माँ छिन्नमस्तिका शक्तिपीठ

By: Sep 16th, 2017 12:07 am

इस मंदिर में स्थापित मूर्ति के गले से दोनों ओर  से हमेशा रक्त की धारा बहती रहती हैं। जिसके कारण यह अधिक फेमस भी है। इस मंदिर को असम के कामाख्या मंदिर के बाद दुनिया के दूसरे सबसे बड़े शक्तिपीठ के रूप में माना जाता है। रजरप्पा में इस सिद्धपीठ के अलावा यहां पर अनेक मंदिर स्थित हैं जैसे महाकाली मंदिर, सूर्य मंदिर, दस महाविद्या मंदिर, बाबाधाम मंदिर, बजरंग बली मंदिर, शंकर मंदिर और विराट रूप मंदिर। दामोदर और भैरवी के संगम स्थल के पास ही मां छिन्नमस्तिका मंदिर बना हुआ है…

Aasthaमाता दुर्गा के चारों ओर हजारों मंदिर हैं। जो कई अवतारों में विराजित हैं। हर मंदिर के पीछे एक रोचक कहानी है। इसी तरह झारखंड की राजधानी रांची से लगभग 80 किलोमीटर की दूरी पर मां छिन्नमस्तिका मंदिर है। रजरप्पा के भैरवी-भेड़ा और दामोदर नदी के संगम पर स्थित मां छिन्नमस्तिका मंदिर आस्था की धरोहर है। दस महाविद्याओं में माता छिन्नमस्तिका छठी महाविद्या कहलाती हैं। छिन्नमस्तिका देवी को मां चिंतपूर्णी के नाम से भी जाना जाता है।  देवी के इस रूप के विषय में कई पौराणिक धर्म ग्रंथों में उल्लेख मिलता है। मार्कंडेय पुराण व शिव पुराण आदि में देवी के इस रूप का विशेष वर्णन किया गया है। इनके अनुसार  देवी ने चंडी का रूप धरकर राक्षसों का संहार किया। इस मंदिर में स्थापित मूर्ति के गले से दोनों ओर से हमेशा रक्तधारा बहती रहती हैं। जिसके कारण यह मंदिर अधिक फेमस भी है। इस मंदिर को असम के कामाख्या मंदिर के बाद दुनिया के दूसरे सबसे बड़े शक्तिपीठ के रूप में माना जाता है। रजरप्पा में इस सिद्धपीठ के अलावा यहां पर अनेक मंदिर स्थित हैं जैसे महाकाली मंदिर, सूर्य मंदिर, दस महाविद्या मंदिर, बाबाधाम मंदिर, बजरंग बली मंदिर, शंकर मंदिर और विराट रूप मंदिर। दामोदर और भैरवी के संगम स्थल के पास ही मां छिन्नमस्तिका मंदिर बना हुआ है। दामोदर और भैरवी नदियों पर अलग-अलग दो गर्म जल कुंड हैं। माना जाता है कि इस कुंड में नहाने से चर्म रोग और कई गंभीर बीमारियां सही हो जाती हैं।

यह है छिन्नमस्तिका की उत्पत्ति की कहानी

एक बार भगवती भवानी अपनी दो सहेलियों जया और विजया के साथ मंदाकिनी नदी में स्नान करने गईं। स्नान करने के बाद भवानी के साथ-साथ दोनों सहेलियों को तेज भूख लगी। जिसके कारण उनका शरीर काला पड़ गया।  सहेलियों ने मां से भोजन मांगा। देवी ने उनसे कुछ प्रतीक्षा करने को कहा, लेकिन वह बार-बार भूख लगने की हठ करने लगीं। बाद में सहेलियों ने विनम्र आग्रह करते हुए कहा, मां तो अपने बच्चों को तुंरत भोजन प्रदान करती है। ऐसा सुनकर भवानी ने अपनी खड़ग से अपना ही सिर धड़ से अलग कर दिया। कटा हुआ सिर उनके बाएं हाथ में जा गिरा और तीन रक्त धाराएं बहने लगीं। वह दो धाराओं को अपनी सहेलियों की ओर प्रवाहित करने लगीं और तीसरी धारा जो ऊपर की ओर बह रही थी, उसे स्वयं पान करने लगीं। तभी से यह छिन्नमस्तिका कही जाने लगीं। असम में मां कामाख्या और बंगाल में मां तारा के बाद झारखंड का मां छिन्नमस्तिका मंदिर तांत्रिकों का मुख्य केंद्रित स्थान है। यहां देश-विदेश के कई साधक अपनी साधना करने नवरात्रि और प्रत्येक माह की अमावस्या की रात में आते हैं। तंत्र साधना द्वारा मां छिन्नमस्तिका की कृपा प्राप्त करते हैं।  मां छिन्नमस्तिका का सिर कटा है और इनके गले के दोनों ओर से बहती हुई रक्तधारा को दो महाविद्याएं ग्रहण करती हुई दिखाई दे रही हैं। मां के पैर के नीचे कमलदल पर लेटे हुए कामदेव और रति है। यहां पर बकरे की बलि दी जाती है, लेकिन सबसे आश्चर्य की बात यह है कि जिस जगह बकरे की बलि दी जाती है, वहां पर इतना खून पड़े रहने के बाद भी एक भी मक्खी नहीं लगती है। यहा सब मां की शक्ति के कारण ही संभव है।


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