के संघीय संविधान का अंग बना देने के बाद वह मुंबई में निष्कासित जीवन बिताने के लिए बाध्य किए गए। अब वह उस बंधन से भी मुक्त थे। उनकी राख जम्मू-कश्मीर की मिट्टी में मिल गई थी, लेकिन हरि सिंह को भारत माता का एक और ऋण अभी भी चुकाना था। उनके देहमुक्त हो जाने के डेढ़ साल बाद चीन ने भारत पर हमला कर दिया था। देश गंभीर संकट में से गुजर रहा था। हथियार खरीदने के लिए पैसा चाहिए था। डोगरा राजवंश का नौ मन सोने का राज सिंहासन रियासत में रखा था। इस स्वर्ण सिंहासन पर अंतिम बार महाराजा हरि सिंह ही बैठे थे। अब देश को स्वर्ण भंडार की आवश्यकता थी। राज्य के मुख्यमंत्री बख्शी गुलाम मोहम्मद डोगरा राजवंश का यह स्वर्ण सिंहासन दिल्ली जाकर भारत के वित्त मंत्री मोरारजी देसाई को दे आए। पितृपक्ष में जन्मे हरि सिंह मानो इस दान से मातृभूमि के ऋण से भी मुक्त हो गए।

अंतिम दिनों में महाराजा हरि सिंह के लिए मुंबई ही रंगून बन गया था। वक्त के सत्ताधीशों ने उन्हें, उनके कू-ए-यार से निष्कासित कर दिया था। बहादुर शाह जफर शायरी से अपने आप को अभिव्यक्त करते थे, लेकिन हरि सिंह अपने भागते हुए अश्वों को दूर तक देखते हुए अपनी पीड़ा को अंदर ही अंदर समा लेते थे। जफर को विदेशी शासकों ने जलावतन किया था, हरि सिंह अपनी ही सरकार का दिया हुआ दर्द भोगने को अभिशप्त थे। लेकिन जम्मू के उनके अपने लोग इतने साल बाद भी उनको भुला नहीं पा रहे थे। वे हरि सिंह से किए गए व्यवहार से स्वयं को शर्मिंदा महसूस कर रहे थे। अंततः उन्होंने अपने महाराजा के इस संसार से चले जाने के पूरे पांच दशक बाद प्रथम अप्रैल, 2012 को उनकी भव्य मूर्ति तवी नदी के सेतु पर स्थापित करके स्वयं को उऋण किया। यह महाराजा की घर वापसी थी। उनकी इस घर वापसी पर भी जम्मू में नए बने सचिवालय भवन पर राज्य का ध्वज, सरकार ने इस अवसर पर भी झुकाना उचित नहीं समझा। लोगों में इस बात को लेकर काफी गुस्सा था। कुछ विद्यार्थी सचिवालय भवन पहुंच गए और राज्य ध्वज झुकाने की मांग करने लगे। मांग न मानी जाने पर उन्होंने बलपूर्वक सचिवालय में घुसने का प्रयास किया। अब लगभग छह दशक बाद राज्य विधान परिषद ने प्रस्ताव पारित किया है कि महाराजा हरि सिंह के जन्मदिन का अवकाश घोषित किया जाए। लगता है इतिहास बदल रहा है।

ई-मेल : kuldeepagnihotri@gmail.com


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